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3.
वित्थिण्णु'
रण्णु
पइसन्ति
जाव
गोहु
महादुमु
दिडु
ताव
4.
गुरु- वेसु
कवि
सुन्दर-सराई
णं
विहय
पढावइ
अक्खराइँ
5.
वुक्कण-किसलय
कक्का
रवन्ति
वाउलि-विहङ्ग
कि-क्की
भणन्ति
6.
वण-कुक्कुड
1.
2.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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(वित्थिण्ण) भूकृ 2 / 1 अनि
(रण्ण) 2/1
( पइस पइसन्त ( स्त्री ) - पइसन्ति) वकृ 1 / 2
अव्यय
(णग्गोह) 1 / 1
[ (महा) - (दुम) 1 / 1 ]
(दिट्ठ) भूकृ 1 / 1 अनि
अव्यय
[(गुरु) - (वेस) 2 / 1]
(कर + एवि ) संकृ
[ ( सुन्दर) - (सर) 2/2]
अव्यय
(विहय) 2 / 2
( पढ + आव) व प्रे. 3 / 1 सक
(अक्खर ) 2/2
विशाल (फैले हुए)
वन को (में)
(कक्का) 2/2
(ख) व 3 / 2 सक
[(वाउलि = वाउलि) - (विहङ्ग) 1 / 2]
(fan-ft) 2/2
(भण) व 3 / 2 सक
ज्योंहि
बरगद
महावृक्ष
देखा गया
त्योंहि
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प्रवेश करते हुए
शिक्षक के रूप को
धारण करके
[(वुक्कण= बुक्कण) - (किसलय) 2 2/2] कौए, नये कोमल पत्तों
(वाली टहनी) पर
क - क्का (ध्वनि) को
बोलते हैं (थे) वाउलि-पक्षी
किक्की (ध्वनि) को
कहते हैं (थे)
[ ( वण) - (कुक्कुड) 1/2]
'गमन' अर्थ में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है।
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137)
सुन्दर स्वरों को
मानो
पक्षियों को
पढ़ाता है
अक्षरों को
मुर्गे
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