Book Title: Anuyogdwar Sutram Part 02
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७७ सलक्षणकरुणरस निरूपणम्
शोचितविलपितप्रम्लानरुदितलिङ्गः- शोचितं शोकः, विलपितम् = विलापः, पम्लानम् = मुखशुष्कता, रुदितम् = रोदनम् - एतानि लिङ्गानि = चिह्नानि यस्य स तथाभूतः करुण रसो भवति । उदाहरणमाह- करुणो रसो यथा दे पुत्रिके! तस्य निष्करुणस्य पत्युर्वियोगे= विरहे ते तव मुखं मध्यातकान्तम्- मध्यातम् - प्रियतमविषयिणी चिन्ता, तेन क्लान्तं - शुष्कम्, बहुशः = अभीक्ष्णं वाष्पागतमप्लुताक्षिकम् वाष्पाणाम्=अश्रूणाम् आगतेन = आगमनेन प्रप्लुते - व्याप्ते अक्षिणी यस्मिंस्ततथाभूतम् पुनः- दुर्बलकं कृशं च जातम् । प्रियत्रियोगशुचा शुष्यद्वदनां कांचित कादि वृद्धाया मुक्तिः ॥ सू० १७७ ॥
भय से, करुण रस उत्पन्न होता है। तथा (सोहविलबियपम्हणरुग्णलिंगो रसो करुणो ) शोक, बिलाप' मुखशुरू, रोदन ये इसके लिङ्ग हैं ; ऐसा यह करुण रस होता है । (करुण रसो जहा) यह करुण रस इस प्रकार जाना जाता है। जैसे- (पज्झाघ किलामि अयं बाहागयपप्पु अच्छयं बहु । तस्स वियोगे पुत्तिय ! दुब्बलयं ते मुहं जाये) पुत्तिय है पुत्रिके । उस निष्करुण पति के वियोग में तेरा मुख " पज्झाय किलोमिअयं " - प्रध्यात क्लान्तक-प्रियतम विषयक चिन्ता-से क्लान्तशुष्क, और " बहुसो " बार बार " बाहागयपतु अच्छियं " अश्रुओं के आगमन से जिसमें दोनो आंखें भरी रहती हैं ऐसा और “दुब्बलयं" कृश हो गया है। यह किसी वृद्धा की प्रिय विद्योग के शोक से शुष्यइदना किसी नायिका के प्रति उक्ति है । ॥ सू० १७७ ॥
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વિનિપાત–મરણથી અને સભ્રમ પરચક્ર વગેરેના ભયથી, આ કરૂણૢ રસ उत्पन्न थाय छे तेस४ ( खोइअविल वियपम्हणरुण्णलिंगो रसो करुणो) शोउ, विसाय, भुष्णशुष्टुता, रोहन या सर्व या रसना यिह्नो छे. (करुण रखो जहा) || ४३७५ २स आ प्रमाणे श्वामां आवे छे प्रेम है- (पज्झाय किलामि अयं वाहागयपप्पु अच्छिय बहुखो । तस्स वियोगे पुत्तिय ! दुब्वलय वे मुहं जाय') युत्तिय ! डे पुत्रि ! ते निष्३ पतिना वियोगमा ताइ
શુષ્ક,
भों (पज्झाय किलामिअयं) -अध्यात सान्त:- प्रियतम विषय खिताथी सांतઅને "जडुसो" वारवार " बाहागयपप्पु अच्छिय” मञ्जुखोना આગમનથી બન્ને આંખો અશ્રુયુકત રહે છે એવું અને દુસ્ખલય* ” કૃશ થઈ ગયું છે. આ કાઇ વૃદ્ધાની પ્રિયવિચાગના થયેલી ફાઇ નાયિકાપ્રતિ કૃિત છે. સૂ॰૧૭૭ll
શાકમાં
મ્યાન વદના
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