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एक अनुशीलन
विक्षिप्त हो और शरीर अस्वस्थ हो उस समय देखे गये स्वप्न असत्य होते हैं। आचाय ने दोषसमुद्भव और देवसमुद्भव इस प्रकार स्वप्न के दो भेद भी किये हैं। वात, पित्त, कफ प्रभृति शारीरिक विकारों के कारण जो स्वप्न आते हैं वे दोषज हैं । इष्टदेव या मानसिक समाधि की स्थिति में जो स्वप्न आते हैं वे देवसमुद्भव है। स्थांनाग और भगवती ७ में यथातथ्य स्वप्न ( जो स्वप्न में देखा है जागने पर उसी तरह देखना, अर्थात् अनुकूल-प्रतिकूल शुभ-अशुभ फल की प्राप्ति), प्रतानस्वप्न (विस्तार से देखना ), चिन्तास्वप्न (मन में रही हुई चिन्ता को स्वप्न में देखना ), तद्विपरीत स्वप्न (स्वप्न में देखी हुई घटना का विपरीत प्रभाव ), अव्यक्त स्वप्न (स्वप्न में दिखाई देनेवाली वस्तु का पूर्ण ज्ञान न होना), इन पाँच प्रकार के स्वप्नों का वर्णन है ।
प्राचीन भारतीय स्वप्नशास्त्रियों ने स्वप्नों के नौ कारण बतलाये हैं-
(१) अनुभूत स्वप्न (अनुभव की हुई वस्तु का) (२) श्रुत स्वप्न (३) दृष्ट स्वप्न ( ४ ) प्रकृतिविकारजन्य स्वप्न (वात, पित्त, कफ को अधिकता और न्यूनता से) (५) स्वाभाविक स्वप्न ( ६ ) चिन्ता - समुत्पन्न स्वप्न ( जिस पर पुनः पुनः चिन्तन किया हो) (७) देव प्रभाव से उत्पन्न होनेवाला स्वप्न (८) धर्मक्रिया प्रभावोत्पादित स्वप्न, और ( ९ ) पापोदय से आनेवाला स्वप्न । इनमें छह स्वप्न निरर्थक होते हैं और अन्त के तीन स्वप्न शुभाशुभ फल प्रदान करते हैं। जिनभद्रगणि श्रमाश्रमण ने भी विशेषावश्यक भाष्य इनका उल्लेख किया है।
प्राचीन आचार्यों ने शुभ और अशुभ स्वप्न की एक सूची ८० दी है । पर वह सूची पूर्ण हो ऐसी बात नहीं है। उनके अतिरिक्त भी कई तरह के स्वप्न आते हैं। उन स्वप्नों का सही अर्थ जानने के लिए परिस्थिति, वातावरण, और व्यक्ति की अवस्था देखकर ही निर्णय करना चाहिये ।
विशिष्ट व्यक्तियों की माताएँ जो स्वप्न निहारती हैं उनके अन्तर्मानस की उदात्त आकांक्षाएँ उसमें रहती हैं। वे सोचती हैं कि मेरे ऐसा दिव्य भव्य पुत्र हो जो दिगदिगन्त को अपनी यशोगाथा से गौरवान्वित करे । उसकी पवित्र भावना के कारण इस प्रकार के पुत्र आते भी हैं। यह अवश्य स्मरण रखना चाहिए कि स्वप्न वस्तुतः स्वप्न ही है। स्वप्न पर अत्यधिक विश्वास कर यथार्थता से मुँह नहीं मोड़ना चाहिये । केवल स्वप्नद्रष्टा नहीं यथार्थद्रष्टा बनना चाहिए। वह तो केवल सूचना प्रदान करनेवाला है।
दोहद : एक अनुचिन्तन : प्रस्तुत अध्ययन में मेघकुमार की माता धारिणी को दोहद उत्पन्न होता है । दोहद की पूर्ति न होने से महारानी मुरझाने लगी । महाराजा श्रेणिक उसके मुरझाने के कारण को समझकर अभयकुमार के द्वारा महारानी के दोहद की पूर्ति करवाते हैं ।
दोहद की इस प्रकार की घटनाएँ आगम साहित्य" में अन्य स्थलों पर भी आई हैं। जैन
७५. वही सर्ग ४१ / ६१॥ ७६. स्थानांग – ५ ॥ ७७. भगवती - - १६-६ ॥ ७८. अनुभूतः तो दृष्टः प्रकृतेश्च विकारजः । स्वभावतः समुद्भूतः चिन्ता संततिसंभवः ॥ देवताद्युपदेशोत्थो धर्मकर्मप्रभावः । पापोद्रेकसमुत्थश्च स्वप्नः स्यान्नवधा नृणाम् ॥ प्रकारैरादिमैः षड्भिरशुभश्च शुभोऽपि वा । दृष्टो निरर्थको स्वप्नः सत्यस्तु त्रिभिरुत्तरैः ॥ -- स्वप्नशास्त्र ॥ ७९. विशेषावश्यक भाष्य गाथा १७०३ ॥ ८०. भगवती सूत्र १६-६ ॥ ८१. विपाक सूत्र - ३; कहाकोसु सं. १६; गाहासतसई प्र. शतक गा १–१५, – ३ - ९०२, ५-७२ श्रेणिकचरित्र; उत्तरा० टीका १३२, आवश्यकचूर्णि २ पृ. १६६, निरियावलिका १, पृ. ९-११, पिण्डनिर्युक्ति ८०; व्यवहारभाष्य १, ३, पृ. १६॥
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