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(13) जिस तरह का निर्मल (और) ज्ञानमय दिव्यात्मा मोक्ष (पूर्णता की अवस्था) में रहता है उस तरह का (ही) परमात्मा (दिव्यात्मा) (विभिन्न) देहों में रहता है। (तू) भेद मत कर।
(14) जिस (तत्व) के अनुभव किए गए होने के कारण पूर्व में किए गए कर्म शीघ्र नष्ट हो जाते हैं, वह परम (आत्मा) (है) (तू) समझ। हे योगी! (इसके) देह में बसते हुए (भी) (तू) (इसको) क्यों नहीं (देखता है)।
(15) जहाँ इन्द्रिय-सुख-दु:ख नहीं (हैं), जहाँ मन का व्यापार (भी) नहीं (है), वह (परम) आत्मा (है)। हे जीव! तू (इस बात को) समझ और दूसरी (बात) को पूरी तरह से छोड़ दे।
(16) भेद और अभेद दृष्टि से जो (क्रमश:) देह में और बिना देह के अपने में रहता है वह (परम) आत्मा (है)। हे जीव! (इस बात को) तू समझ। दूसरी बहुत (बात) से क्या (लाभ है)?
(17) (तू) जीव (आत्मा) और अजीव (अनात्मा) को एक मत कर। (इनमें) लक्षण के भेद से (पूर्ण) भेद (है)। हे मनुष्य! (तू) अभेद रूप (विकल्परहित) आत्मा को जान। जो (इससे) अन्य है, वह अन्य (ही) (है), (ऐसा) मैं कहता हूँ।
(18) आत्मा मनरहित, इन्द्रिय (समूह से) रहित, मूर्ति-रहित (रूप, रस, गन्ध और स्पर्श-रहित), ज्ञानमय और चैतन्य स्वरूप (है), (यह) इन्द्रियों का विषय नहीं (है)। (आत्मा का) यह लक्षण बताया गया (है)।
(19) जो मन (व्यक्ति) संसार, शरीर और भोगों से उदासीन हुआ (परम) आत्मा का ध्यान करता है, उसकी धनी संसाररूपी (मानसिक तनावरूपी) बेल नष्ट हो जाती है।
(20) जो अनादि (है), अनन्त (है), (जो) देहरूपी मन्दिर में बसता है, (जिसके) केवलज्ञान से चमकता हुआ शरीर (है) वह दिव्य आत्मा (ही) परम आत्मा (है)। (यह) (बात) सन्देहरहित (है)।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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