Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
थे, वहाँ उनके शरीर का आन्तरिक गठन भी बहुत ही सुदृढ़ था । वे वज्र - ऋषभ - नाराच संहननी थे। सुन्दर शारीरिक गठन के साथ ही उनके मुख, नयन, ललाट आदि पर अद्भुत ओज और चमक थी। जैसे कसौटी पत्थर पर सोने की रेखा खींच देने से वह उस पर चमकती रहती है, वैसे ही सुनहरी आभा गौतम के मुख पर दमकती रहती थी। उनका वर्ण गौर था । कमल - केसर की भांति उनमें गुलाबी मोहकता भी थी। जब उनके ललाट पर सूर्य की चमचमाती किरणें गिरतीं तो ऐसा प्रतीत होता कि कोई शीशा या पारदर्शी पत्थर चमक रहा है। वे जब चलते तो उनकी दृष्टि सामने के मार्ग पर टिकी होती। वे स्थिर दृष्टि से भूमि को देखते हुए चलते। उनकी गति शान्त, चंचलता रहित और असंभ्रान्त थी जिसे निहार कर दर्शक उनकी स्थितप्रज्ञता का अनुमान लगा सकता था। वे सर्वोकृष्ट तपस्वी थे, पूर्ण स्वावलम्बी और ऊर्ध्वरता ब्रह्मचारी थे। उनके लिए घोर तपस्वी के साथ 'घोरबंभचेरवासी' विशेषण भी प्रयुक्त हुआ है । साधना के चरमोत्कर्ष पर पहुँचे हुए वे विशिष्ट साधक थे । उन्हें तपोजन्य अनेक लब्धियाँ और सिद्धियाँ प्राप्त हो चुकी थीं। वे चौदह पूर्वी व मनः पर्यवज्ञानी थे। साथ ही वे बहुत ही सरल और विनम्र थे। उनमें ज्ञान का अहंकार नहीं था और न अपने पद और साधना के प्रति मन में अहं था । वे सच्चे जिज्ञासु थे। गौतम की मन:स्थिति को जताने वाली एक शब्दावली प्रस्तुत आगम में अनेक बार आई है—' जायसड्ढे, जायसंसए, जायकोउहल्ले ।' उनके अन्तर्मानस में किसी भी तथ्य को जानने की श्रद्धा, इच्छा पैदा हुई, संशय हुआ और वे भगवान् की ओर आगे बढ़े। इस वर्णन से यह स्पष्ट है कि गौतम की वृत्ति में मूल घटक वे ही तत्व थे, जो सम्पूर्ण दर्शनशास्त्र की उत्पत्ति में मूल घटक रहे हैं।
विश्व में यूनानी दर्शन, पश्चिम दर्शन और भारतीय दर्शन ये तीन मुख्य दर्शन माने जाते हैं। यूनानी दर्शन का प्रवर्तक ओरिस्टोटल है । उसका मन्तव्य है कि दर्शन का जन्म आश्चर्य से हुआ है। यही बात प्लेटो ने भी मानी हैं। पश्चिम के प्रमुख दार्शनिक डेकार्ट, काण्ट, हेगल आदि ने दर्शन का उद्भावक तत्त्व संशय माना है। भारतीय दर्शन का जन्म जिज्ञासा से हुआ है। यहाँ प्रत्येक दर्शन का प्रारम्भ जिज्ञासा से है, चाहे वैशेषिक हो, चाहे सांख्य हो, चाहे मीसांसा हो । उपनिषदों में ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जिनके मूल में जिज्ञासा तत्त्व मुखरित हो रहा हैं। छान्दोग्योपनिषद्' में नारद सनत्कुमार के पास जाकर यह प्रार्थना करता है कि मुझे सिखाइये —— आत्मा क्या है ? कठोपनिषद् में बालक नचिकेता यम से कहता है— जिसके विषय में सभी मानव विचिकित्सा कर रहे हैं, वह तत्त्व क्या है ? यम भौतिक प्रलोभन देकर उसे टालने का प्रयास करते हैं पर बालक नचिकेता दृढ़ता के साथ कहता है मुझे धन-वैभव कुछ भी नहीं चाहिये । आप तो मेरे प्रश्न का समाधान कीजिए। मुझे वही इष्ट है ।" श्रमण भगवान् महावीर ने साधना के कठोर कण्टकाकीर्ण महामार्ग पर जो मुस्तैदी से कदम बढ़ाए, उसमें भी आत्म-जिज्ञासा ही मुख्य थी । आचारांग के प्रारम्भ में आत्म - जिज्ञासा का ही स्वर झंकृत हो रहा है। साधक
१.
२.
३.
४.
५.
फिलॉसफी विगिन्स इन वंडर्स (Philosophy Begins in Wonders)
डॉ. भगवानदास
दर्शन का प्रयोजन, पृष्ठ २९
(क) अथातो धर्म जिज्ञासा
- वैशेषिक दर्शन १
(ख) दुःखत्रयाभिघाताज् जिज्ञासा – सांख्यकारिका १ (ईश्वरकृष्ण ) -मीमांसासूत्र १ (जैमिनी )
(ग) अथातो धर्मजिज्ञासा
(घ) अथातो धर्मजिज्ञसा
अधीहि भगवन् वरस्तु में वरणीय एव
— ब्रह्मसूत्र ११
— छान्दोग्य उपनिषद्, अ. ७ — कठोपनिषद्
[३०]