Book Title: Aptamimansa Author(s): Samantbhadracharya, Jugalkishor Mukhtar Publisher: Veer Seva Mandir TrustPage 15
________________ १४ देवागम किसी अर्थका दूसरा पर्याय शब्द भी बैकटके भीतर रखा गया है । साथ ही किसी-किसी कारिकाके अर्थको और विशद करनेके लिए व्याख्याको भी अपनाया गया है। जैसे कारिका ८ की व्याख्या । ऐसी व्याख्याएँ और अधिक लिखी जातीं तो अच्छा होता । परन्तु समय और शक्तिने यथावसर इजाजत नहीं दी। इससे मूलग्रन्थ और अनुवादकी सारी स्थितिको भले प्रकार समझा जा सकता है । यहाँ एक बात और प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि प्रस्तुत देवागममें जिस आप्तकी मीमांसा की गई है वह आप्त वह है जो तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी आदिमें मंगलाचरणरूपसे रचित स्तुतिका विषयभूत है; जैसा कि अष्टसहस्रीका प्रारम्भ करते हुए विद्यानन्दजीके निम्न मंगलश्लोकवाक्यसे प्रकट है : 'शास्त्रावताररचितस्तुगोचराप्तमीमासितं कृतिरलक्रियते मयाऽस्य ।' अर्थात् तत्त्वार्थशास्त्रके अवतार समय रची गई जो स्तुति ('मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इत्यादि) उसका विषयभूत जो आप्त है उस आप्तकी मीमांसाको लिए हुए समन्तभद्रकी कृति (आप्तमीमांसा) को मैं अलंकृत करता है । इसी बातको विद्यानन्दने अपनी आप्तपरीक्षाके अन्त में निम्न पद्य द्वारा और भी स्पष्ट कर दिया है : श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्राद्धतसलिलनिधेरिद्धरत्नोद्भवस्य, प्रोत्थानारम्भकाले सकलमलभिदे शास्कारैः कृतं यत् । स्तोत्र तीर्थोपमानं प्रथितपृथुपथं स्वामिमीमांसितं तत्, विद्यानन्दैः स्वशक्तया कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्धयं ॥ इसमें जो कुछ दर्शाया है उसका सार इतना ही है कि तत्त्वार्थशास्त्र नामका जो अद्भुत समुद्र है उसके निर्माणके प्रारम्भकाल में मंगलाचरणके लिए जो तीर्थोपमान स्तोत्र सूत्रकारद्वारा रचा गया है उसकी स्वामी समन्तमद्रने मीमांसा की है और मैंने यह परीक्षा सत्यवाक्यार्थकी सिद्धिके लिए लिखी है। ऊपर जिस मंगल-स्तोत्रकी चर्चा है वह पद्य इस प्रकार है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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