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है कि कोई भी पदार्थ स्थिर (Static) नहीं है। इस प्रकार क्रिया का सिद्धांत दार्शनिक और वैज्ञानिक दोनों ही जगत् में समान रूप से मान्य रहा हैं।
जैनागमों में जीव और जड़ पदार्थ में होनेवाले परिवर्तनों को क्रिया, परिणमन, स्पंदन, चलन इत्यादि शब्दों से अभिव्यक्त किया गया है। क्रिया के अनेक प्रकारों की चर्चा भी उपलब्ध होती है, उनका थोड़ा बहुत विवेचन भी प्राप्त है। किन्तु अब तक क्रिया का व्यवस्थित और विस्तार से विवेचन करनेवाला कोई एक ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। जैनागमों में प्राप्त क्रिया संबंधी महत्त्वपूर्ण तथ्यों पर विविध विवेचना ही प्रस्तुत शोध प्रबन्ध का आधार बनी।
क्रिया का सयुक्तिक प्रतिपादन अनेक दार्शनिक समस्याओं को समाहित कर सकता है। कर्मवाद और पुनर्जन्म जैसे विवादास्पद दार्शनिक मुद्दों पर वैचारिक मतैक्य स्थापित नहीं हो सका है। पाश्चात्य दर्शन और यहुदी धर्म का पुनर्जन्म और कर्मवाद में विश्वास नहीं है। भारतीय दर्शनों में भी चार्वाक विचारसरणि इनमें विश्वास नहीं करती है वेदान्त विचारधारा कर्म को माया के रूप में स्वीकार करते हुए भी उसे वास्तविक नहीं मानती है। कर्मवाद और पुनर्जन्म का कोई ऐसा ठोस आधार प्रस्तुत हो जो युक्तिसंगत और सर्वानुभूति का विषय बन सके, यह अपेक्षा है। चेतना की सूक्ष्म स्पंदनात्मक क्रिया का यह अध्ययन इसी दिशा में प्रस्थान का एक विनम्र आयास है। हर प्रवृत्ति चेतना के सूक्ष्म स्पंदनात्मक क्रिया का व्यक्त रूप है। प्रवृत्ति के साथ क्रिया-प्रतिक्रिया की श्रृंखला जुड़ी हुई है। प्रतिक्रिया अल्पकालिक व दीर्घकालिक दोनों प्रकार की होती है। भोजन क्रिया का क्षणिक परिणाम बुभुक्षा-शमन है तो दीर्घकालिक परिणाम तीन या छः घण्टे तक शरीर में शक्ति का बना रहना है। इसी प्रकार प्राणी की हर प्रवृत्ति के परिणाम स्वरूप सूक्ष्मस्तर पर कर्म का आकर्षण विकर्षण रूप स्पंदन चलता रहता है। आकृष्ट कर्म ही कालान्तर में सुख-दुःख, पुनर्जन्म इत्यादि घटनाओं को संपादित करते हैं। विभिन्न जन्मों में अनुसंचरण के हेतु का अनुसंधान करते हुए जैन आगम आचारांग में कहा गया- मैंने अतीत में क्रिया की थी, वर्तमान में कर रहा हूं और आगे भी करूंगा। उसी का परिणाम है कि मेरा नाना योनियों में भ्रमण हो रहा है
अकरिस्सं चहं, कारवेसुं चहं, करओ यावि समणुण्णे भविस्सामि। (आ.भाष्य-1/5-6) इस प्रकार यह सिद्ध होती है कि क्रिया है तो कर्म है और कर्म है तो पुनर्जन्म भी है।
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