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कु-क्कू आयरन्ति
(कु-क्कू) 2/2 (आयर) व 3/2 सक (अण्ण) 1/1 वि
कु-क्कू (ध्वनि) को कहते हैं (थे) और
अण्णु
अव्यय
N
कलावि के-क्कइ चवन्ति
(कलावि) 1/2 (के-क्कई) 2/2 (चव) व 3/2 सक
के-क्कइ (ध्वनि) बोलते हैं (थे)
7.
पियमाहविय
को-क्कर
लवन्ति
[(पिय)-(माहविया) 1/2]] अव्यय (को-क्कउ) 2/2 (लव) व 3/2 सक (कं-का) 2/2 (वप्पीह=बप्पीह) 1/2 (समुल्लव) व 3/2 सक
कोयलें पादपूर्ति को-क्कउ (ध्वनि) को बोलती हैं क-का (ध्वनि) पपीहे बोलते हैं (थे)
कं-का
वप्पीह
समुल्लवन्ति
वह
तरुवरु
श्रेष्ठ वृक्ष
गुरु-गणहर-समाणु फल-पत्त-वन्तु अक्खर-णिहाणु
(त) 1/1 सवि [(तरु)-(वर) 1/1 वि] [(गुरु)-(गणहर)-(समाण) 1/1 वि] [(फल)-(पत्त)-(वन्त) 1/1 वि] [(अक्खर)-(णिहाण) 1/1]
गुरुगणधर के समान फल-पत्तों-वाला अक्षरों का भण्डार
पइसन्तेहिं असुर-विमद्दणेहि सिरु णामेकि. राम-जणद्दणेहि परिअञ्चेवि
(पइस-पइसन्त) व 3/2 [(असुर)-(विमद्दण) 3/2 वि] (सिर) 2/1 (णाम+एवि) संकृ [(राम)-(जणद्दण) 3/2] (परिअञ्च+एवि) संकृ (दुम) 1/1 [(दसरह)-(सुअ) 3/2]
प्रवेश करते हुए (के द्वारा) असुरों का नाश करनेवाले सिर को नमाकर राम-लक्ष्मण के द्वारा परिक्रमा करके
मु
वृक्ष
दसरह-सुएहिँ
दशरथ के पुत्र (द्वारा)
159
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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