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पुणु-पुणु
पणविवि
पंच-गुरु
भावें चित्ति
धरेवि
भट्टपहायर
णिसुणि
तुहुँ - तुहुँ'
अप्पा
तिविहु
कहेवि
2.
अप्पा
ति-विहु
मुणेवि
लहु
मूढउ
मेल्लहि
भाउ
1.
343
पाठ - 15
परमात्मप्रकाश
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अव्यय
(पणव + इवि) संकृ
[(पंच) वि- (गुरु) 2/2]
(भाव) 3 / 1
(चित्त) 7 / 1
(धर + एवि ) संकृ
( भट्टपहायर) 8 / 1
(णिसुण) विधि 2 / 1 सक
( तुम्ह ) 1 / 1 स
( अप्प ) 2 / 1
(तिविह) 2 / 1 वि
(कह + एवि) हे
(3709) 2/1
(तिविह) 2 / 1 वि
(मुण + एवि) संकृ
अव्यय
8
( मूढअ) 2 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
(मेल्ल) विधि 2 / 1 सक (737) 2/1
बार-बार
प्रणाम करके
पाँच गुरुओं को
अन्तरंग बहुमान (भाव) से
चित्त में
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धारण करके
हे भट्ट प्रभाकर
सुन
तू
आत्मा को
तीन प्रकार की
कहने के लिए
आत्मा को
तीन प्रकार की
पदों के अन्त में यदि 'उं, हुं, हिं, हं' इन चारों अक्षरों में से कोई भी अक्षर आ जाय तो इनका उच्चारण प्रायः ह्रस्व रूप से होता है। इसलिए यहाँ तुहुं का ह्रस्व रूप बताने के लिए तुहुँ किया गया है । (हेम प्राकृत व्याकरण 4-411 )
जानकर
शीघ्र
मूर्च्छित
छोड़
आत्मावस्था (भाव) को
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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