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एक अनुशीलन सनिहित हुए। भावारांग२१२ चूर्णि आदि में लिखा है कि भगवान् ऋषभदेव जब श्रमण बन गये और भरत का राज्या भेषेक हो गया, श्रावधर्म की जब उत्पत्ति हुई तो श्रावक बहुत ही ऋजु स्वभाव के धर्मप्रिय थे, किसी की भी हिंसा करते देखते तो उनका हृदय दया से द्रवित हो उठता और उनके मुख से स्वर फूट पड़ते,-इन जीवों को मत मारो, मत मारो, 'मा हन' इस उपदेश के आधार से 'माहण' ही बाद में 'ब्राह्मण' हो गये।
सम्भव है पहले श्रमण और श्रावक दोनों के लिए 'माहण' शब्द का प्रयोग होता रहा हो।
एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि वृद्ध श्रावक का अर्थ ब्राह्मण क्यों किया जाय ? भगवान् महावीर के समय हजारों की संख्या में पाश्र्वापत्य श्रावक विद्यमान थे। वे वृद्ध श्रावक कहे जा सकते हैं। पर उत्तर में निवेदन है कि आगमसाहित्य में जहाँ पर भी 'बुड्ढ सावय' शब्द व्यवहृत हुआ है वह। 'निगण्ठ' शब्द भी आया है। निम्रन्थपरम्परा दोनों के लिए व्यवहृत होती थी। इसलिए वृद्ध श्रावक पृथक् कहने की आवश्यकता नहीं। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि वृद्ध श्रावक केवल गृहस्थों के लिए ही नहीं आया है साधु संन्यासी व गृहस्थ दोनों के लिए आया है। जैसे 'शाक्य' शब्द उस परम्परा के संन्यासी व गृहस्थ दोनों के लिए आता है वैसे ही निर्ग्रन्थ शब्द भी दोनों के लिए आता है, एक के लिए आसक के साथ में आता है। आगम साहित्य के मंथन से२१३ यह स्पष्ट है कि वृद्ध श्रावक भगवान् महावीर के समय पूर्ण रूप से वैदिक परम्परा की क्रियाओं का पालन करते थे। उनकी कोई भी क्रिया जैन परम्परा की धार्मिक क्रिया से मेल नहीं खाती थी। आज भले ही श्रावक शब्द ब्राह्मण परम्परा में प्रचलित न हो पर अतीत काल में था। भगवान् ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती सम्राट भरत उन श्रावकों से प्रतिदिन “जितो भवान् वर्धते भीस्तस्मात् मा हन मा हन" = "आप पराजित हो रहे हैं, भय बढ़ रहा है, अतः आत्मगुणों का हनन न हो। अतः सावधान रहो।" इसे श्रवण कर अन्तर्मुखी होकर चिन्तन के सागर में डुबकी लगाने लगते। निरन्तर ऊर्ध्वमुखी चिन्तन होने से अना. सक्ति की भावना निरन्तर बढ़ती रहती। माहन का उच्चारण करने वाले वे महान् माहन थे। सम्राट भरत चक्रवर्ती ने उन श्रावकों के स्वाध्याय हेतु (१) संसारदर्शन (२) संस्थानपरामर्शन (३) तत्त्वबोध (४) विद्याप्रबोध१४ इन चार आर्यवेदों का निर्माण किया। वे वेद नौवें तीर्थंकर सुविधिनाथ तक चलते रहे। उसके पश्चात् सुलभ और याज्ञवल्क्य प्रभृति ऋषियों के द्वारा अन्य वेदों की रचना की गई। 'वृद्ध श्रावक' शब्द ब्राह्मण परम्परा का ही सूचक है। यद्यपि इसका प्रादुर्भाव श्रमण परम्परा में हुआ, किन्तु बाद में चलकर वह वैदिक परम्परा के सम्प्रदायविशेष के लिए व्यवहृत होने लगा। मेरी दृष्टि से वृद्ध और श्रावक ये दो पृथक न होकर एक ही होना चाहिए।
(१४) रक्तपट-लाल वस्त्रधारी परिव्राजक ।
इस प्रकार ये शब्द इतिहास और परम्परा के संवाहक हैं। कितने ही शब्द अतीत काल में अत्यन्त गरिमामय रहे हैं और उनका बहुत अधिक प्रचलन भी था, किन्तु समय की अनगिनत परतों के कारण उसकी अर्थ-व्यंजना दूर होती चली गई और वे शब्द आज रहस्यमय बन गये हैं। इसलिए उन शब्दों के अर्थ के अनुसन्धान की आवश्यकता है।
___ २१२. आचारांग चूर्णि पृ. ५॥ २१३. अनुयोगद्वार २०. और २६॥ शलाका-पुरुष चरित्र १-६-२४७.२५३॥
२१४. त्रिषष्टि.
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