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के गुण-उत्पाद्, व्यय और ध्रौव-उसमें उत्पन्न होना और विनाश होना, वह वस्तु के पयायों को और स्थिर रहना, वह वस्तु के गुण को कहा है। जिनके स्थूल रूपकों में लोगों ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश को मान लिया और उनकी मूर्तियाँ रखीं!!! अरे, गीता की, गायत्री की भी मूर्तियाँ रखीं!!! गीता में श्रीकृष्ण के कहे हुए अंतरआशय को सूक्ष्मतम स्वरूप में भजने के बजाय स्थूल मूर्ति की भजना की! गायत्री के मंत्र को जपने के बदले मूर्ति में संतोष पाया !! बात की वैज्ञानिक गूढ़ता को भूल गए और स्थूल पकड़ लिया!
ब्रह्मा, विष्णु और महेश की मूर्तियों को सत्व, रजो और तमो गुण के प्रतीक के रूप में रखा गया है। रूपकों में सत्यता की टेढ़ी गली में उलझने के बजाय मुड़कर वापस खुद के घर की ओर जाना उत्तम ! उल्टी दिशा में तीव्र वेग से प्रवहमय हो रहे लोगों को ज्ञानी सच्ची दिशा की ओर मोडते हैं, वह भी निमित्तभाव से, कर्ताभाव से नहीं!
सत्य का शोधन तो निराग्रहता से ही होता है। आग्रह, वह अहंकार है। मैं चंदूलाल, इसका चाचा, इसका मामा...यह 'रिलेटिव' सत्य 'रियल' में असत्य ही सिद्ध होता है!
ज्ञानी हमेशा वास्तविकता ही 'ओपन' करते हैं, कोई उसे नहीं स्वीकारे तो खुद का सही ठहराने के लिए ज्ञानी सामनेवाले के साथ, उसके सोपान पर बैठे नहीं रहते। 'तेरी दृष्टि से सच है' ऐसा कहकर छूट जाते हैं! खुद के परम सत्य का भी जहाँ पर आग्रह नहीं है, वहाँ पर संपूर्ण वीतरागत्व प्रकट होता है!
अज्ञान को जान ले तो सामनेवाले के किनारे पर रहा हुआ ज्ञान मिल ही जाता है। आत्मा को जानेगा तो पुद्गल को जान जाएगा। और पुद्गल को जानेगा तो आत्मा को समझ जाएगा। वेदांती पुद्गल का अंत ढूँढने में लग गए और नेति-नेति कहकर रुक गए! केवळज्ञानी, सर्व प्रथम निज आत्मस्वरूप को प्राप्त करके, जो शेष बचा, उसे पुद्गल कहकर मुक्त हो गए!!! वास्तव में आत्मज्ञान जानना नहीं है। खुद को, खुद के ही स्वरूप