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लक्खणु
एहु
णिरुत्तु
19.
भव-तणु-भोय - विरत्त-मणु
जो
अप्पा
झाएइ
तासु
गुरुक्की
वेल्डी
संसारिणि
तुट्टेइ
20.
देहादेवलि
जो
वसई
देउ
अणाइ-अतु
केवल-णाण-फुरंत-तणु
सो
परमप्पु
भिंतु
1.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
( लक्खण) 1/1
(एअ) 1/1 सवि
( णिरुत्त) भूकृ 1 / 1 अनि
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[ ( भव) - (तणु) - (भोय) - (विरत्त) भूक
अनि - (मण) 1 / 1 ]
(ज) 1 / 1 सवि
(अप्प ) 2 / 1
( झाअ ) व 3 / 1 सक
(त) 6 / 1 स
(गुरुक्क - (स्त्री) गुरुक्की) 1 / 1 वि (वेल्ल + + अड + (स्त्री) वेल्लडी) 1/1 'अड' स्वार्थिक
( संसारिणी) 1 / 1 वि
(तुट्ट) व 3 / 1 अक
[ ( देह - देहा) 1 - (देवल) 7/1]
(ज) 1 / 1 सवि
(वस) व 3 / 1 सक
(237) 1/1
[ ( अणाइ) वि- (अनंत ) 1 / 1 वि]
[(केवल) - ( णाण) - (फुरंत) वकृ- (तणु) 1/1]
(त) 1 / 1 सवि
लक्षण
यह
बताया गया
संसार, शरीर और भोगों से
उदासीन हुआ मन
जो
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आत्मा को (का)
ध्यान करता है
उसकी
घनी
बेल
संसाररूपी
नष्ट हो जाती है
देहरूपी मन्दिर में
जो
समासगत शब्दों मे रहे हुए स्वर अक्सर ह्रस्व के स्थान पर दीर्घ और दीर्घ के स्थान पर ह्रस्व हो जाया करते हैं । (हेम प्राकृत व्याकरण 1-4)
बसता है
दिव्य आत्मा
अनादि-अनन्त
केवलज्ञान से चमकता हुआ
शरीर
वह
[(परम) + (अप्पु ) ] [ ( परम ) - (अप्प ) 1 / 1 ] परम आत्मा
( भिंत) 1 / 1 वि
सन्देहरहित
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