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1.
सायरु
उप्पर
तणु
धरइ
तलि
घल्लइ
रयणाई
सामि
सुभिच्चु
विपरिहरइ
संमाणे
खलाई
2.
दूड्डाणे
पडिउ
खलु
अप्पणु
जणु
मारेइ
जिह
1.
331
पाठ 14
हेमचन्द्र के दोहे
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( सायर) 1 / 1
अव्यय
( तण ) 2 / 1
(धर) व 3 / 1 सक
(तल) 7/1
(घल्ल) व 3 / 1 सक
( रयण) 2/2
(सामि) 1 / 1
(सु - भिच्च) 2/1
(वि-परिहर) व 3 / 1 सक
( संमाण) व 3 / 1 सक
(खल) 2/2
[(दूर) + (उड्डाणे ) ] दूर (क्रिविअ )
उड्डाणे ( उड्डाण ) 7/1
(पड - पडिअ ) भूक 1/1
(खल) 1 / 1 वि
( अप्पण) 2/1
( जण ) 2 / 1
(मार) व 3 / 1 सक
अव्यय
सागर
ऊपर
घास-फूस को
रखता है
पैदे में
फेंक देता है
रत्नों को
राजा
गुणवान सेवक को
त्याग देता है
सम्मान करता है।
दुष्ट सेवकों को (का)
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ऊँचाई से,
उड़ने के कारण
गिरा हुआ
दुष्ट
अपने को
कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135)
मनुष्य को (मनुष्यों को)
नष्ट करता है
जिस प्रकार
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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