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अनुवादकोय यह हस्तलिखित प्रति आज भी मेरे संग्रहमें सुरक्षित है। इस टोकासे मुझे ग्रन्थको अधिकाधिक जानकारीके लिए और जो गुत्थियाँ इस टीकासे नहीं सुलझ सकी उन्हें सुलझानेके लिए दूसरी टीकाओंको देखने की प्रेरणा मिली और मै बराबर उनकी तलाशमें रहा । सन् १९७५ में सनातन जैन ग्रन्थमालाका प्रथम गुच्छक बम्बईसे प्रकाशित हुआ, जिसमें वसुनन्दि आचार्यकी एक वृत्ति (संस्कृत-टीका) देखनेको मिली। यह वृत्ति शब्दार्थको दृष्टिसे अच्छी उपयोगी जान पड़ी। इसके अन्तमें आचार्यने स्वामी समन्तभद्रको 'त्रिभुवनलब्धजयपताक', 'प्रमाणनयचक्षु' और 'स्याद्वादशरीर' जैसे विशेषणोंके साथ उल्लेखित किया है और अपनेको 'श्रुतविस्मरणशील' तथा 'जडमति' लिखा है और 'आत्मोपकार' के लिए इस टीकाका लिखा जाना सूचित किया है। इससे कोई १० वर्ष बाद सन् १९१५ में अष्टसहस्रीका प्रकाशन भी बम्बईसे हुआ। वह अष्टशतीको भी हृदयंगम किये हुए है और अनेक टिप्पणोंको भी साथमें लिए हुए है। तभीसे वे मेरे अध्ययनका विषय बनी रही हैं और उनसे प्रत्येक उलझने सुलझो हैं ।
मेरा प्रस्तुत अनुवाद मुख्यतः अष्टसहस्रीके आधारपर अवलम्बित है, जिसके लिए मैं श्रीविद्यानन्दाचार्यका बहुत आभारी हूँ। मेरे अनुवादमें जो कुछ खूबी है उसका प्रमुख श्रेय स्वामी समन्तभद्र और उनके अनन्यभक्त उक्त आचार्य महोदयको प्राप्त है, जहाँ कहीं कोई त्रुटि है वहाँ मेरी अपनी ही है। मैंने सब टीका-टिप्पणोंके साथ अष्टसहस्रीका दोहन कर जो मोटा नवनीत (मक्खन) निकाला है और जिसे मैंने अपने पाठकोंके लिए परम उपयोगी तथा हितकर समझा है उसीको अनुवादादिके रूपमें निबद्ध किया गया है, जो पाठक विशेष सूक्ष्म बातोंको जानने के इच्छुक हों वे अष्टसहस्रोसे अपना सीधा सम्बन्ध स्थापित करें । मूल कारिकाओंपरसे जो अर्थ सहज फलित तथा अनुभत होता है उसे मूलानुगामो अनुवादके रूपमें ब्लैक-टाइपमें रखा गया है, उस अर्थका यथाशक्य स्पष्टोकरण डैश (-) के अनन्तर अथवा दो डैशोंके भीतर दिया गया है और जो बातें कथनका सम्बन्ध बिठलानेके लिए ऊपरसे लेनी पड़ी हैं गोल कटके भीतर रखा गया है-कहीं-कहीं
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