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(7) जो (आत्मा) निज स्वभाव को नहीं छोड़ता है, जो पर स्वभाव को ग्रहण नहीं करता है, (जो ) नित्य ( है ), सर्वोच्च ( है ) और सकल ( पदार्थ - समूह) को जानता है वह ही सन्तुष्ट हुआ ( है ) (और) मंगलयुक्त (भी) बना है।
(8) जिस ( अवस्था ) का न (कोई) रंग (है), (जिस अवस्था में) न (कोई) गन्ध (है), (जिस अवस्था में) न ( कोई ) ( इन्द्रियात्मक) रस ( है ), जिस ( अवस्था ) में न (कोई) (कर्णोन्द्रिय सम्बन्धी ) शब्द ( है ), (और) ( जिस अवस्था में) न (कोई) (स्पर्शनेन्द्रिय सम्बन्धी ) स्पर्श ( है ), जिस ( अवस्था) का न (कोई) जन्म ( है ) ( और न ) मरण, (जिस ) ( अवस्था) (का) न ही (कोई ) नाम ( है ), उस ( अवस्था) का (स्वरूप) निष्कलंक (होता है ) ।
( 9 ) जिस (आत्मा) के न क्रोध ( है ), न मोह ( है ) (और) (न) मद ( है ), जिस ( आत्मा ) के न माया ( है ) (और) न मान ( है ), जिस (आत्मा) के लिए ( अनुभूति का ) ( कोई ) (विशिष्ट) देश नहीं ( है ), ( जिस ) ( आत्मा ) ( के लिए) ( प्रयत्नरूप) ध्यान नहीं ( है ), वह ही आत्मा निष्कलंक (होता है) । ( इस बात को ) (तुम) जानो ।
( 10 ) जिस ( अवस्था ) में न पुण्य है (और) न पाप, जिस ( अवस्था) में न हर्ष है (और) (न) शोक, जिस ( अवस्था) में एक भी दोष नहीं है वह ही अवस्था निष्कलंक (होती है) ।
( 11 ) जिसके लिए ( ध्यान के योग ) ( कोई ) अवलम्बन नहीं है, (जिसके लिए ) ( प्राप्त करने योग्य ) ( कोई ) उद्देश्य भी नहीं ( है ), जिसके लिए न यन्त्र (उपयोगी ) ( है ) (और) न मन्त्र ( उपयोगी ) ( है ), जिसके लिए न ही आसन, ( उपयोगी है) न (विशिष्ट) मुद्रा है वह अनन्त ( शक्तिवाला) दिव्यआत्मा ( है ) ( ऐसा ) (तुम) जानो ।
(12) जो (निष्कलंक) चैतन्य ( है ), ( उसका ज्ञान ) आगमों द्वारा, ( आगमों पर आधारित) ग्रन्थों द्वारा (तथा) इन्द्रियों द्वारा नहीं होता है । (तुम) निश्चय ही जानो ( कि) जो अनादि परमात्मा (निष्कलंक चैतन्य ) ( है ) वह निर्मल ध्यान का ( ही ) विषय ( होता है)।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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