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एक अनुशीलन नाम ज्यों के त्यों मिलते हैं, किन्तु वे उन्हें विच्छिन्न मानते हैं। यह पूर्ण सत्य है कि श्वेतांबर और दिगंबरों के मूल-भूत तत्त्वों में किंचित् मात्र भी अन्तर नहीं है। षट् द्रव्य, नौ तत्त्व, प्रमाण, नय, निक्षेप, कर्म आदि दोनों ही परम्पराओं में एक सदृश है।
यहाँ पर यह बात स्पष्ट करना आवश्यक है कि जैन आगमों में आध्यात्मिक चिन्तन की प्रमुखता तो है ही, साथ ही उस युग में प्रचलित अनेक शान-विज्ञानों का अपूर्व संकलन भी उसमें है। जीवविज्ञान के सम्बन्ध में जितना विस्तार के साथ जैन आगमों में निरूपण हुआ है उतना अन्यत्र मिलना कठिन है। आगमों में पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के सम्बन्ध में गहराई से विश्लेषण किया गया है। उस युग की धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिस्थितियों का जो चित्रण है, वह जैन परम्परा के अभ्यासियों के लिए ही नहीं अपितु मानवीय संस्कृति के अध्येताओं के लिए भी अत्यन्त उपयोगी है।
पाश्चात्य और पौर्वात्य अनुसंधानकर्ता भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य और संस्कृति का मूल वेदों में निहारते थे, पर मोएँजो दरो और हरप्पा के ध्वंसावशेषों में प्राप्त सामग्री के पश्चात् चिन्तकों की चिन्तन-दिशा ही बदल गई है। और अब यह प्रमाणित हो चुका है कि श्रमण संस्कृति वैदिक संस्कृति से पृथक है। वैदिक संस्कृति में ईश्वर को सृष्टि का निर्माता माना है, जब कि श्रमणपरम्परा ने विश्व की संरचना में जड और चेतन इन दोनों को प्रधानता दी है। जड और चेतन ये दोनों तत्त्व ही सृष्टि के मूल कारण हैं। सृष्टि की कोई आदि नहीं है, वह तो अनादि है। चक्र की तरह वह सदा चलती रहती है। व्रत निरूपण संसारचक्र से मुक्त होने के लिए किया गया है, जब कि वेदों में व्रतों का जिस रूप में चाहिए उस रूप में निरूपण नहीं है। श्रमण संस्कृति का दिव्य प्रभाव जब द्रुतगति से बढ़ने लगा तब उपनिषदों में और उसके पश्चाद्वर्ती वैदिक साहित्य में भी व्रतों के सम्बन्ध में चर्चाएँ होने लगीं। संक्षेप में सारांश यह है कि जैन आगम वेदों पर आधृत नहीं हैं। वे सर्वथा स्वतंत्र हैं।
पूर्व पंक्तियों में हम यह लिख चुके हैं कि तीर्थकर अर्थ के रूप में प्रवचन करते हैं। अर्थात्मक दृष्टि से किये गये उपदेशों को उनके प्रमुख शिष्य सूत्र रूप में संकलन करते है। आज जो आगमों साहित्य उपलब्ध है उसके रचयिता सुधर्मा है पर अर्थ के प्ररूपक भगवान् महावीर ही हैं। किन्तु स्मरण रखना होगा कि उसकी प्रामाणिकता अर्थ के प्ररूपक सर्वज्ञ होने से ही है।
अनुयोगद्वार में आगम के सुत्तागम, अस्थागम और तदुभयागम, ये तीन भेद प्राप्त होते हैं। साथ ही अन्य दृष्टि से आत्मागम अनन्तरागम और परम्परागम, ये तीन रूप भी मिलते हैं। तीर्थकर अर्थ रूप आगम का उपदेश प्रदान करते हैं। इसलिए अर्थ रूप आगम तीर्थकरों का आत्मागम है। उन्होंने अर्थागम किसी अन्य से प्राप्त नहीं किया। वह अर्थागम उनका स्वयं का है। उसी अर्थागम को गणधर, तीर्थकरों से प्राप्त करते हैं। तीर्थकर और गणधरों के बीच किसी अन्य तीसरे व्यक्ति का व्यवधान नहीं है। इसलिए वह अर्थागम गणधरों के लिए अनन्तरागम है। उस अर्थागम के आधार से ही गणधर स्वयं सूत्र रूप में रचना करते हैं, अतः सूत्रागम गणधरों के लिए आत्मागम है। गणधरों के जो साक्षात् शिष्य हैं, सूत्रागम गणधरों से सीधा ही प्राप्त करते हैं। उनके बीच में भी किसी तीसरे का व्यवधान नहीं है, अतः उन शिष्यों के लिए सूत्रागम अनन्तरागम है। पर अर्थागम परम्परागम से प्राप्त हुआ है, क्योंकि वह अर्थागम अपने धर्मगुरु गणधरों से उन्होंने प्राप्त किया। अर्थागम गणधरों
५. अनुयोगद्वार-४७० पृ० १७९ ॥ ६. वही० ४५० ॥
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