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गुरुआण
अच्छों की संगति को
जो
जणु वहेइ
(गुरुअ) 6/2 वि (संग) 2/1 (ज) 1/1 सवि (जण) 1/1 (वह) व 3/1 सक [(हिय)-(इच्छ-इच्छिय-इच्छिया) भूकृ 2/1] (संपइ) 2/1 (त) 1/1 सवि (लह) व 3/1 सक
मनुष्य धारण करता है मन से चाही गई (को)
हियइच्छिय
संपइ
सम्पत्ति को
वह
प्राप्त करता है
यह
उच्चकहाणी
कहिय
तुज्झु गुणसारणि पुत्तय हियइँ
(एता) 1/1 सवि [(उच्च) वि-(कहाणी) 1/1] (कह-कहिय-कहिया) भूकृ 1/1 (तुम्ह) 4/1 स [[(गुण)-(सारणि) 1/1] वि] (पुत्त) 8/1 'अ' स्वार्थिक (हियअ) 7/1 (बुज्झ) विधि 2/1 सक
उच्च (पुरुष) की कहानी कही गयी तेरे लिए गुणों की परम्परा-वाली हे पुत्र हृदय में
बुज्झु
समझ
करकंडु जणाविउ
(करकंड) 1/1 [(जण+आविजणावि-जणाविअ) प्रे. भूक 1/1] (खेयर) 7/1 [(हिय) वि-(बुद्धि) 3/1] (सयल- (स्त्री) सयला) 1/2 वि (कला) 1/2
करकंड सिखाया गया, समझाया गया खेचर के द्वारा हितकारी बुद्धि से
खेयर
हियबुद्धिएँ
सयलउ
समस्त
कलउ .
कलाएँ
1.
कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135)
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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