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एक अनुशीलन में प्रवेश करते समय गंगा का पाट साढे बासठ योजन चौड़ा२३१ था। और वह पाँच कोस गहरी थी। आज गंगा उतनी विशाल नहीं है। गंगा और उसकी सहायक नदियों से अनेक विशालकाय नहरें निकल चुकी हैं। आधुनिक सर्वेक्षण के अनुसार गंगा १५५७ मील लम्बे मार्ग को तय कर बंग सागर में मिलती है। वह वर्षाकालीन बाढ़ से १७,००,००० घन फुट पानी का प्रति सेकण्ड प्रस्राव करती है। २३२ इस अध्ययन के प्रमुख पात्र श्रीकृष्ण, पाण्डव. द्रौपदी आदि जैन और वैदिक आदि परंपरा के बहुचर्चित और आदरणीय व्यक्ति रहे हैं जिनके जीवन प्रसंगों से सम्बन्धित अनेक विराटकाय ग्रंथ विद्यमान हैं। प्रस्तुत अध्ययन में श्रीकृष्ण के नरसिंह रुप का भी वर्णन है। नरसिंहावतार की चर्चा श्रीमद् भागवत् में है जो विष्णु के एक अवतार थे, पर श्रीकृष्ण ने कमी नरसिंह का रूप धारण किया हो, ऐसा प्रसंग वैदिक परंपरा के ग्रंथों में देखने में नहीं आया, यहाँ पर उसका सजीव चित्रण
हुभा है।
सत्रहवें अध्ययन में जंगली अश्वों का उल्लेख है। __ अठारहवें अध्ययन में सुषमा श्रेष्ठी-कन्या का वर्णन है। वह धन्ना सार्थवाह की पुत्री थी। उपकी देखभाल के लिए चिलात दासीपुत्र को नियुक्त किया गया। वह बहुत ही उच्छृखल था। अतः उसे निकाल दिया गया। वह अनेक व्यसनों के साथ तस्कराधिपति बन गया। सुषमा का अपहरण किया। श्रेष्ठी और उसके पुत्रों ने उसका पीछा किया। उन्हें अटवी में चिलात द्वारा मारी गई सुषमा का मृत देह प्राप्त हुआ। वे अत्यंत क्षुधा-पिपासा से पीडित हो चुके थे। अतः सुषमा के मृत देह का भक्षण कर अपने प्राणों को बचाया। सुषमा के शरीर का मांस खाकर उन्होंने अपने जीवन की रक्षा की। उन्हें किंचिद् मात्र भी उस आहार के प्रति राग नहीं था। उसी तरह षट्काय के रक्षक श्रमण-श्रमणियाँ भी संयमनिर्वाह के लिए आहार का उपयोग करते हैं, रसास्वादन हेतु नहीं। असह्य क्षुधा वेदना होने पर आहार ग्रहण करना चाहिए। आहार का लक्ष्य संयम-साधना है।
बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में भी इसी प्रकार मृत कन्या के मांस को भक्षण कर जीवित रहने का वर्णन प्राप्त होता है२३३ । विशुद्धिमग्ग और शिक्षा समुच्चय में भी श्रमण को इसी तरह आहार लेना चाहिये यह बताया गया है। मनुस्मृति आपस्तम्बधर्म सूत्र (२.४.९.१३), वासिष्ठ (६.२०.२१) बोधायन धर्म सूत्र (२.७.३१.३२) में संन्यासियों के आहार संबंधी चर्चा इसी प्रकार मिलनी है।
प्रस्तुत अध्ययन के अनुसार तस्करों के द्वारा ऐसी मंत्रशक्ति का प्रयोग किया जाता था, जिससे संगीन ताले अपने आप खुल जाते थे। इससे यह भी ज्ञात होता है कि महावीरयुग में ताले आदि का उपयोग धनादि की रक्षा के लिए होता था। विदेशी यात्री मेगास्तनीज, हुवेनसांग, फाहियान, आदि ने अपने यात्राविवरणों में लिखा है कि भारत में कोई भी ताला आदि का उपयोग नहीं करता था, पर आगम साहित्य में ताले के जो वर्णन मिलते हैं वे अनुसंधित्सुओं के लिए अन्वेषण की अपेक्षा रखते हैं।
उन्नीसवें अध्ययन में पुण्डरीक और कण्डरीक की कथा है।
तीन दिन की साधना से पुण्डरीक तेतीस सागर की स्थिति का उपभोग करने वाला सर्वार्थसिद्धि विमान में देव बना और कण्डरीक भोगों में आसक्त होकर तीन दिन में आयु पूर्ण कर तेतीस सागर की स्थिति में सातवें नरक का मेहमान बना। जो साधक वर्षों तक उत्कृष्ट साधना करते रहे। किन्तु बाद
२३१. वही०॥ २३२. हिन्दी विश्वकोष, नागरी प्रचारिणी सभा॥ २३३. संयुक्तनिकाय, २, पृ० ९७॥
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