Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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दोनों तत्त्व पय-पानीवत् मिल चुके हैं। भेद-विज्ञान से वह दोनों की पृथक् सत्ता को समझता है और उनको पृथक्-पृथक् करने लिए प्रत्याख्यान स्वीकार करता है। संयम की साधना करता है, जिससे वह आने वाले आश्रव का निरुन्धन कर लेता है और जो अन्दर विजातीय तत्त्व रहा हुआ है उसे धीरे-धीरे तपश्चरण द्वारा नष्ट करने से मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापारों का निरुन्धन कर वह आत्मसिद्धि को वरण करता है। यह है सत्संग की महिमा और गरिमा । सत्, आत्मा है। उसका संग ही वस्तुतः सत्संग है। अनन्त काल से आत्मा परसंग में उलझा रहा। जब आत्मा पर संग से मुक्त होता है और स्व-संग करता है, तभी वह मुक्त बनता है । मुक्ति का अर्थ है पर-संग से सदा-सर्वदा के लिए मुक्त हो जाना। इस तथ्य को शास्त्रकार ने बहुत ही सरल रूप प्रस्तुत किया है।
सत्संग करने वाला साधक ही धर्म मार्ग को स्वीकार करता है। गणधर ने भगवान् महावीर के समक्ष जिज्ञासा प्रस्तुत की कि केवलज्ञानी से या उनके उपासकों से बिना सुने जीव को वास्तविक धर्म का परिज्ञान होता है ? समाधान करते हुए भगवान् महावीर ने कहा — गौतम ! किसी जीव को होता है और किसी को नहीं होता। यही बात सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र के सम्बन्ध में भी कही गई है। प्रश्नोत्तरों से यह स्पष्ट है कि धर्म और मुक्ति का आधार आन्तरिक विशुद्धि है। जब तक आन्तरिक विशुद्धि नहीं होती तब तक मुक्ति सम्भव नहीं है। जिनका मानस सम्प्रदायवाद से ग्रसित हैं उनके लिए प्रस्तुत वर्णन चिन्तन की दिव्य ज्योति प्रदान करेगा। ज्ञान और क्रिया
जैनधर्म ने न अकेले ज्ञान को महत्त्व दिया है और न अकेली क्रिया को । साधना की परिपूर्णता के लिए ज्ञान और क्रिया दोनों का समन्वय आवश्यक है । गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि सुव्रत और कुत क्या अन्तर है ? समाधान देते हुए भगवान् महावीर ने कहा— जो साधक व्रत ग्रहण कर रहा है उसे यदि यह परिज्ञान नहीं है कि यह जीव है या अजीव है, त्रस है या स्थावर है; उसके व्रत सुव्रत नहीं हैं। क्योंकि जब तक परिज्ञान नहीं होगा तब तक वह व्रत का सम्यक् प्रकार से पालन नहीं कर सकेगा। परिज्ञानवान् व्यक्ति का व्रत ही सुव्रत है। वही पूर्ण रूप से व्रत का आराधन कर सकता है।
गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि कितने ही चिन्तकों का यह अभिमत है कि शील श्रेष्ठ है तो किन्हीं चिन्तकों का कथन है कि श्रुत श्रेष्ठ है। तो तृतीय प्रकार के चिन्तक शील और श्रुत दोनों को श्रेष्ठ मानते हैं। आपका इस सम्बन्ध में क्या अभिमत है ?
भगवान् महावीर ने समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा — इस विराट् विश्व में चार प्रकार के पुरुष हैं१. जो शीलसम्पन्न हैं पर श्रुतसम्पन्न नहीं, वे पुरुष धर्म के मर्म को नहीं जानते, अत: अंश से आराधक हैं। २. श्रुतसम्पन्न हैं पर शीलसम्पन्न नहीं, वे पुरुष पाप से निवृत्त नहीं हैं पर धर्म को जानते हैं, इसीलिए वे अंश से विराधक हैं।
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भगवती शतक २. उद्देशक ५
भगवती शतक ९, उद्देशक २९
भगवती शतक ७, उद्देशक २
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