Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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है। इसीलिए 'नमो बंभीए लिवीए' के द्वारा भावश्रुत को नमस्कार किया गया है।
प्रस्तुत आगम में तीसरा नमस्कार 'नमो सुयस्स' के रूप में श्रुत को किया गया है। मतिज्ञान के पश्चात् शब्दसंस्पर्शी जो परिपक्व ज्ञान होता है, वह श्रुतज्ञान है। दूसरे शब्दों में श्रुतज्ञान का अर्थ है—वह ज्ञान जिसका शास्त्र से सम्बन्ध हो। आप्तपुरुष द्वारा रचित आगम व अन्य शास्त्रों से जो ज्ञान होता है—वह श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान के अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ये दो भेद हैं। अंगबाह्य के अनेक भेद हैं और अंगप्रविष्ट के १२ भेद है।' श्रुत वस्तुत: ज्ञानात्मक है। ज्ञानोत्पत्ति के साधन होने के कारण उपचार से शास्त्रों को भी श्रुत कहा गया हैं। श्रुत ही भावतीर्थ है। द्वादशांगी के सहारे ही भव्यजीव संसार-सागर से पार उतरते हैं। इसलिए श्रुत को नमस्कार किया गया है। इस नमस्कार से श्रुत की महत्ता प्रदर्शित की गई है। साधकों के अन्तर्मानस में श्रुत के प्रति गहरी निष्ठा उत्पन्न की गई है, जिससे वे श्रुत का सम्मान करें और श्रुत को एकाग्रता से श्रवण करें। . गणधर गौतम : एक परिचय
भगवतीसूत्र का प्रारम्भ गणधर गौतम की जिज्ञासा से होता है । गौतम जिज्ञासा हैं तो महावीर समाधान हैं। उपनिषत्कालीन उद्दालक के समक्ष जो स्थान श्वेतकेतु का है, गीता के उपदिष्टा श्रीकृष्ण के समक्ष जो स्थान अर्जुन का है, तथागत बुद्ध के समक्ष जो स्थान आनन्द का है; वही स्थान भगवान् महावीर के समक्ष गणधर गौतम का है।
. भगवती के प्रारम्भ में सर्वप्रथम बहुत ही संक्षेप में भगवान् महावीर के अन्तरंग जीवन का परिचय दिया • गया है। उसके पश्चात् गणधर गौतम की अन्तरंग और बाह्य छवि चित्रित की गई है। गौतम जितने बड़े तत्त्वज्ञानी
थे उतने ही बड़े साधक भी थे। श्रुत और शील की पवित्र धारा से उनकी आत्मा सम्पूर्ण रूप से परिप्लावित हो रही थी। एक ओर वे उग्र और घोर तपस्वी थे तो दूसरी ओर समस्त श्रुत के अधिकृत ज्ञाता भी थे।
मनोविज्ञान का सिद्धान्त है कि किसी भी व्यक्ति का अन्तरंग दर्शन करने से पहले दर्शक पर उसके बाह्य व्यक्तित्व का प्रभाव पड़ता है। प्रथम दर्शन में ही व्यक्ति उसके तेजस्वी व्यक्तित्व से प्रभावित हो जाता है। यदि व्यक्ति के चेहरे पर ओज है, आकृति से सौन्दर्य छलक रहा है, आँखों में अद्भुत तेज चमक रहा है और मुख पर मुस्कान अठखेलियाँ कर रही हैं तो आन्तरिक व्यक्तित्व में सौन्दर्य का अभाव होने पर भी बाह्य सौन्दर्य से दर्शक प्रभावित हो जाता है। यदि बाह्य सौन्दर्य के साथ आन्तरिक सौन्दर्य हो तो सोने में सुगन्ध की उक्ति चरितार्थ हो जाती है। यही कारण है कि विश्व में जितने भी महापरुष हए हैं. उनका बाह्य व्यक्तित्व प्रायः आकर्षक और लुभावना रहा है और साथ ही आन्तरिक जीवन तो बाह्य व्यक्तित्व से भी अधिक चित्ताकर्षक रहा है। औपपातिक में भगवान महावीर के बाह्य व्यक्तित्व का प्रभावोत्पादक चित्रण है तो बुद्धचरित्र में महाकवि अश्वघोष ने बद्ध के लुभावने शरीर का वर्णन किया है कि उस तेजस्वी मनोहर रूप को जिसने भी देखा, उसकी ही आँखें उसी में बंध गईं। उसे निहार कर राजगृह की लक्ष्मी भी संक्षुब्ध हो गई। जिन व्यक्तियों में पुण्य की प्रबलता होती है, उनमें शारीरिक सुन्दरता होती है । गणधर गौतम का शरीर भी बहुत सुन्दर था। जहाँ वे साथ हाथ ऊँचे कद्दावर
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श्रुतं मतिपूर्वं व्यनेकद्वादशभेदम्। —तत्त्वार्थसूत्र, ११२० अवदालियपुंडरीयणयणे ...................... चन्दद्धसमणिडाले वरमहिस-वराह-सीह-सदुल-उसभ-नागवरपडिपुण्णविउलक्खंधे...........| -औपपातिक सूत्र १ यदेव यस्तस्य ददर्श तत्र तदेव तस्याथ वबन्ध चक्षुः। -बुद्धचरित १०८ चलच्छरीरं शुभजालहस्तम् संचुक्षुभे राजगृहस्य लक्ष्मीः । -बुद्धचरित १०९ प्रज्ञापना. २३
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