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पाठ -6
महापुराण
सन्धि - 16
16.3
घत्ता - चक्र ठहर गया। श्रेष्ठ नगर में (उसने) प्रवेश नहीं किया, मानो (वह) किसी के द्वारा पकड़ लिया गया (हो)। श्रेष्ठ देवताओं के द्वारा घेरा गया (वह) (ऐसा लगता था) मानो आकाश में चन्द्रमण्डल तारागणों द्वारा (घेर लिया गया) (हो)।
16.4
(1) तब निर्भय और प्रसिद्ध राजा (भरत) के द्वारा (यह) कहा गया (कि) प्रचण्ड वायु के वेगवाला, युवा सूर्य के तेजवाला (यह) दृढ़ अंगवाला चक्र यहाँ क्यों ठहरा (स्थिर हुआ)? (2-3) उसको सुनकर (राज-) पुरोहित ने कहा (कि) जिस कारण से इस (चक्र) की गति का प्रवाह रोका गया (है) उसको (मैं) बताता हूँ- हे परमेश्वर! हे देवों के देव! हे दुर्जेय भरतेश्वर! (आप) उसको सुनें। (4-5-6) (तुम्हारे भाइयों का) (जो) दोनों भुजाओं के बल से शत्रु की सेना का (विविध प्रकार से) दमन करनेवाले (है), (जो) स्थिर पृथ्वीतल को पैरों के भार से कँपानेवाले (हैं), (जिनके द्वारा) सूर्य और चन्द्रमा का तेज तिरस्कार किया गया (तिरस्कृत) (है), (जिनको) पृथ्वीरूपीलक्ष्मी पिता के द्वारा मनोविनोद के लिए दी गई (है), (तथा) कीर्ति, शक्ति और जनता से (उनकी) मित्रता (है) (और वे) (उनकी) सहायता के लिए (तत्पर) हैं। तुम्हारे (उन) भाइयों का यहाँ कौन जोड़वाला (प्रतिद्वन्द्वी) (है)। (7) (इसलिये) (वे) (तुम्हारी) सेवा नहीं करते हैं। तुम्हारे अत्यधिक कान्ति से (युक्त) नखवाले चरण रूपी कमलों को (वे) प्रणाम नहीं करते
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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