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या प्रतिबिंब को देखकर मात्र बिलीफ़ बदली है कि 'मुझे' यह क्या हो गया? 'रोंग बिलीफ़' हो जाने के कारण अहम् और बुद्धि की उत्पत्ति हुई, जिनके आधार पर प्रकृति की प्रवर्तना बनी (शुरूआत हुई)। वास्तव में 'मूल लाइट' कि जिसके प्रकाश से अहम् और बुद्धि प्रकाशित होकर प्रकृति को प्रकाशमान करने लगे, उस 'मूल लाइट' की तरफ़ की दृष्टि, उसका भान खत्म हो जाने से 'मूल लाइट' पर पर्दा पड़ गया, भ्राँति का! और प्रकृति के हाव-भाव को 'खुद के' ही हाव-भाव मानकर, 'खुद' परमात्मपद में से निकलकर 'खुद' प्रकृति के स्वरूप में बरतने लगा!!! जैसे कि दर्पण की चिड़िया को दूसरी सच्ची चिड़िया मानकर मूल चिड़िया चोंच मारती रहती है, ऐसा ही है न! कैसे फँसे! संयोगों में खुद परमात्मा कैसे फँसे हैं!! इसके बावजूद भी परमात्मा तो निज स्वभाव में त्रिकाल-बाधितरूप से ही रहे हुए हैं।
संयोगों के दबाव से आत्मा का ज्ञान पर्याय विभाविक हो गया है, मूल आत्मा नहीं। विभावदशा में जैसी कल्पना की, पुद्गल भी वैसा ही विभाविक हो गया, परिणाम स्वरूप मन-वचन-काया, गढ़े गए और 'व्यवस्थित' के नियम में फँस गए! इसलिए ही तो इस गुह्यतम विज्ञान के ज्ञाता, ऐसे 'ज्ञानीपुरुष' के संयोग से खुद की 'मूल लाइट' एक बार दृष्टि में आ जाने से 'खुद' मुक्तिपद प्राप्त करता है!!! जिस प्रकार जब गजसुकुमार के सिर पर ससुरजी ने जलती हुई सिगड़ी की पगड़ी बाँधी, उस घड़ी वे खुद नेमिनाथ भगवान के दिखाए हुए मूल लाइट में रहे और इस संयोग को ज्ञेय के रूप में ज्ञान में देखा और मोक्ष प्राप्त किया!
निजस्वरूप की और कर्तास्वरूप की रोंग बिलीफ़ से राग-द्वेष उत्पन्न होने के कारण अगले जन्म के लिए मन-वचन-काया की तीन बेटरियाँ चार्ज की भजना करती हैं और पुरानी तीन बेटरियाँ स्वाभाविक रूप से डिस्चार्ज की भजना करती हैं। 'ज्ञानी कृपा' से 'राइट बिलीफ़' बैठ जाए, तब वह खुद मुक्ति प्राप्त करेगा!
आत्मा के आदि या अंत के विकल्पों का शमन करने के लिए ज्ञानी आत्मा को अनादि-अनंत कहकर छूट गए! क्योंकि सनातन वस्तु की आदि
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