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अपनी ओर से
क्रिया और जीवन परस्पर जुड़े हुए हैं। जीवन है तो क्रिया अवश्य है। क्रिया हो तो जीवन हो यह अनिवार्य इसलिए नहीं है कि जड़ में भी क्रिया होती है। यह सुनिश्चित है कि क्रिया के अभाव में जीवन असंभव है।
___ जीविकोपार्जन की चेष्टा, भोजन करना, संभाषण करना, आंखें खोलना, सर हिलाना, हाथ फैलाना, चलना, उत्क्षेपण, अवक्षेपण इत्यादि स्थूल क्रियाएं हैं। चिन्तनमनन, श्वास-प्रश्वास इत्यादि सूक्ष्म क्रियाएं है। स्पन्दन सूक्ष्मतर क्रिया है और परिणमन तथा अध्यवसाय सूक्ष्मतम क्रियाएं है। यदि ये क्रियाएं बंद हो जाती है तो जीवन समाप्त हो जाता है। इसीलिए गीताकार का कहना है कि देहधारी प्राणी का क्रियारहित होना अशक्य है
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिठत्यकर्मकृत। कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।। (3/5)
अत: जीवन के साथ क्रिया का गहरा सम्बन्ध है। न केवल जीवन के साथ अपितु अस्तित्व के साथ भी क्रिया का गहरा सम्बन्ध है। क्रिया है तो अस्तित्व है, क्रिया के अभाव में अस्तित्व असंभव है। बौद्धदर्शन ने तो 'अर्थक्रियाकारित्वं सत्' कहकर क्रिया
और अस्तित्व के बीच व्याप्ति स्थापित कर दी है। सत्पदार्थ वही है जो किसी न किसी प्रकार की क्रिया करने में समर्थ है। अस्तित्व के साथ जुड़ी क्रिया की इस अवधारणा का परिणाम यह हुआ कि यह परिभाषा केवल बौद्धों तक ही सीमित नहीं रही सम्पूर्ण दर्शन जगत् में व्याप्त हो गई। फलस्वरूप दर्शन के क्षेत्र में पदार्थ नित्य है अथवा अनित्य है- इस बात का इतना महत्त्व नहीं रहा, जितना कि वह अर्थक्रियाकारी है या नहीं - इस बात का। जैनाचार्यों ने तो वस्तु-स्वरूप-मीमांसा में वस्तु के वस्तुत्व की कसौटी अर्थक्रियाकारित्व को ही रखा और इस कसौटी के आधार पर ही अन्य दर्शनों द्वारा मान्य वस्तु-स्वरूप का
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