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क्या जगत् मिथ्या है? दाढ़ दुखे, तो पूरी रात 'मिथ्या है' की माला फेरने से क्या दुःख मिथ्या हो जाता है? जगत् को मिथ्या माननेवाले रास्ते में क्यों पैसे या खुद की प्रिय पोटली को फेंक नहीं देते? जगत् मिथ्या नहीं है और ब्रह्म भी मिथ्या नहीं है। जगत् 'रिलेटिव' सत्य है और ब्रह्म 'रियल' सत्य है। जो मूल वस्तु को यथार्थ रूप से समझने नहीं देती, वह माया है।
ब्रह्मज्ञान, वह आत्मज्ञान का प्रवेशद्वार है। साधन, स्वरूप की एकाग्रता करवाते हैं, परन्तु स्वरूप की प्राप्ति नहीं। आत्माज्ञान से ही स्वरूप की प्राप्ति होती है। जगत् की विनाशी वस्तुओं पर से निष्ठा उठकर अविनाशी ब्रह्म की निष्ठा बैठ जाए, ब्रह्मनिष्ठ बन जाए, उसे ब्रह्मज्ञान कहा है। और आत्मनिष्ठ पुरुष तो स्वयं परमात्मा ही कहलाते हैं ! आत्मनिष्ठ अबुध होते हैं और ब्रह्मनिष्ठ में बुद्धि रहती है!
__ शब्दब्रह्म, नादब्रह्म वगैरह 'टर्मिनस' तक जाते हुए बीच के 'फ्लेग' स्टेशन हैं, जो कि बहुत हुआ तो एकाग्रता में रख सकते हैं। एकाग्रता से अध्यात्म की आदि है, फिर भी आत्मा उससे असंख्य मील दूर है! शब्द सनातन नहीं, परन्तु दो-तीन वस्तुओं के संयोग से उत्पन्न होनेवाली वस्तु है, अस्वाभाविक है। फिर भी जो शब्द अनुभव करवा दे, वह सच्चा, परन्तु अंत में तो शब्द का भी अवलंबन छूट जाता है और निरालंब दशा प्राप्त होती है।
ब्रह्ममय स्थिति होने के बाद जागृति पूर्णता तक पहुँचती है और जीवमात्र में शुद्ध ही दिखता है। 'अहम् ब्रह्मास्मि', उसमें खुद अपनी जात का अहंकार है। यह अहंकार यानी खुद जहाँ पर नहीं है, वहाँ पर 'मैं हूँ' का आरोप करता है। ब्रह्मप्राप्ति का परिणाम निरंतर परमानंद का स्वसंवेदन! जनकविदेही जैसी दशा!! संसार के सर्व संयोगों में भी परम असंगतता का अनुभव!!!
ब्रह्मप्राप्ति के लिए मल-विक्षेप को अथवा तो राग-द्वेष को निकालने के लिए जन्मोजन्म तक वृथा प्रयत्न करता है! किन्तु ब्रह्मप्राप्ति में बाधक
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