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एक अनुशीलन मणियों के कंगूरे थे। बड़ी दर्शनीय थी। उसके उत्तर-पूर्व में रैवत कनामक पर्वत था। उस पर नंदवननामक उद्यान था। कृष्ण वहां के सम्राट थे।३९
__ बृहत्कल्प के अनुसार द्वारका के चारों ओर पत्थर का प्राकार था। त्रिषष्टिशलाका पुरुष" चरित्र में आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि द्वारका १२ योजन आयामवाली और नौ योजन विस्तृत थी। वह रत्नमई थी। उसके सन्निकट अट्वारह हाथ ऊँचा नौ हाथ भूमिगत और बारह हाथ चौड़ा सभी ओर खाई से घिरा हुआ एक सुन्दर किला था। बड़े सुन्दर प्रासाद थे। राम कृष्ण के प्रासाद के पास प्रभासानामक सभा थी। उसके समीप पूर्व में रैवतक गिरि, दक्षिग में माल्यवान शैल, पश्चिम में सौमनस पर्वत और उत्तर में गन्धमादन गिरि थे। आचार्य हेमचन्द्र ४२, आचार्य शीलांक, देवप्रभसूरि१४४, आचार्य जिनसेन", आचार्य गुणभद्र ४६, प्रभृति श्वेतांबर व दिगम्बर परम्परा के ग्रंथकारों ने और वैदिक हरिवंश पुराण, ४७ विष्णुपुराण और श्रीमद् भागवत आदि में द्वारका को समुद्र के किनारे माना है। महाभारत में श्रीकृष्ण ने द्वारका के सम्बन्ध में युधिष्ठिर से कहामथुरा को छोड़कर हम कुशस्थलीनामक नगरी में आये जो रैवतक पर्वत से उपशोभित थी। वहाँ दुर्गम दुर्ग का निर्माण किया। अधिक द्वारों वाली होने से द्वारवती कहलाई।१५३ महाभारत जनपर्व की टीका'५० में नीलकंठ ने कुशावर्त का अर्थ द्वारका किया है।
प्रभुदयाल मित्तल १५२ ने लिखा है-शूरसेन जनपद से यादवों के आ जाने के कारण द्वारका के उस छोटे से राज्य की अत्यधिक उन्नति हुई। वहाँ पर दुर्भेद्य दुर्ग और विशाल नगर का निर्माण कराया गया और अंधक वृष्णि संघ के एक शक्तिशाली यादव राज्य के रूप में संगठित किया गया। भारत के समुद्र तट का वह सुदृढ राज्य विदेशी अनार्यों के आक्रमण के लिए देश का एक सजग प्रहरी बन गया। गुजराती में 'द्वार' का अर्थ बन्दरगाह है। द्वारका या द्वारावती का अर्थ बन्दरगाहों की नगरी
रगाहों से यादवों ने समद्रयात्रा कर विराट सम्पत्ति अर्जित की थी। हरिवंश पुराण१५३ में लिखा है-द्वारका में निर्धन, भाग्यहीन, निर्बल तन और मलिन मन का कोई भी व्यक्ति नहीं था। वायुपुराण आदि के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि महाराजा रेवत ने समुद्र के मध्य कुशस्थली नगरी बसाई थी। वह आवर्त जनपद में थी। वह कुशस्थली श्रीकृष्ण के समय द्वारका या द्वारवती के नाम से पहचानी जाने लगी। घटजातक १५४ का अभिमत है कि द्वारका के एक ओर विराट् समुद्र अठखेलियां कर रहा था तो दूसरी ओर गगनचुंबी पर्वत था। डा. मलशेखर का भी यही मन्तव्य है कि पेतवत्थु५५ ने द्वारका को कंबोज का एक नगर माना है। डा. मलशेखर ५६ ने प्रस्तुत कथन का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि संभव है यह कंबोज ही कंसभोज हो जो कि अंधक वृष्णि के दस
१३९. ज्ञातासूत्र १-५॥ १४०. बृहत्कल्प भाग २, पृ. २५१॥ १४१. त्रिषष्टिशलाका, पर्व ८, सर्ग ५, पृ. ९२॥ १४२. त्रिषष्टि. पर्व८, सर्ग ५. पृ. ९२॥ १४३. चउप्पनमहापुरिसच पृ०॥ १४४. पाण्डवचरित्र देवप्रभसूरि रचित ।। १४५. हरिवंश पुराण ४१/१९१९ ॥ १४६. उत्तरपुराण ७१/२०-२३, पृ० ३७६॥ १४७. हरिवंशपुराण २/५४॥ १४८. विष्णुपुराण ५/२३/१३ ॥ १४९. श्रीमद्भागवत १० अ. ५०/५०॥ १५०. महाभारत सभापर्व अ. १४॥ १५१. (क) महाभारत जनपर्व अ. १६० श्लो. ५० (ख) अतीत का अनावरण पृ. १६३॥ १५२. द्वितीय खंड, वज्र का इतिहास प्र. ४७॥ १५३. हरिवशपराण २/५८/६५॥ १५४. जातक (चतुर्थ खंड) पृ. २८४ ॥ १५५. पेतवत्यु भाग २, पृ. ९॥ १५६. The Dictionary of Pali Proper Names, भाग १. पृ० ११२६॥
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