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अवस्थाओं में भी जो अजन्म-अमर है, ऐसा आत्मा वैसे का वैसा ही, निज स्वभाव में ही, हमेशा रहता है! जन्म भी, पुद्गल के साथ उसे खुद को जन्मोजन्म तक संगत करनी पड़ी! ये 'रोंग बिलीफ़' गई कि हो गया खद स्वतंत्र! संपूर्ण स्वतंत्र!!! बाकी न तो पुद्गल आत्मा से चिपका है और न ही आत्मा पुद्गल से चिपका है। पुद्गल अर्थात् परमाणु तत्व और आत्मतत्व के संयोग से, 'विशेष परिणाम' द्वारा उत्पन्न होने से प्रथम अहम्, क्रोध-मान-माया-लोभ, ऐसे व्यतिरेक गुणोंवाली प्रकृति उत्पन्न हुई और संसार का सर्जन हुआ! इसमें 'मूल आत्मा' संपूर्ण रूप से अक्रिय है। पुद्गल सक्रिय होने के कारण और अज्ञानता के कारण आत्मा के कर्तापन की भ्रांति उत्पन्न करवाता है! इस प्रकृति की जंजीरों से परमात्मा बने बंदीवन! परन्तु जहाँ बंधन है, वहाँ मोक्ष भी है। अज्ञानभाव से, भाँतभाव से बंधन और ज्ञानभाव से मुक्ति! जब कर्तापन की, खुद के स्वरूप की भाँति टूटती है, तब खुद किसी कर्म का कर्ता नहीं रहता, 'खुद परमात्मा ही है' इसका भान निरंतर बरतता है और सर्व प्रकार से संपूर्ण स्वतंत्र, मुक्त बनता है!
जन्म-मरण का मूल कारण अज्ञान है, जब कि ज्ञान से मुक्ति मिलती है, आवागमन, जन्म-मरण अहंकार को है। योनि प्राप्ति 'साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स' के अधीन है, उसमें किसीकी स्वतंत्रता नहीं है, भगवान की भी नहीं!
आरोपितभाव और संसारीभाव की वजह से कारण शरीर उत्पन्न होने के बाद दूसरे पार्लियामेन्टरी मेम्बर मिलकर 'रिज़ल्ट' लाते हैं। जिससे 'इफेक्ट बॉडी' बनती है। पार्लियामेन्ट में प्रस्ताव रखने के बाद मेम्बर चले जाते हैं ! और प्रस्ताव रह जाते हैं, वे प्रस्ताव एक के बाद एक रूपक में आते जाते हैं!
स्थूलदेह से आत्मा छूटता है तब आत्मा के साथ सूक्ष्म-देह, कारणदेह और क्रोध-मान-माया-लोभ चले जाते हैं। कारणदेह अगले जन्म में कार्यदेह बनता है। जब तक कर्म की सिलक (जमापूँजी) रहती है, तभी तक ही तैजस शरीर साथ में रहता है, यानी कि जन्मभर साथ में रहता है और वह मोक्ष होने तक आत्मा के साथ में ही रहता है!
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