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पिसुणालाव-भरीसिएण
वह
दुक्कर उल्हाविज्जइ
[(पिसुण)+ (आलाव)+ (भर)+ (ईसिएण)] चुगलखोरों के ईर्ष्या से भरे [(पिसुण)-(आलाय)-(भर) वि-(ईसिअ) हुए आलाप से 3/1] (त) 1/1 सवि क्रिविअ
कठिनाई से [(उल्हा- उल्हावि- उल्हाविज्ज) प्रे व कर्म शान्त किया जाता है 3/1 सक [(मेह)-(सअ) 3/1]
सैंकड़ों मेहों से अव्यय (वरिस) 3/1 'इअ' स्वार्थिक बरसने से (द्वारा)
मेह-सएण वि वरिसिएण
भी
83.8
सीय
सीता
नहीं
भीय
डरी
(सीया) 1/1 अव्यय (भीय) भूकृ 1/1 अनि [(सइत्तण)-(गव्व) 3/1] (वल+एवि) संकृ (प-वोल्ल) भूकृ 1/1 (मच्छर)-(गव्व)3/1
सइत्तण-गव्वे वलेवि
सतीत्व के गर्व के कारण
मुड़कर
पवोल्लिय
कहा गया
मच्छर-गव्वे
क्रोध और गर्व से
पुरुष
पुरिस णिहीण
होन्ति
(पुरिस) 1/2 (णिहीण) 1/2 वि (हो) व 3/2 अक (गुणवन्त) 1/2 वि
अव्यय (तिया) 6/1
गुणवन्त
गुणवान चाहे
वि
तियहे
स्त्री के द्वारा
कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
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अपभ्रंश काव्य सौरभ
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