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गुणों के धारक, अरे जो स्वयं परमात्मा ही हैं, ऐसे आत्मा को निर्गुण कैसे कह सकते हैं? निर्गुण कहने से उनके अनंत गुणों की भजना और उसके द्वारा उनकी प्राप्ति से सदा के लिए वंचित नहीं रह जाएँगे? परमात्मा की प्राप्ति तो उनके गुणों की भजना से ही होती है न! आत्मा प्रकृति के गुणों से निर्गुण और स्वगुणों से भरपूर है । प्रकृति का एक भी गुण आत्मा में प्रविष्ट नहीं हुआ है, आत्मा का एक भी गुण प्रकृति में मिश्रित नहीं हुआ है। प्राकृत गुणों के साथ कभी भी मिश्रित हुआ ही नहीं है, ऐसा आत्मा निरंतर शुद्ध ही है !
आत्मा ज्ञानवाला नहीं बल्कि ज्ञानस्वरूप ही है, प्रकाशस्वरूप है, उस प्रकाश के आधार पर ही खुद को सभी ज्ञेय समझ में आते हैं और दृश्य दिखते हैं।
आत्मा सर्वव्यापी है, वह किस अपेक्षा से?
आत्मा का प्रकाश सर्वव्यापी है, न कि आत्मा स्वयं ! इस बल्ब की लाइट पूरे रूम को प्रकाशमान करती है, व्याप्त करती है, परन्तु बल्ब पूरे रूम में नहीं है, वह तो अपनी जगह पर ही है । सिर्फ अंतिम जन्म में, चरम-शरीर में कि जब आत्मा परमात्मा बनकर संपूर्ण निरावरण होकर सिद्धपद में प्रवेश करता है, तब पूरा ब्रह्मांड प्रमेय बन जाता है, पूरे ब्रह्मांड में परमात्मा का प्रकाश व्याप्त हो जाता है। खूबी बस इतनी ही है कि इस प्रकाश में कहीं भी तरतमता ( ऐसा प्रकाश जिसकी गहनता दूर जाने पर कम नहीं होती, जिस प्रकाश से छाया नहीं पड़ती) नहीं होती ! यदि परमात्मा सभी जगह पर होते, कण-कण में होते तो उन्हें ढूँढने को रहा ही कहाँ? अपने अंदर विद्यमान आत्मा कहाँ कहीं पर व्याप्त होने जाता है ? इस प्रकार आत्मा चेतनरूप से नहीं परन्तु स्वभावरूप से सर्वव्यापी है !
भगवान प्रत्येक जीव में प्रकाशरूप से रहते हैं । परन्तु जब जीव दृष्टिगोचर होता है तब दिव्यचक्षु से उनके अंदर भगवान के दर्शन हो सकते हैं। प्रभु क्रीचर में है, क्रियेशन में नहीं । लेकिन वे आवृत हैं। जो भाग निरावृत होता है उस दिशा का ज्ञान खुला होता है, जो कि व्यवहार में
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