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अनेकान्त
"क्या ?”
“वे दीनारें मैंने ही चुराई थीं। ये रहीं।”
कानोंने सुना, आँखोंने देखा, ये शब्द उतने ही सत्य हैं और ठोस हैं जितनी सोनेकी ये दीनारें । चाहने और कोशिश करने पर भी अविश्वास नहीं हो सकता । किन्तु ऐसे दुर्घट, भयंकर सत्य के सामने पिताको बोल क्या सूझे ? वह तो सामने खड़े उद्धत और निश्चित कुमारको सुन्न देखते रहनेके सिवा बाकी सबकी मानों शक्ति ही खो बैठे।
और कुमार कैसा हृदयहीन है कि अपनी कम्बख्ती पर भी मानों गर्व कर रहा है ! पिताको क्षुब्ध लांछित, गतबुद्धि, हतचेत और सुन्न तो किया, पर फिर भी मानों उन पर तरस खाना नहीं चाहता । बोला:
"अब यही काम करना चाहता हूँ ।" पिताका क्षोभ शब्द न पा सका ।
“मैं अब यही काम करूँगा । आपका राज्य छोड़ ढुँगा, राज्यका सब अधिकार छोड़ दूँगा । यही वृत्ति लूँगा । निश्चय मेरा बन चुका है... ।
पिताका क्षोभ दुर्द्धर्षता पार कर गया । अब तो मानों वह आँसू बहा कर ही ठंडा होगा । अब उसमें तेजी नहीं रह गई, रोष नहीं रह गया, इन अवस्था
से पार हो कर मानों, वह क्षोभ अब दया बन उठा है। दया जिसमें कृपाका भाव है, प्रेमका भाव है, जिसमें व्यथा है और लांछना है। जो जलती नहीं बहती है। तब पिता ये ही दो शब्द कह सके" जाओ - ।" और कुमारके लिये तर्जनी उठा कर द्वारकी ओर निर्देश कर दिया ।
कुमारको चला जाना ही पड़ा। उसके निश्चयमें ढील नहीं आई । किन्तु देखा अभी एक दम महल छोड़ कर अपने मनोनीत व्यवसायको अपनानेके लिये वह नहीं जा सकता । पिताको सब बातें समझानी होंगी, जिससे फिर उनके बीच कड़वापन न रहे, मैल न रहे, भ्रम न रहे । अभी तो पिताको सब
[ वर्ष १, किरण १
समझा कर बताना संभवनीय न था ।
पिताको उस सुन्नावस्था से बोध जल्दी नहीं मिला । बहुतसे आंसू निकालने पड़े फिर भी भीतर उमड़ती हुई वेदना और ग्लानि खतम नहीं हुई । कुमार इ आकस्मिक - अशुभ परिवर्तनको वह सहानुभूति के साथ देख ही नहीं सकते, समझ ही नहीं सकते । - मूर्खको क्या सूझा है, कुलाँगार ! रह-रह कर गुस्सा छूटता है, जितना ही मोह उठता है, उतना ही लेश्यामें कालापन आता है, और उतनी ही वितृष्णा, वैराग्य और क्रोधके भावो में प्रबलता हो आती है ।
में भावनाओं का धुआँ बैठने लगा, विचारोंने तनिक स्पष्टता पाई और सामने मार्गसा नज़र आया । सोचा- उसे समझेंगे, डाटेंगे, समझायेंगे । फिर जरूर उसकी कुबुद्धि दूर हो जायगी । कुमारको बुलाया ।
" कुमार, यह क्या बात है ? यह मैंने क्या सुना ? - क्या यह ठीक है कि दीनारें राज कोष से तुमने ही ली थीं ? — ली थीं, तो बताया क्यों नहीं ? या यह सब कुछ सचे अपराधीको ढँकनेके लिये है ?”
'नहीं, पिताजी । खर्च के लिये नहीं लिये थे, चोरी के लिये चुराये थे । खर्चकी क्या मुझे कमी है ? और मैंने ही चुराये थे । बताये इसलिये नहीं कि मेरी चोरीकी होशियारी की जाँच हो जाय । और अब बताया इसलिये कि यह चोरी तो श्राजमानेके लिये की थी। पर अब, पिताजी, मैं यही काम करूंगा ।” तीखे प्रश्नवाचक में पिताने कहा :--
"कुमार ?
कुमारने कहा -
“मैंने सब सोच लिया है, पिताजी । मुझे युवराजत्वसे और राजत्वसे संतोष नहीं है । पहले तो वह मुझे अपने हक़की चीज नहीं मालूम होती । फिर उसका ऐश्वर्य परिमित है। इस मार्ग से जिसे चोरी कहते हैं मैं अपरिमेय ऐश्वर्य तक पहुँच सकता हूँ । इससे इसी मार्ग पर क्यों न चलूँ ?