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(1) उन ( हाथ-पैरों) को देखकर (शोक के द्वारा) माता मूर्च्छित कर दी गई। (और) सब भी उस स्थान पर दु:खी ( हुए) । (2) अमूर्च्छित होकर (मूर्च्छारहित होकर, होश में आकर ) माँ ने चिल्लाहट (की) (कि) छोड़कर ( चला गया) (फिर) रोने का चिह्न ( प्रकट हुआ ) । हाय! (मैं) अनाथ हो गई ( हूँ) । (3) हाय-हाय ! हे मेरे पुत्र ! मैं अत्यन्त दुःख में (हूँ) । मैं ( तेरे द्वारा) निष्कारण उपेक्षा करके क्यों छोड़ दी गई? ( 4 ) सबके रोकते हुए होने पर ( भी ) (तुम) (वन में) क्यों गए? (और) (फिर) हाय-हाय ! (तुम) निवास स्थान में ( घर के आँगन में ) क्यों नहीं पहुँचे ? (5) हे कमल के समान मुखवाले पुत्र ! तुम्हारे (मन में) यह कुमति क्यों उत्पन्न हुई कि ( तुम्हारे द्वारा ) वन में ( ही ) रहा गया ? ( 6 ) मुझको छोड़कर तू परदेश में क्यों चला गया ? ( अतः ) मैं इस स्थान पर ही प्राण छोड़ती ( हूँ) । ( 7-8 ) यह कहकर ( उसके ) हाथों और पैरों को मिलाकर (उनको ) स्नेह से उठाकर जब (वह) (उनका ) आलिंगन करती है, तब सुख की खान स्वर्ग का वासी श्रेष्ठदेव विचारता है (कि) मेरी माँ को क्या हुआ ( है ) ? (9) (मैं) जाकर उसको आज समझाऊँगा, जिसे परलोक में उसका कार्य सिद्ध हो । ( 10 ) दूसरी ( बात ) भी (विचारी) (कि) ( मैं ) ( वहाँ ) जाकर मलरहित व निंदारहित निज गुरु के चरणरूपी कमलों को प्रणाम करके उनके प्रति (कृतज्ञता ज्ञापन करूँगा ) | ( 11 ) इन (दोनों बातों) को सोचकर माया से पुरानी देह के वेश को बनाकर उत्तम देव वहाँ आया । ( 12 ) निकट आकर (और) मधुर वचन कहकर ( बोला ) ( कि ) हे मेरी माता ! (तुम) क्यों क्रन्दन करती हो? (तुम) क्यों रोती हो ? (13) मैं जीता हुआ (जीवित) हूँ। (तुम) मेरे मुख को देखो। मैं ( तुम्हारा ) पुत्र (हूँ) (जो) नाम से अकृतपुण्य ( है ) । (14) (उसके) वचन को सुनकर मोह से पीड़ित (माता) ने शीघ्र जानकर और निश्चय करके (कहा) (कि) (अरे!) (यह) (तो) मेरा उत्तम पुत्र ( है ) ।
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घत्ता - बहुत दुःख को उत्पन्न करनेवाले हाथों और पैरों को छोड़कर, दौड़कर वह उस ( मायावी पुत्र) को आलिंगन करती है। तब वह श्रेष्ठ देव भी, (जो ) सर्वोत्तम आठ गुणों का धारक ( था ), ( माता की ) अवस्था को स्मरण करके स्थिर हुआ ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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