Book Title: Apbhramsa Kavya Saurabh
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 383
________________ बहु संपयई जइ किविहं घरि हो उवहिणीरु खारें भरिउ पाणिउ पियइ ण कोइ' 9. पत्तहं दिण्णउ थोवडउ रे जिय होइ बहुतु वडह 2 बीउ धरणिहि पडिउ वित्थरु लेइ महंतु 1. 2. अपभ्रंश काव्य सौरभ ( बहुत्तअ ) 3 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक ( संपयअ ) 3 / 1 'अ' स्वार्थिक अव्यय (किविण ) 6 / 2 वि (घर) 7/1 (हो) व 3 / 1 अक [ ( उवहि) - (णीर) 1 / 1 ] (खार) 3 / 1 ( भर - भरिअ) भूकृ 1/1 (पाणिअ) 2/1 (पिय) व 3 / 1 सक अव्यय (क) 1 / 1 सवि Jain Education International अनिश्चितता के लिए 'इ' प्रत्यय जोड़ दिया जाता है। श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 150 (पड - पडिअ ) भूकृ 1/1 ( वित्थर) 2 / 1 वि (ले) व 3 / 1 सक (महंत ) 2 / 1 वि बहुत सम्पदा से जो कृपणों के घर में होती है पात्रों के लिए (पत्त) 4 / 2 (दिण्णअ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक दिया हुआ (थोव + अडअ ) 1 / 1 वि 'अडअ' स्वार्थिक थोड़ा अव्यय अरे (जिय) 8/1 हे मनुष्य (हो) व 3 / 1 अक होता है (बहुत्त) 1/1 वि (वड ) 6/1 (बीअ) 1 / 1 ( धरणि) 7/1 For Private & Personal Use Only समुद्र का जल खार से भरा हुआ पानी को पीता है नहीं कोई बहुत बट का बीज पृथ्वी पर (में) पड़ा हुआ विस्तार ले लेता है बड़ा 372 www.jainelibrary.org

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