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(7) घर, नौकर-चाकर, शरीर (तथा) इच्छित वस्तु को अपनी मत जानो, (चूँकि) (वे) (सब) (आत्मा से) अन्य (हैं)। (वे) (सब) कर्मों के अधीन बनावटी (स्थिति) (है)। (ऐसा) योगियों द्वारा आगम में बताया गया है।
__(8) हे जीव! (तू) आसक्ति के कारण परतन्त्रता में डूबा है। (इस कारण से) जो दुःख (है) वह (तेरे द्वारा) सुख (ही) माना गया (है) और जो (वास्तविक) सुख (है) वह (तेरे द्वारा) दु:ख ही (समझा गया है)। इसलिये तेरे द्वारा परम शान्ति प्राप्त नहीं की गई (है)।
(9) हे जीव! तू धन (और) नौकर-चाकर को मन में रखते हुए शान्ति नहीं पायेगा। आश्चर्य! तो भी (तू) उनको-उनको ही मन में लाता है (और) (उनसे) विपुल सुख (व्यर्थ में) (ही) पकड़ता है।
(10) हे मूढ़! (यह) सब (संसारी वस्तु-समूह) ही बनावटी (है)। (इसलिये) तू (इस) स्पष्ट (वस्तुरूपी) भूसे को मत कूट (अर्थात् तू इसमें समय मत गवाँ) घर (और) नौकर-चाकर को शीघ्र छोड़कर तू निर्मल शिवपद (परम शान्ति) में अनुराग कर।
(11) (इन्द्रिय-) विषय-सुख दो दिन के (हैं), और फिर दु:खों का क्रम (शुरू हो जाता है)। हे (आत्म-स्वभाव को) भूले हुए जीव! तू अपने कन्धे पर कुल्हाड़ी मत चला।
(12) (तू) (चाहे) (शरीर का) उपलेपन कर, (चाहे) घी, तेल आदि लगा, (चाहे), सुमधुर आहार (उसको) खिला, (और) (चाहे) (उसके लिए) (और भी) (नाना प्रकार की) चेष्टाएँ कर, (किन्तु) देह के लिए (किया गया) सब कुछ ही व्यर्थ हुआ (है), जिस प्रकार दुर्जन के प्रति (किया गया) उपकार (व्यर्थ होता है)।
(13) अस्थिर, मलिन और गुणरहित शरीर से जो स्थिर, निर्मल और गुणों (की प्राप्ति) के लिए श्रेष्ठ (स्व-पर उपकारक) क्रिया उदय होती है, वह क्यों नहीं की जानी चाहिए?
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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