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(वह) (कलश) स्वर्ण तथा मणियों से भरा हुआ देखा गया। (14) उत्साहसहित एकान्त में कहा गया-हे प्रिय! देख, मेरे समान कौन पुण्यवान (है)? (तुम) समझो। (15) आज ही (मैं) बुद्धि-ज्ञान से, योग-शक्ति की युक्ति से खजाने में (वृद्धि के लिए) दूसरा उपाय रचता हूँ। (16) (इसमें से) मैं कुछ भी नहीं लूँगा। (और) (मैं) (इसका) खनन (भी) नहीं करूँगा। (पूर्ववत्) कबाड़ीपन से ही भोजन हो जायेगा। (17) तब (उसके द्वारा) कलशों में एक-एक (रत्न) को रखकर बहुत द्रव्य की आशा से (प्रत्येक कलश) गाड़कर छोड़ दिया गया। (18) फिर (किसी) दूसरे पर्व पर पथ में (उन यात्रियों द्वारा पुनः) (कलश) देखे गये (और विचारा गया कि) किस प्रकार (इन्हें) (हम) भरें। (ये बातें) हृदय में नहीं बैठीं। (19) (तब) निधि में से एक-एक रत्न ले लिया गया (और) सब (कलशों को) खाली करके (वहाँ) (ही) छोड़ दिया गया। (20) किसी दूसरे समय जब (वह) (कलशों को) उघाड़ता है (तो) खाली (कलशों) को (ही) देखकर हाथों से (अपना) सिर पीटता है। (21) (और कहता है)- सौन्दर्य-युक्त रत्न-समूह को (तो) जाने दो, (किन्तु दुःख है कि) जो रुपया मूल में था वह भी नष्ट हो गया।
घत्ता - (जो) स्वाधीन लक्ष्मी को (तो) नहीं भोगता है (किन्तु) पूर्ण मोक्षसुख की इच्छा करता है, (उस) दूल्हे (जम्बूस्वामी) के हाथों में शून्य निधि (ही) लगेगी, जिस प्रकार संखिणी के (हाथ में शून्य निधि ही लगी)।
9.11
(1) उसको सुनकर कुमार (जंबूस्वामी) के द्वारा कहा गया- अपने पास (यदि) विष (है) (तो) क्या (वह) शीघ्र नहीं छोड़ दिया जाता है? (2) रात्रि में नगर में (एक) गीदड़ प्रविष्ट हुआ (उसके द्वारा) मरा हुआ बैल मोहल्ले के मुख पर (ही) देखा गया। (3) दाँतों के समूह से (बैल को) खाते रहने के कारण (उसका दाँत-समूह) ढीला हो गया। (और) (खाने में लीन होने के कारण) रात्रि की समाप्ति की सीमा (उसके द्वारा) नहीं जानी गईं। (4) प्रभात होने पर बैल के माँस में मोहित (गीदड़) मनुष्यों के आवागमन के कोलाहल से होश में आया। (5) (मनुष्यों को देखकर) (वह) भय से कंपनशील (हुआ) (पर) (नगर से) निकलकर (भागने के
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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