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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
व्याजस्तुति
व्याजस्तुति में भामह के अनुसार निन्दामुखेन स्तुति की जाती है। आपाततः की जानेवाली निन्दा से परिणामतः प्रशंसा की व्यञ्जना इसमें होती है। इस अलङ्कार की परिभाषा में भामह ने कहा है कि जहां कवि किसी अप्रस्तुत के गुणाधिक्य का वर्णन कर उसके साथ प्रस्तुत की समता दिखाने के क्रम में आपाततः उस प्रस्तुत की निन्दा करता है, वहाँ व्याजस्तुति अलङ्कार होता है ।' निन्दा के व्याज से स्तुति होने के कारण प्रस्तुत अलङ्कार की संज्ञा अन्वर्था है। 'नाट्यशास्त्र' के कपट लक्षण के प्राप्त दूसरे पाठ में दोषकीर्तन के व्याज से गुण के प्रकटीकरण को गर्हण लक्षण कहा गया है। यह धारणा व्याजस्तुति की धारणा से बहुत मिलती-जुलती है। प्रिय लक्षण में आरम्भ में क्रोध-जनन तथा परिणाम में हर्ष-वर्धन पर बल दिया गया है । इस लक्षण का प्रभाव उक्त अलङ्कार के प्रभाव से अभिन्न है। आपाततः की जानेवाली निन्दा आरम्भ में क्रोध-जनन का हेतु होती है; परिणाम में स्तुति की व्यञ्जना होने से हर्ष का संवर्धन होता है। इस प्रकार कपट तथा प्रिय लक्षणों की धारणा के आधार पर व्याजस्तुति अलङ्कार के स्वरूप का निर्माण किया गया है। निदर्शना
भामह की मान्यता है कि जहाँ यथा, इव, वत आदि उपमावाचक शब्दों के अभाव में भी क्रिया के द्वारा ही उस विशिष्ट अर्थ का बोध हो जाता है, वहाँ निदर्शना अलङ्कार होता है।४ सादृश्य इस अलङ्कार का मूल है। इसमें १. दूराधिकगुणस्तोत्रव्यपदेशेन तुल्यताम् । किञ्चिद्विधित्सोर्या निन्दा व्याजस्तुतिरसौ यथा ।
-भामह, काव्यालं० ३, ३१ २. यत्र संकीर्तयन्दोषं गुणमर्थन योजयेत् । गुणातिपाताद्दोष वा गर्हणं नाम तद्भवेत् ॥–भरत, ना० शा०
अ० भा० पृ० ३१५ ३. आदौ यत्क्रोधजननमन्ते हर्षप्रवर्धनम् ।
तत्प्रियं वचनं ज्ञेयमाशीर्वादसमन्वितम् ॥-भरत, ना० शा० १६, २६ ४. क्रियय व विशिष्टस्य तदर्थस्योपदर्शनात् । ज्ञेया निदर्शना नाम यथेववतिभिविना ॥
-भामह, काव्यालं०, ३, ३३