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एक अनुशीलन*
लेखक : श्री देवेन्द्रमुनिजी शास्त्री
धर्म, दर्शन, समाज और संस्कृति का भव्य प्रासाद उनके मूल भूत ग्रंथों की गहरी नींव पर टिका हुआ है।
वेद और आगम : ब्राह्मण संस्कृति के मूलभूत ग्रन्थ वेद हैं । वेद वैदिक चिन्तकों के विचारों की अमूल्य निधि हैं। ऋग्वेद आदि की, विज्ञगण विश्व के प्राचीनतम साहित्य में परिगणना करते हैं। ब्राह्मण मनीषियों ने वेदों के शब्दों की सुरक्षा का अत्यधिक ध्यान रखा है। कहीं वेदमन्त्र के शब्द इधर-उधर न हो जायँ, इसके लिए वे सतत जागरूक रहे। वेदों के शब्दों में मन्त्रशक्ति क आरोप करने से उनमें शब्दपरिवर्तन नहीं हुए। क्योंकि वैदिक विज्ञों ने संहितापाठ, पादपाठ, क्रमपाठ, जटा पाठ, घनपाठ के रूप में वेदमन्त्रों के पठन और उच्चारण का वैज्ञानिक क्रम बनाया था, जिस के कारण वेदों का शाब्दिक कलेवर वर्तमान में ज्यों का त्यों विद्यमान है ।
जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य का जब हम तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करते हैं तो यह स्पष्ट परिशात होता है कि वेद एक ऋषि के द्वारा निर्मित नहीं है, अपितु अनेक ऋषियों ने समय-समय पर मन्त्रों की रचनाएँ की हैं जिसके कारण वेदों में विचारों की विविधता है। सभी ऋषियों के विचारों में एकरूपता हो यह कभी संभव नहीं है। वैदिक मान्यतानुसार ऋषिगण मन्त्रद्रष्टा थे, मन्त्रस्रष्टा नहीं थे, उन्होंने अपने अन्तश्चक्षुओं से जो देखा और परखा उसे शब्दों में अभिव्यंजना दी थी।
पर जैन आगम और बौद्ध त्रिपिटक श्रमण भगवान् महावीर और तथागत बुद्ध के चिन्तन का ही मूर्त रूप हैं । उनके प्रवक्ता एक ही हैं, इसलिए उनमें विभिन्नता नहीं आई है। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि तीर्थकर तो अर्थ रूप में अपना प्रवचन करते हैं, ' शब्द रूप में सूत्रबद्ध रचना गणधर करते हैं ।
जैन परम्परा में और वैदिक परम्परा में यह महत्त्वपूर्ण अन्तर है कि एक ने अर्थ को प्रधानता दी है तो दूसरे ने शब्द को प्रधानता दी है। यही कारण है कि वैदिक परम्परा में वेद के नाम पर विभिन्न चिन्तन धाराएँ विकसित हुई हैं। विभिन्न दार्शनिक जीव, जगत् और ईश्वर को लेकर पृथक् पृथक् व्याख्याएँ करते रहे हैं । वेद सभी को मान्य हैं, किन्तु वेदों की व्याख्या में एकरूपता नहीं है ।
जैन परम्परा में वैदिक परम्परा की तरह संप्रदायभेद नहीं है । जो श्वेतांबर, दिगंबर या अन्य उपसंप्रदाय हैं उनमें विचारों का मतभेद प्रमुख नहीं, अपितु आचार का भेद प्रमुख है। यह सत्य है कि त्रेतांवरमान्य आगमों को दिगम्बर मान्य नहीं करते हैं, पर दिगंबर साहित्य में अंग साहित्य के
* श्री आगम प्रकाशनसमिति, जैन स्थानक, पीपलिया बाजार, ब्यावर, राजस्थान, Pin ३०५९०१ - से प्रकाशित जिनागम ग्रन्थमाला ग्रन्थाङ्क - ४ में ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र हिन्दी अनुवाद आदि के साथ वि० सं० २०३७ (ई. सन् १९८१) में प्रकाशित हुआ है। उसकी प्रस्तावना स्थानकवासी श्रमण संघ के उपाचार्य देवेन्द्रमुनिजी शास्त्री ने हिन्दी भाषा में लिखी है, उस प्रस्तावना म से उपयोगी ऐतिहासिक अंश उनकी संमति से ज्यों का त्यों यहाँ साभार उद्धृत किया जाता है ।
१. आवश्यकनिर्युक्ति गा० १९२ (ख) धवला भा- १. ६४-७२ ॥
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