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अलङ्कार-धारणा का विकास
[५१ सादृश्य व्यङ य होता है, वाच्य नहीं। इस अलङ्कार का नाम भरत के दृष्टान्त लक्षण में प्रयुक्त निदर्शन शब्द के आधार पर कल्पित है। इस अलङ्कार की स्वरूप-कल्पना में उदाहरण लक्षण से भी तत्त्व लिया गया है, जिसमें समान अर्थ वाले वाक्य से अभीष्ट अर्थ की सिद्धि करायी जाती है । दृष्टान्त तथा उदाहरण लक्षणों के साथ किञ्चित्-सदृशी उपमा के योग से निदर्शना का स्वरूप-विन्यास हुआ है।'
उपमारूपक
भामह ने उपमारूपक नामक एक स्वतन्त्र अलङ्कार की कल्पना की है। यह अलङ्कार नवीन नहीं है। इसके अभिधान से ही स्पष्ट है कि इसमें उपमा तथा रूपक ; इन दो प्राचीन अलङ्कारों का सम्मिश्रण है। इस प्रकार दो या दो से अधिक अलङ्कारों को मिलाकर नवीन अलङ्कार की कल्पना करने से अलङ्कारों के असंख्य भेद हो जायेंगे। इसके लक्षण में इसका स्वरूप रूपक तथा उपमा से अभिन्न बताया गया है । रूपक में भामह के अनुसार गुण की समता के आधार पर उपमान के साथ उपमेय का तत्त्व-साधन होता है। उपमारूपक में भी उन्होंने यही बात कही है। इसमें उपमान के साथ उपमेय का तद्भाव-साधन कहा गया है। तत्त्व-साधन तथा तद्भाव-साधन में कोई भेद नहीं है। दोनों का अभिप्राय उपमेय पर उपमान के आरोप से है। अतः उपमा तथा रूपक से स्वतन्त्र उपमा-रूपक की सत्ता स्वीकार करने का कोई सबल कारण नहीं जान पड़ता। उपमेयोपमा ___ जहाँ क्रम से किसी वस्तु को उपमान तथा उपमेय बनाया जाता है, वहाँ उपमेयोपमा अलङ्कार होता है। एक वाक्य का उपमान दूसरे वाक्य में उपमेय तथा उस वाक्य का उपमेय दूसरे में उपमान बना दिया जाता है। क्रम से उपमेय के उपमान तथा उपमान के उपमेय बनने से इसे उपमेयोपमा कहा जाता है। इसे पृथक् अलङ्कार न मान कर उपमा का भेद मानना ही अधिक युक्तिसङ्गत होता। भरत ने उपमा के इस भेद का उल्लेख नहीं किया है ; किन्तु उनके 'नाट्यशास्त्र' के अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है १. तुलनीय, भरत नाट्शास्त्र १६, २५; १६, ९ (अनुबन्ध); १६, ५१
तथा भामह, काव्यालङ्कार, ३, ३३