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एक अनुशीलन प्रथम अध्ययन के अध्ययन से महावीरयुगीन समाज और संस्कृति पर भी विशेष प्रकाश पड़ता हैं। उस समय की, भवन-निर्माण कला, माता-पिता-पुत्र आदि के पारिवारिक सम्बन्ध, विवाहप्रथा, बहुपत्नी प्रथा, दहेज, प्रसाधन, आमोद-प्रमोद, रोग और चिकित्सा, धनुर्विद्या, चित्र और स्थापत्यकला, आभूषण, वस्त्र, शिक्षा और विद्याभ्यास तथा शासनव्यवस्था आदि अनेक प्रकार की सांस्कृतिक सामग्री भी इसमें भरी पड़ी है।
द्वितीय अध्ययन में एक कथाप्रसंग को देकर शास्त्रकार ने यह प्रतिपादन किया है कि सेठ को विवशता से पुत्र-घातक को भोजन देना पड़ता था। वैसे साधक को भी संयमनिर्वाह हेतु शरीर को आहार देना पड़ता है, किन्तु उसमें शरीर के प्रति किंचित् भी आसक्ति नहीं होती। श्रमण की आहार के प्रति किस तरह से अनासक्ति होनी चाहिए, कथा के माध्यम से सजीव चित्रण किया गया है। श्रेष्ठी ने जो भोजन तस्कर को प्रदान किया था उसे अपना परम स्नेही और हितैषी समझकर नहीं किन्तु अपने कार्य की सिद्धि के लिए। वैसे ही श्रमण भी ज्ञान दर्शन चारित्र की उपलब्धि के लिए
आहार ग्रहण करता है। पिण्डनियुक्ति आदि में श्रमण के आहार ग्रहण करने के सम्बन्ध में गहराई से विश्लेषण किया गया है। उस गुरुतम रहस्य को यहाँ पर कथा के द्वारा सरल रूप से प्रस्तुत किया है।
तृतीय अध्ययन की कथा का सम्बन्ध चंपा नगरी से है। चंपा नगरी महावीर युग की एक प्रसिद्ध नगरी थी। स्थानांग१२७ में दस राजधानियों का उल्लेख है, और दीर्घनिकाय में जिन छह महानगरियों का वर्णन है उनमें एक चंपा नगरी भी है। औपपातिक में विस्तार से चंपा का निरूपण है। आचार्य शय्यंभव ने दशवकालिक सूत्र की रचना चंपा में ही की थी। सम्राट् श्रेणिक के निधन के पश्चात् उसके पुत्र कुणिक ने चंश को अपनी राजधानी बनाया था। चंग उस युग का प्रसिद्ध व्यापारकेन्द्र था। कनिंघम१२८ ने भागलपुर से २४ मील पर पत्थरघाट या उसके आसपास चंपा की अवस्थिति मानी है। फाहियान ने पाटलीपुत्र से अट्ठारह योजन पूर्व दिशा में गंगा के दक्षिण तट पर चंपा की अवस्थिति मानी है। महाभारत १२९ में चंपा का प्राचीन नाम मालिनी या मालिन मिलता है। जैन बौद्ध और वैदिक परम्परा से साहित्य के अनेक अध्याय चंपा के साथ जुड़े हुए हैं। विनयपिर(१,१७९) के अनुसार भिक्षुओं को बुद्ध ने पादुका पहनने की अनुमति यहाँ पर दी थी। सुमंगल. विलासिनी के अनुसार महारानी ने नग्गरपोक्खरिणी नामक विशाल तालाब खुदवाया था जिसके तट पर बुद्ध विशाल समूह के साथ बैठे थे। (दीघ निकाय १,१११) राजा चंप ने इसका नाम चंप रखा था। कथा के वर्णन से यह भी पता लगता है कि उस युग में पशुओं पक्षिओं को भी प्रशिक्षण दिया जाता था, पशु-पक्षी गण प्रशिक्षित होकर ऐसी कला प्रदर्शित करते थे कि दर्शक मंत्र-मुग्ध हो जाता था।
चतुर्थ अध्ययन की कथा का प्रारंभ वाराणसी से होता है। वाराणसी प्रागैतिहासिक काल से ही भारत की एक प्रसिद्ध नगरी रही है। जैन, बौद्ध और वैदिक परंपराओं के विकास, अभ्युदय एवं समुत्थान के ऐतिहासिक क्षणों को उसने निहारा है। आध्यात्मिक, दार्शनिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक चिन्तन के साथ ही भौतिक सुख-सुविधाओं का पर्याप्त विकास वहाँ पर हुआ था। वैदिक परंपरा में वाराणसी को पावन तीर्थ१३° माना। शतपथ ब्राह्मण, उपनिषद और पुराणों में वागणसी से
१२७. स्थानांग १०-७१७॥ १२८. The Ancient Geography of India. Pages 546547॥ १२९. महाभारत XII, ५६-७, (ख) मत्स्य पुराण ४८, ९७, (ग) वायुपुराण ९९, १०५-६, (घ) हरिवंश पुराण ३२, ४९॥ १३०. जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज पृ. ४६८॥ ..
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