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भरह-णरिन्दें
[(भरह)-(णरिन्द) 3/1]
भरत राजा के द्वारा
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(अम्ह) 1/1 स अव्यय (देव) 8/1 (तुम्ह) 3/1 स अव्यय (पव्वज्ज) व 1/1 सक [(दुग्गइ)-(गामिअ) 2/1 वि] (रज्ज) 2/1 अव्यय (भुञ्ज) व 1/1 सक
पव्वज्जमि
हे देव तुम्हारे साथ संन्यास लेता हूँ (लूँगा) दुर्गति देनेवाले राज्य को नहीं भोगता हूँ (भोगूंगा)
दुग्गइ-गामिउ
भुञ्जमि
राज्य
असारु
असार
वारु
द्वार
संसारहो
संसार का
(रज्ज) 1/1 (असार) 1/1 वि (वार) 1/1 (संसार) 6/1 (रज्ज) 1/1 क्रिविअ (णी) व 3/1 सक (तम्वार)' 6/1
रज्जु
राज्य
खणेण
क्षण भर में ले जाता है (पहुँचा देता है) विनाश को
तम्वारहो
राज्य
भयङ्करु इह-पर-लोयहो
(रज्ज) 1/1 (भयङ्कर) 1/1 वि [(इह) वि- (पर) वि- (लोय) 4/1]
दु:खजनक इस (लोक में) और परलोक में राज्य से जाया जाता है
रज्जें
(रज्ज) 3/1 (गम्मइ) व कर्म 3/1 सक अनि
गम्मइ
1.
कभी-कभी द्वितीया के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
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अपभ्रंश काव्य सौरभ
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