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राजस्थान में हिंदी के हस्तलिरिक्त
ग्रन्थों की खोज (द्वितीय भाग)
लेखक अगरचन्द नाहटा
श्रीयुत् छोटेलाल जैन के प्राक्कथन सहित
प्राचीन साहित्य शोध संस्थान
उदयपुर विद्यापीठ उदयपुर [ राजपूताना]
प्रथम संस्करण १०००
सन् १९४७ ई०
[ मूल्य ४)
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प्रकाशक उदयपुर विद्यापीठ सरस्वती मन्दिर, . प्राचीन साहित्य शोध-संस्थान,
उदयपुर।
मथुराप्रसाद शिवहरे. दी फाईन आर्ट प्रिटिङ्ग रेस,
अजमेर।
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स्व० श्री सेठ केसरीचन्द्रजी चतुर
_____ उदयपुर (मेवाड़) [आपके पौत्र श्री प्रकाशमलजी चतुर की पत्नी मुगनकुमारी के असामयिक देहावसान पर
स्मृतिरूप में उनके सन्तप्त परिवार द्वारा ]
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प्राक्कथन
राजस्थान ने भारत के इतिहास में बहुत महत्त्वपूर्ण भाग लिया, और यह श्रेय , ' भारत के अन्य किसी भी भू-खण्ड को नहीं प्राप्त हुआ । बारहवीं शताब्दी के भी । पूर्व से लेकर मुगलों के पतन तक राजस्थान बराबर मुसलमानो के आक्रमणों का प्रति
रोध करता रहा, और उनसे निरन्तर संघर्षरत रहा । इसका फल यह हुआ कि जब ___ अंग्रेज़ मुग़लों के उत्तराधिकारी बने, तो राजस्थान की एक अंगुल भूमि भी मुग़लों के '
अधिकार में न थी । यह बात गौरव के साथ कहनी पड़ती है कि भारत का कोई भी अन्य प्रान्त इतने दीर्घकाल तक अविरत रूप से युद्धरत न रहा । इस भीषण संघर्ष काल के उत्थान-पतन में राजस्थान को कितना निस्वार्थ त्याग करना पड़ा होगा, कितना लोमहर्षक शौर्य प्रदर्शित करना पड़ा होगा, छः सौ वर्ष तक स्वतंत्रता की । अजस्र ज्वाला जाग्रत रखने के लिये कितने ईंधन की आवश्यकता हुई होगी, स्वतंत्रता .
के ध्येय को प्राप्त करने के लिये उसका कितना अटल निश्चय और अध्यवसाय होगा, । स्वतंत्रता संग्राम के भारवहन की शक्ति कितने गम्भीर और अक्षय देश-प्रेम से प्राप्त
की गई होगी, उसकी विचारधारा, भावना, सफलता पिछली दस शताब्दियो में कैसी रही होगी ? इन सब बातों का मार्मिक दिग्दर्शन राजस्थान के साहित्य में ही प्राप्त हो सकता है।
राजस्थान की भाव-व्यंजना हिन्दी और राजस्थानी भाषा में हुई है। महान् हिन्दू जाति की संस्कृति और सभ्यता के द्योतक इस साहित्य को भावी सन्तति के , हितार्थ राजस्थान ने सुरक्षित रक्खा है ।
अब भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त करली है, और यह उपयुक्त समय है कि भारत की वीर-भावना और उत्साह नष्ट न हो, जिससे यह देश विश्व में अन्याय और दुराचार का विरोध और दमन करने में समर्थ हो सके । हमारी वीरता का पुनर्जागरण प्राचीन साहित्य के अध्ययन से किया जा सकता है।
राजस्थान मे हस्तलिखित ग्रन्थो की अपार निधि है । कर्नल टॉड, राजा राजे। न्द्रलाल मित्र, महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री, डॉ० वूलर, भण्डारकर, टेसीटरी | आदि महानुभावो ने पुरातन हस्तलिखित ग्रन्थों की अन्वेषणा का सराहनीय कार्य किया है, परन्तु अधिकांश भाग तो अभी तक अनेक्षित ही है । ये हस्तलिखित प्रतियां हमारे विचार-क्षेत्र को विस्तृत करेंगी, जीवन को अधिक उन्नत बनायेगी
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राष्ट्रीय उत्साह का अक्षय स्रोत होगी, भारतीय जीवन और संस्कृति के ऐक्य को स्थापित करेंगी, और हिन्दू जाति के राष्ट्रीय भविष्य को व्यक्त करेंगी । इसमें सन्देह नहीं।
उदयपुर विद्यापीठ ने राजस्थान मे हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज' का प्रथम भाग सन् १९४२ में प्रकाशित किया, जिसमें १७५ हिन्दी ग्रन्थों का उल्लेख है और साथ ही संक्षिप्त टिप्पणियाँ भी हैं। अब इसका यह दूसरा भाग भी प्रकाशित हो रहा है । इसमें १८३ हस्तलिखित अज्ञात हिन्दी ग्रन्थों का विवरण है, जिनमें कोष, काव्य, वैद्यक, रत्न-परीक्षा, संगीत, नाटक, इतिहास, कथा नगरवर्णन, शकुन, सामुद्रिक
आदि विभिन्न विषयों के ग्रन्थ हैं, जो १०२ कवियों द्वारा रचित हैं । ये ग्रन्थ कई संग्रहालयो से प्राप्त हुए हैं, और प्रायः १७ वीं से १९ वीं शताब्दि तक के हैं। इनका सम्पादन-कार्य मेरे परम मित्र श्रीयुत अगरचन्दजी नाहटा द्वारा हुआ है । नाहटाजी ने जैन-साहित्य-क्षेत्र में सुख्याति प्राप्त की है और वे अपने अनुसन्धान कार्य को समय-समय पर पत्रों में प्रगट करते रहे हैं।
श्रीयुत नाहटाजी ने राजस्थान के हस्त-लिखित ग्रन्थों की अन्वेषणा और संग्रह में अपना बहुमूल्य समय और शक्ति का व्यय किया है, जिसके लिये हिन्दी साहित्य-प्रेमी उनके आभारी हैं।
प्राचीन साहित्य शोध-संस्थान, उदयपुर सम्वत् १९९८ वि० में स्थापित हुआ था और इतने अल्पकाल में ही उसने आशातीत सफलता प्राप्त की है। इस संस्था के संचालक न केवल विद्वान् ही हैं, वरन् कर्मठ भी हैं। सबसे अधिक विशेषता की बात तो यह है कि अच्छी से अच्छी सामग्री का ये बहुत ही अल्प व्यय से निर्माण करते हैं, जिनसे इनकी आश्चर्यजनक मितव्ययिता प्रगट होती है । अतः हम श्री जनार्दनरायजी नागर और श्री पुरुषोत्तमजी मेनारिया तथा अन्य कार्यकर्ताओं को जितना धन्यवाद दें थोड़ा है।
अन्त में मुझे यही कहना है कि भारतीय हस्तलिखित सामग्री के परिचय के लिये ऐसी प्रन्य-सूचियों की नितान्त आवश्यकता है।
कएकता
छोटेलाल जैन
माधिन शुष्ठा सं० २००१ वि०
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दो शब्द उदयपुर विद्यापीठ गत दस वर्षों से अपनी विविध संस्थाओं द्वारा राजस्थान में शिक्षणात्मक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और लोकोत्थान का कार्य कर रही है तथा अब
वह संपूर्ण विद्यापीठ का रूप ग्रहण कर चुकी है । महाविद्यालय, श्रमजीवी विद्यालय, - कलाकेन्द्र, सरस्वती मन्दिर (जिसमें प्राचीन साहित्य शोध-संस्थान संयुक्त है) महात्मा, गांधी लोक शिक्षण विद्यालय, मोहता आयुर्वेद सेवा सदन, प्रगतिशील प्रकाशन संस्थान (जिसमें विद्यापीठ प्रेस संयुक्त है ), राम सन्स टेक्निकल इंस्टीट्यूट और जनपद इसकी संस्थाएं हैं।
सरस्वती मन्दिर साहित्यिक-सांस्कृतिक निर्माणात्मक एवं शोध सम्बन्धी कार्य करने की योजना के साथ अग्रसर हो रहा है । इसके लिये मेवाड़ सरकार ने कृपा कर शहर के निकट ही सात बीघा जमीन भी बिना मूल्य लिये प्रदान की है, जिसके लिये वह हमारे धन्यवाद की पात्र है। प्राचीन साहित्य शोध-संस्थान के सामने अन्य प्रवृत्तियो के साथ राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज का विस्तृत और महत्त्वपूर्ण कार्य भी है। राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थो की खोज भाग २ का प्रकाशन बहुत विलम्ब से हो रहा है और इसके बाद आगे के दो भागों के मुद्रण का कार्य भी शेष है । आशा है अब शीघ्र ही शोध-संस्थान इनको प्रकाशित करने में समर्थ होगा। ___संस्थान श्रीयुत्, अगरचन्दजी नाहटा का अत्यन्त आभारी है, जिन्होंने इस महत्त्वपूर्ण प्रन्थ को बड़े परिश्रम, अनुभव और ठोस अध्ययन के आधार पर तैयार किया है। इस कार्य में हमें श्रीयुत् , नाहटाजी से बहुत आशा है और वे पूर्ण होंगी-इसमें सन्देह नहीं।
मेवाड़ सरकार ने कृपा कर अपनी विशेष स्वीकृति से १००० ) रु० की सहायता इस ग्रन्थ के प्रकाशनार्थ प्रदान की है। इसके लिये संस्था सरकार को हार्दिक धन्यवाद देती है और आशा करती है कि इस महत्वपूर्ण ग्रन्थमाला के आगामी प्रकाशनों के लिये भी मुद्रण का अधिकांश व्यय प्रदान करेगी। __श्रीयुत्, छोटेलालजी जैन, कलकत्ता ने कृपा कर प्रस्तुत ग्रन्थ के लिये अपना प्राक्कथन लिखना स्वीकृत किया तदर्थ हम आपके बहुत आभारी है। उदयपुर विद्यापीठ
. अर्जुनलाल महता कार्तिक कृष्ण ७, २००४ वि०
पीठ मन्त्री
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निवेदन
-::राजस्थान मे प्राचीन साहित्य, लोक-साहित्य, इतिहास और कलाविषयक शोधकार्य करने के लिये उदयपुर विद्यापीठ द्वारा वि० सं० १९९८ में प्राचीन साहित्य शोधसंस्थान की स्थापना की गई थी। योजनानुसार इसके विभागान्तर्गत कई महत्त्वपूर्ण प्रवृत्तियां स्थापित एवं विकसित हो चुकी हैं । जैसे- १- राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज, २-चारणगीत माला, ३-राजस्थान गौरव ग्रन्थमाला, ४-राजस्थानी कहावत माला, ५-राजस्थानी लोकगीत माला, ६-स्व० गौरीशंकर हीराचन्द
आमा निवन्ध संग्रह, ७-महाकवि सूर्यमल आसन, ८-शोध-पत्रिका और ९-संग्रहालय आदि ।
सर्वप्रथम हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज का कार्य प्रारंभ किया गया था। उस समय विद्वानो का राजकीय अथवा व्यक्तिगत पुस्तकभण्डारों में प्रवेश पा सकना और वहां के हस्तलिखित ग्रन्थों का विवरण तैयार करना आज से कहीं अधिक कठिन था। किन्तु इस कार्य में सफलता मिली और श्रीयुत्, पं० मोतीलाल मेनारिया एम० ए० द्वारा प्रस्तुत खोज का प्रथम विवरण-ग्रन्थ प्रकाशित कर दिया गया । इस ग्रन्थ के रूप मे द्वितीय विवरण-ग्रन्थ भी प्रकाशित किया जा रहा है । आगे के तृतीय और चतुर्थ भाग भी-एक श्रीयुत् , उदयसिह भटनागर एम० ए० का, दूसरा श्रीयुत् , अगरचन्द नाहटा का प्रेस के लिये प्रस्तुत हैं । आशा है शोध-संस्थान शीघ्र ही इनको भी प्रकाशित करने मे समर्थ होगा । तब तक कई नवीन भाग तैयार हो जायेंगे। चारणगीतमाला के लिये लगभग १०५० गीत अब तक एकत्रित किये जा चुके हैं । और प्रथम-द्वितीय भाग का सम्पादन-कार्य भी समाप्तप्रायः है। राजस्थान-गौरव-ग्रन्थमाला के अन्तर्गत महाकवि चन्द कृत पृथ्वीराज रासो का प्रामाणिक संस्करण प्रस्तुत किया जा रहा है । श्रीयुत्, कविराव मोहनसिंह के सम्पादकत्व और श्रीयुत्, भगवतीलाल भट्ट के संयोजन मे पृथ्वीराज रासो-कार्यालय द्वारा इसके ३३ प्रस्तावों का कार्य समाप्त हो गया है । राजस्थानी कहावत माला की प्रथम 'पुस्तक मेवाड़ की कहावतें' भाग १. सम्पादक श्रीयुत्, पं० लक्ष्मीलाल जोशी एम० ए० एल० एल० वी० प्रकाशित हो चुकी है। द्वितीय पुस्तक 'प्रतापगढ़ की कहावतें' सम्पादक श्रीयुत्, रत्नलाल महता, बी० ए०, एल० एल० बी०
और तृतीय पुस्तक 'राजस्थानी भील कहावतें' सम्पादक-श्रीयुत् , पुरुषोत्तम मेनारिया
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'साहित्यरत्न' प्रेस के लिये तैयार है । चतुर्थ पुस्तक 'मेवाड़ की कहावते' भाग-२, सम्पादक श्रीयुत्, पं० लक्ष्मीलाल जोशी एम० ए० एल० एल० बी० का कार्य भी चल रहा है । मेवाड़ के विभिन्न विभागो से लगभग ६०० लोकगीतो का संग्रह कार्य किया जा चुका है । इनमे भील गीत मुख्य हैं । स्व० डॉ० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के निबन्ध चार भागो मे प्रकाशित किये जावेंगे। नवीन खोज के अनुसार टिप्पणियां जोड़ने का महत् कार्य कृपा कर श्रीयुत् , डॉ० रघुबीरसिह एम० ए०, डी० लिट, एल एल० बी०, महाराजकुमार सीतामऊ ने प्रारंभ कर दिया है और प्रथम भाग शीघ्र ही प्रेस मे दिया जाने वाला है । महाकवि सूर्यमल आसन के तृतीय अभिभाषक श्रीयुत् , डॉ. सुनीतिकुमार चाटुा एम० ए०, डी० लिद, अध्यक्ष भाषातत्त्वविभाग कलकत्ता विश्वविद्यालय के 'राजस्थानी भाषा' विषयक भाषण प्रेस मे हैं । शोध-पूर्ण निबन्धो के प्रकाशनार्थ और शोध-कार्य को प्रगति देने के उद्देश्य से त्रैमासिक 'शोध-पत्रिका' का प्रकाशन भी चैत्र सं० २००४ वि० से प्रारंभ किया गया है। संस्थान का संग्रह-कार्य भी प्रगति पर है । प्राप्त जमीन पर संग्रहालय का भवन निर्मित होते ही संग्रहालय की उपयोगिता और प्रगति कई गुनी बढ़ जायगी। कई कठिनाइयो को सहते हुए भी इस प्रकार शोध-संस्थान अपने ध्येय की और अग्रसर हो रहा है।
राजस्थान मे हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थो की खोज का कार्य सर्वथा नवीन और महत्त्वपूर्ण है । यह बहुत आवश्यक है कि समस्त राजस्थान मे खोज का यह प्रारम्भिक कार्य शीघ्रातिशीघ्र समाप्त हो जाय । राजस्थान के विद्वानो, धनी-मानी सज्जनो और रियासती सरकारो की पूरी पूरी सहायता इसके लिये पूर्णतया अपेक्षित है इसी से यह संभव है। आशा है राष्ट्रनिर्माण के इस महत्वपूर्ण कार्य मे शोध-संस्थान को अवश्य ही पूर्ण सहयोग मिलेगा।
उदयपुर विद्यापीठ सरस्वती मन्दिर, ) प्राचीन साहित्य शोध-संस्थान, कार्तिक कृष्णा ७, २००४ वि०
पुरुषोत्तम मेनारिया
सञ्चालक
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प्रस्तावना भारतीय वाङ्मय बहुत ही विशाल एवं विविधतापूर्ण है । अध्यात्मप्रधान भारत में भौतिक विज्ञान ने भी जो आश्चर्यजनक उन्नति की थी उसकी गवाही उपलब्ध प्राचीन साहित्य भली प्रकार से दे रहा है । यहाँ के मनीषियो ने जीवनोपयोगी प्रत्येक विषय पर गंभीरता से विचार एवं अन्वेषण किया और वे भावी जनता के लिये उसका निचोड़ ग्रन्थो के रूप मे सुरक्षित कर गये । उस अमर वाङ्मय का गुणगान करके गौरवानुभूति करने मात्र का अब समय नहीं है। समय का तकाजा है-उसे भली भाँति अन्वेषण कर शीघ्र ही प्रकाश में लाया जाय । पर खेद के साथ लिखना पड़ता है कि हमारे गुणी पूर्वजों की अनुपम एवं अनमोल धरोहर के हम सच्चे अधिकारी नहीं बन सके । हमारे उस अमृतोपम वाङमय का अन्वेषण एवं अनुशीलन पाश्चात्य विद्वानो ने गत शताब्दी मे जितनी तत्परता एवं उत्साह के साथ किया हमने उसके एकाधिकारी-ठेकेदार कहलाने पर भी उसके शतांश में भी नहीं किया, इससे अधिक परिताप का विषय हो ही क्या सकता है ? जिन अनमोल ग्रन्थों को हमारे पूर्वज बड़ी श्राशा एवं उत्साह के साथ, हम उनके ज्ञानधन से लाभान्वित होते रहे-इसी पवित्र उद्देश्य से बड़े कठिन परिश्रम से रच एवं लिखकर हमें सौंप गये थे, हमने उन रत्नों को पहिचाना नहीं । वे नष्ट होते गये व होते जा रहे हैं तो भी उसकी भी सुधि तक नहीं ली ! किसी माई के लाल ने उसकी ओर नजर की तो वह उसे व्यर्थ का भार प्रतीत हुआ और कौड़ियों के मौल पराये हाथों सौंप दिया । सुधि नहीं लेने के कारण जल एवं उदेई ने उसका विनाश कर डाला । कई व्यक्तियो ने उन ग्रन्थो को फाडफाड़ कर पुड़ियां बांध कर लेखे लगा दिया । कहना होगा कि इनसे तो वे अच्छे रहे जिन्होंने अल्प मूल्य मे ही सही बेच डाला, जिससे अधिकारी व्यक्ति आज भी उनसे लाभ उठा रहे हैं। जिन्होंने पैसा देकर खरीदा है वे उसे संभालेंगे तो सही । हमें तो पूर्वजों के श्रम का मूल्य नही, पैसे का मूल्य है, अतः विना पैसे प्राप्त चीज को कदर भी कैसे करते ?
भारतीय साहित्य की विशेषता एवं उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए लाहोर निवासी पं० राधाकृष्ण के प्रस्ताव को सं० १८९८ मे स्वीकार कर भारत सरकार ने
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उसके अन्वेषण एवं संग्रह की ओर ध्यान दिया । फलतः हजारों ग्रन्थों की लक्षाधिक प्रतियो का पता लग चुका है । डॉ० कीलहान, बूलर, पीटर्सन, भांडारकर, बर्नेल, राजेन्द्रलाल मित्र, हरप्रसाद शास्त्री आदि की खोज रिपोर्टों एवं सूचीपत्रों को देखने से हमारे पूर्वजो की मेधा पर आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता । डा० आफेक्ट ने 'कैटेलोगस कैटेलोगरम' के तीन भागों को तैयार कर भारतीय साहित्य की अनमोल सेवा की है । उसके पश्चात् और भी अनेक खोज रिपोटें एवं सूचीपत्र प्रकाशित हो चुके है जिनके आधार से मद्रास युनिवर्सिटी ने नया 'कैटेलोगस कैटेलोगरम' प्रकाशित करने की आयोजना की है । खोज का काम अब दिनोंदिन प्रगति पर है अतः निकट भविष्य में हमारी जानकारी वहुत बढ़ जायगी, यह निर्विवाद है। हिन्दी भाषा का विकास एवं उसका साहित्य
प्रकृति के अटल नियमानुसार सब समय भाषा एकसी नहीं रहती, उसमे परिवर्तन होता ही रहता है। वेदो की आर्ष भाषा से पिछली संस्कृत का ही मिलान कीजिये यही सत्य सन्मुख अायगा। इसी प्रकार प्राकृत अपभ्रंश में परिणत हुई और आगे चलकर वह कई धाराओं में प्रवाहित हो चली । वि० सं० ८३५ मे जैनाचार्य दाक्षिण्यचिन्हसूरि ने जालोर में रचित 'कुवलयमाला' मे ऐसी ही १८ भाषाओं का निर्देश करते हुए १६ प्रान्तो की भापाओं के उदाहरण उपस्थित किये हैं । मेरे नम्रमतानुसार हिन्दी आदि प्रान्तीय भाषाओं के विकास को जानने के लिये यह सर्वप्रथम महत्वपूर्ण निर्देश है । हिन्दी भाषा की उत्पत्ति पर विचार करते हुए कुवलयमाला में निर्दिष्ट मध्यदेश की भापा से उसका उद्गम हुआ ज्ञात होता है । ९ वी शताब्दी मे मध्य देश में बोले जाने वाले 'तेरे मेरे आउ" शब्द ११७० वर्प होजाने पर भी आज हिन्दी में उसी रूप मे व्यवहृत पाये जाते हैं। १४ वी शताब्दी के सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री निनप्रभसूरि या उनके समय के रचित गुर्जरी, मालवी, पूर्वी और मरहठी भाषा की वाली नामक कृति उपलब्ध है उससे हिन्दी का सम्बन्ध पूर्वी के ही अधिक निकट ज्ञात होता है । अनूप संस्कृत पुस्तकालय मे "नव वोली छंद' नामक रचना प्राप्त है
-पुरातत्वान्वेपण का आरंभ सन् १७७४ के १४ जनवरी को सर विलीयम जोन्स के एशियाटिक सोसायटी की स्थापना से शुरु होता है।
- इसके सम्बन्ध में सुनि जिनविजयजी का "पुरातत्व संशोधन नो पूर्व इतिहास" नियंघ द्रष्टव्य है जो आयविद्याव्याख्यानमाला में प्रकाशित है।
२-देखें अपनश काव्यत्रयी ५० ९१ से ९४ । ३- राजस्थानी, वर्प ३ मंक ३ में प्रकाशित ।
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उससे भी हिन्दी का सम्बन्ध दिल्ली एवं पूर्व की बोली से ही सिद्ध होता है अर्थात् हिन्दी मूलतः मध्यदेश एवं पूर्व के ओर की भाषा है।
__ मध्यप्रदेश भारत का हृदय स्थानीय होने से साधु सन्तो ने यहाँ की भाषा में अपनी वाणियाँ प्रचारित की । वे लोग सर्वत्र घूमते रहते है अतः उनके द्वारा हिन्दी का सर्वत्र प्रचार होने लगा । इसके पश्चात् मुसलमानी शासको ने दिल्ली को भारतवर्ष की राजधानी बनाया अतः उसकी आसपास की बोली को प्रोत्साहन मिलना स्वाभाविक ही था। इधर ब्रजमंडल जो कि भगवान कृष्ण की लीलाभूमि होने के कारण, हिन्दुओ का तीर्थधाम होने से एवं राजपूताना उसका निकटवर्ती प्रदेश होने के कारण ब्रजभाषा का प्रचार राजस्थान में दिनोंदिन बढ़ने लगा। महाकवि सूरदास आदि का साहित्य
और वल्लभसम्प्रदाय के राजस्थान मे फैल जाने से भी ब्रजभाषा के प्रचार में बहुत कुछ मदद मिली। राजपूत नरेशों ने हिन्दी के कवियो को बहुत प्रोत्साहन दिया। ब्रज के अनेक कवियो को राजस्थान के राजदरवारो में आश्रय मिला। फलतः सैकडों कवियो के हजारो हिन्दी ग्रन्थ राजस्थान मे रचे गये। अन्यत्र रचित उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थो की प्रतिलिपियें कराकर भी राजस्थान में विशाल संख्या में संग्रह की गई जिसका आभास राजस्थान के विविध राजकीय संग्रहालयों एवं जैनज्ञान भंडारों आदि मे प्राप्त विशाल हिन्दी साहित्य से मिल जाता है।
वैसे तो हिन्दी का विकास ८ वीं शताब्दी से माना जाता है और नाथपंथीयोगियों और जैन विद्वानो के विपुल अपभ्रंश काव्यों से उसका घनिष्ट सम्बन्ध है पर हिन्दी भाषा का निखरा हुआ रूप खुसरो की कविता में नजर आता है । यद्यपि उनकी रचनाओ की प्राचीन प्रति प्राप्त हुए बिना उनकी भाषा का रूप ठीक क्या था, नही कहा जासकता । उसके पश्चात् सबसे अधिक प्रेरणा कबीर के विशाल साहित्य से मिली है। नूरक चंदा-मृगावती, पद्मावत आदि कतिपय प्रेमाख्यानो से १५ वी १६ वीं शताब्दी के हिन्दी भाषा के रूप का पता चलता है पर इसका उन्नतकाल १७ वीं शताब्दी है । सम्राट अकबर के शान्तिपूर्ण शासन का हिन्दी के प्रचार मे बहुत बड़ा हाथ रहा है । वास्तव मे इसी समय हिन्दी की जड़ सुदृढ़ रूप से जम गई और आगे चलकर यह पौधा बहुत फला फूला । हिन्दी ने अपनी अन्य सब भाषाओ को पीछे छोड़ कर जो अभ्युदय लाभ किया वह सचमुच आश्चर्यजनक एवं गौरवास्पद है।
१-सरहप्पा, कण्हपा, गौरक्षपा, आदि नाथपंथी योगी एवं जैन कवियों के रचना के उदाहरण देखने के लिये 'हिन्दी काव्य धारा' ग्रन्थ का अवलोकन करना चाहिये ।
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१७ वीं और १८ वी शताब्दी में हिन्दी के अनेक सुकवियों का प्रादुर्भाव हुश्रा जिनके ललित कान्यों ने इसकी सुख्याति सर्वत्र प्रचारित करदी। इधर राजसभाओं में इन कवियों द्वारा हिन्दी की प्रतिष्ठा बढ़ी उधर कबीर, सूर के पदों एवं तुलसीदासजी की रामायण ने जनसाधारण मे हिन्दी की धूम सी मचादी फलतः इसका साहित्य इतना समृद्ध, विशाल एवं विविधतापूर्ण पाया जाता है कि अन्य कोई भी भाषा इसकी तुलना में नही खड़ी हो सकती। हिन्दी साहित्य की शोध
___प्राचीन हिन्दी साहित्य की विशालता की ओर ध्यान देते हुए नागरीप्रचारिणी सभा ने सर्वप्रथम हिन्दी ग्रन्थो के विवरण संग्रह करने की उपयोगिता पर ध्यान दिया । सभा ने सन् १८९८ तक तो एशियाटिक सोसायटी एवं संयुक्त प्रदेश की सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित किया पर वह विशेष फलप्रद नही होने से १८९९ मे प्रान्तीय सरकार का ध्यान आकृष्ट किया । उसने ४००) रु० वार्पिक सहायता देना व रिपोर्ट अपने खर्च से प्रकाशित करना स्वीकार किया। यह सहायता बढ़त-बढ़ते दो हजार तक जा पहुंची । इस प्रकार सन् १९०० से लगाकर ४७ वर्ष होगये । निरन्तर खोज होते रहने पर भी हिन्दी भाषा का अभी आधा साहित्य भी हमारी जानकारी मे नही आया । अनेक स्थान तो अभी ऐसे रह गये है जहाँ अभीतक विलकुल अन्वेषण नहीं हो पाया । राजपूताने को ही लीजिये इसमे अनेक रियासतें है और बहुतसे राज्यो में कई राजा बड़े विद्याप्रेमी हो गये हैं । उनके आश्रय एवं प्रोत्साहन से बहुत बड़े हिन्दी साहित्य का निर्माण हुआ है पर उनमे से जोधपुर आदि के राज्य-पुस्तकालयों के कुछ ग्रन्थों को छोड़ प्रायः सभी ग्रन्थ अभीतक अन्वेषक की बाट जो रहे हैं । जहॉतक मुझे ज्ञात है इसकी ओर सर्वप्रथम लक्ष्य देने वाले अन्वेषक मुंशी देवीप्रसादजी हैं। आपने 'राज रसनामृत', 'कविरत्नमाला', महिलामृदुवाणी' आदि मे राजस्थान के हिन्दी १-खेद है कि सरकार ने कुछ रिपोर्ट प्रकाशित करने के पश्चात् कई वर्षों से प्रकाशन
बंद कर दिया है। प्रकाशित सब रिपोर्ट अब प्राप्त भी नहीं। अतः आजतक की खोज से प्राप्त हिन्दी ग्रंथा के विवरणो की संग्रहसूची प्रकाशित होनी अत्यावश्यक है। नागरी प्रचारिणी सभा के हस्तलिखित हिन्दी पुस्तकों का संक्षिप्त विवरण (१९४३ तक का ) प्रकाशन प्रारंभ किया था वह भी अधूरा ही पड़ा है। सभा को टसे शीध्र ही प्रकाश में लाना चाहिये ताकि भावी अन्वेषकों को कौन-कौनसे कवियों एवं ग्रंथों का पता आजतक लग चुका है जानने में सुगमता उपस्थित हो। 'हिन्दी पुस्तक साहित्य' ग्रन्थ से जिस प्रकार मुदित 'हिन्दी पुस्तको' की आवश्यक जानकारी प्राप्त होती है उसी ढंग से प्राचीन ग्रन्यों के सम्बन्ध में भी एक ग्रन्थ प्रकाशित होना चाहिये।
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कवियों को प्रकाश में लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। सं० १९६८ में द्वितीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के कार्य-विवरण (दूसरे भाग ) में आपका 'राजपूताने में हिन्दी पुस्तकों की खोज' शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ है जिसमें ३३८ हिन्दी ग्रन्थो की अक्षरादि क्रम-सूची दी गई है। उसमें आपने यह भी लिखा है-सूचियो की कई जिल्दें बन गई है। श्री मोतीलालजी मेनारिया ने भी आपके ८०० कवियो की सूची मिश्रबन्धुओं को भेजने एवं उनमे २०० नवीन कवियों के निर्देश होने का उल्लेख किया है अत: उन जिल्दो को उनके वंशजो से प्राप्त कर प्रकाशित करना परमावश्यक है । उससे बहुतसी नवीन जानकारी प्रकाश मे आने की संभावना है ।
राजस्थान ने अपनी स्वतंत्र भाषा होने पर भी एवं उसमे विपुल साहित्य की रचना करने पर भी हिन्दी भाषा की जो महान सेवा की है वह विशेष रूप से उल्लेखनीय है। स्व० सूर्यनारायणजी पारीक ने १. राजस्थान की हिन्दी सेवा, २. राजस्थान के राजाओ की हिन्दी सेवा, ३. राजस्थान की हिन्दी कवि-कवयित्रीयें आदि विस्तृत लेखो द्वारा इस पर प्रकाश डाला था' पर राजस्थान में हिन्दी ग्रन्थो की हजारो प्रतिये हैं अतः ऐसे प्रयत्न निरन्तर होते रहने वांछनीय हैं । छुटकर प्रयत्नो से विशेष सफलता नहीं मिल सकती । यहां तो वर्षों तक निरंतर खोज चालू रखने का प्रयत्न करना होगा। नागरी प्रचारिणी सभा की भांति दो तीन वेतनभोगी व्यक्ति रखकर राजकीय प्रसिद्ध संग्रहालयों, पुराने खानदानो, विद्याप्रेमी घरानो, जैन उपासको, साधु सन्तो के मठो मे
और गांव-गांव मे, घर-घर मे घूम फिर कर तलाश करनी होगी। क्योकि बहुत से ग्रन्थ ऐसे हैं जिनकी अन्य प्रतिलिपिये नही हो पायी उनकी प्राप्ति कवि के आश्रयदाता या वंशजों के पास ही हो सकती है । कई व्यक्ति आज बहुत हीन दशा मे है पर उनके पूर्वज बड़े विद्वान् व विद्याप्रेमी हो गये। उनके पास पूर्वजो के संग्रहीत अनेको दुर्लभग्रन्थ प्राप्त हो सकेंगे। बीकानेर, जोधपुर, जयपुर, अलवर, बूंदी आदि अनेको राजकीय संग्रहालयों के अतिरिक्त दो महत्वपूर्ण संग्रह भी राजस्थान मे है वे है-विद्याविभाग कांकरोली और पुरोहित हरीनारायणजी जयपुर के संग्रहालय । इन सव संग्रहालयो की खोज रिपोर्ट अति शीघ्र प्रकाशित होनी चाहिये। प्रस्तुत ग्रंथ का संकलन
उदयपुर विद्यापीठ ने राजस्थान मे हिन्दी ग्रन्थो की शोध का परमावश्यक कार्य १-राजस्थान के आधुनिक हिन्दी विद्वानो के सम्बन्ध में राजस्थान के हिन्दी साहित्यकार'
नामक ग्रन्थ देखना चाहिये जो कि हिन्दी परिषद्, जयपुर से प्रकाशित है।
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हाथ में लेकर बहुत ही सराहनीय कार्य किया है। इसकी ओर से श्री मोतीलालजी मेनारिया एम० ए० के .संग्रहीत एवं सम्पादित "राजस्थान मे हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज का प्रथम भाग सन् १९४२ में प्रकाशित हो चुका है । उदयपुर विद्यापीठ के शोध-संस्थान द्वारा यह कार्य मुझे भी सोपा गया और मैं अपना कार्य शीघ्रता से सम्पन्न कर सकू इसके लिए सहायतार्थ श्री पुरुषोत्तमजी मेनारिया साहित्यरत्न भी कुछ समय बाद बीकानेर आ गये । वहुतसे ग्रन्थों के नोट्स मैंने पहले ले ही रखे थे। उनके आने से वह कार्य पूरे वेग से चलाया गया और दस बारह दिनों में ही कुल मिलाकर एक भाग की जगह दो भागों के योग्य विवरण संग्रहीत होगये अतः उनका विषय-वर्गीकरण करके करीब आधे विवरण प्रस्तुत ग्रन्थ मे दूसरे भाग के रूप मे प्रकाशित करने का निश्चय कर लिया तदनुसार यह ग्रन्थ पाठकों की सेवा मे उपस्थित है।
विवरण लेते समय पहले तो सभी हिन्दी ग्रन्थों का विवरण लिया जाना सोचा गया था, पर जब मैने अपने संग्रह को ही टटोला तो छोटे बड़े ५०० के करीब हिन्दी ग्रन्थ उपलब्ध हुए अतः मैंने यही उचित समझा कि अभीतक हिन्दी जगत् में अज्ञात ग्रन्थ ही सैकड़ों उपलब्ध हैं और उनमे से बहुतसे विविध दृष्टियो से महत्वपूर्ण हैं अत: उनका विवरण ही पहले प्रकाश मे आना चाहिये अन्यथा पूर्व ज्ञात ग्रन्थों का परिचय प्रकाशित करने से व्यर्थ ही समय शक्ति एवं द्रव्य अर्थ का अपव्यय होगा और संभव है अज्ञात ग्रन्थों के प्रकाश मे लाने का मौका ही नहीं मिले जो बहुत अन्याय होगा। वीकानेर में अनूप संस्कृत लाइब्रेरी नामक राजकीय संग्रहालय भी बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । उसमें विविध विषयों के महत्वपूर्ण ग्रन्थो की १२ हजार प्रतियें हैं जिनमे हिन्दी ग्रन्थो की प्रतिये भी १ हजार के लगभग हैं । अत: अद्यावधि अज्ञात ग्रन्थों के ही विवरण संग्रहीत करने पर कई भाग होजाने संभव हैं । इन सब बातो पर विचार करके दो भाग के उपयुक्त विवरण ले लिये जाने पर उस कार्य को स्थगित कर दिया गया एवं काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित हिन्दी पुस्तको का संनित विवरण से चेक कर जिनका विवरण उसमे आगया था उन्हें अलग निकालकर ३५०-४०० अज्ञात ग्रन्थो के विवरण' हिन्दी विद्यापीठ शोध-संस्थान के सञ्चालक श्री १-जिनमें से १८६ ग्रन्थो के विवरण प्रस्तुत ग्रन्ध में प्रकाशित हो रहे हैं । अवशिष्ट विवरणों
में : पुराण उपनिपढ़, २ संत साहित्य, ३ कृष्ण कान्य, ४ वेदान्त, ५ नीति, ६ जैन साहित्य, ७ शतक, ८ बावनी, ९ फुटकर इन विपयो के ग्रन्थो के विवरण चौथे भाग में प्रकाशित होंगे।
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पुरुषोत्तमजी मेनारिया के सुपर्द कर दिये। मेरी हस्तलिपि बड़ी दुष्पाठ्य है और मेनारियाजी ने जो विवरण लिये वे भी बड़ी उतावली मे लिये थे अतः प्रेस कापी करने करवाने का श्रम भी मेनारियाजी ने ही उठाया। विवरण लिखने की पद्धति--
प्रस्तुत ग्रन्थ में विवरण संग्रह की पद्धति मे आपको कई नवीनताएं प्रतीत होंगी अतः उनके सम्बन्ध में स्पष्टीकरण करदेना आवश्यक है । प्राचीन हस्तलिखित प्रतियो के अवलोकन एवं सूची बनाने में मेरी अत्यधिक अभिरुचि रही है। मेरे साहित्य साधना के १८ वर्ष बहुत कुछ इसी कार्य में बीते हैं। पाश्चात्य एवं भारतीय अनेक विद्वानों के सम्पादित पचासों सूचीपत्रो (जितने भी अधिक मुझे ज्ञात हुए व मिल सके) को देखा एवं ४० हजार के लगभग प्रतियो की सूची तो मैने स्वयं बनाई है अतः उसके यन्किचित् अनुभव के बल पर मुझे प्रचलित पद्धति में कुछ सुधार करना
आवश्यक प्रतीत हुआ। मेरे नम्र मतानुसार विवरण मे अपनी ओर से कम से कम लिखकर ग्रन्थकार, ग्रन्थ एवं प्रति के सम्बन्ध मे प्राप्त प्रति से ही आवश्यक उद्धरण अधिक रूप में लिया जाना ज्यादा अच्छा है । पाठको को बतलाने योग्य जो कुछ समझा जाता है वह ग्रन्थकार के शब्दो ही में रखा जाय तो उसकी प्रमाणिकता बहुत बढ़ जायगी। विवरण लिखने वालों की जरासी असावधानी या भूल-भ्रान्ति से परवर्ती पचासो ग्रन्थ उस भूल के शिकार हो जाते मैने स्वयं देखा है क्योंकि उसको प्रमाण माने बिना काम चलता नहीं और उसके अनुकरण मे जितने भी व्यक्ति लिखेंगे सभी उसी भ्रान्ति को दुहराते जायेंगे। मौलिक अन्वेषण व जाँच कर लिखने वाले हैं कितने ? अतः मैंने ग्रन्थ के उद्धरण अधिक प्रमाण में लिये हैं और अपनी. ओर से कुछ भी नहीं या कम से कम लिखने की नीति बरती है। ग्रन्थ का नाम, अन्धकार उनका जितना भी परिचय ग्रन्थ में है, ग्रन्थ का रचनाकाल, ग्रन्थ रचने का आधार आदि ज्ञातव्य जिस ग्रन्थ में संक्षेप या विस्तार से जितना मिला विवरण में ले लिया है जिससे प्रत्येक व्यक्ति ऊपर निर्दिष्ट मेरे लिखतसार को स्वयं जांचकर निर्णय कर सके । जहाँतक हो सका है ग्रन्थ के पद्यों की संख्या का भी निर्देश कर दिया है। अपनी निर्धारितनीति को मैं सर्वत्र नहीं बरत सका, इसका कारण है विवरण तैयार करते समय सब प्रतियों का सामने न होना । कई संग्रहालयो के वर्षों पहले एवं उतावल मे नोट्स कर लिये गये थे और विवरण तैयार करते समय प्रतिये सामने न थी। अतः पूर्वकालीन नोट्स का ही उपयोग कर संतोष करना पड़ा। प्रति के लेखनकाल के सम्बन्ध
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में भी मैंने अपने अनुभव का उपयोग किया है। जिन प्रतियों में लेखन संवत् नहीं था उनका कागज एवं लिखावट आदि के आधार से अनुमानित शताब्दी लिखदी गई है जिससे प्रति की प्राचीनता एवं ग्रन्थकार के अनिर्दिष्ट समय का भी कुछ अनुमान लगाया जा सके।
विवरण लेने की प्रस्तुत पद्धति में जैन साहित्य महारथी स्व० मोहनलाल देशाई . के जैनगुर्जर कविओ से भी मैं बहुत प्रभावित हूँ। प्रस्तुत ग्रन्थ की कतिपय विशेषताएं--
प्रस्तुत ग्रन्थ की दो विशेषताओं (अज्ञात ग्रन्थों का ही विवरण लेना एवं आवश्यक ज्ञातव्य को ग्रन्थकार के शब्दों में ही अधिक से अधिक रखना) का ऊपर निर्देश किया जा चुका है। इनके अतिरिक्त तीन विशेषतायें और भी हैं जो पूर्व प्रकाशित विवरण ग्रन्थो से तुलना करने पर महत्व की प्रतीत होगी उनका भी संक्षेप मे उल्लेख कर देना आवश्यक समझता हूँ।
(१) अन्य सव हिन्दी ग्रन्थों के विवरणग्रन्थों से भिन्न इसमें एक-एक विषय के अधिक से अधिक अन्नात ग्रन्थो का विवरण संग्रहीत किया गया है और उनका विषय वर्गीकरण कर दिया गया है । इसमें मेरा प्रधान लक्ष्य यह रहा है कि अभी तक हमारे हिंदी साहित्य का अनुशीलन विषयवर्गीकरण की दृष्टि से नहीं किया गया। इसके बिना हमारे साहित्य की समृद्धता एवं उपयोगिता का उचित मूल्याङ्कन नहीं हो सकता। श्रीयुत डॉ० रामकुमार वर्मा के हिन्दी साहित्य के आलोचनात्मक इतिहास के प्रारंभ में कतिपय विषयों के हिन्दीग्रन्थो की तालिका दी गई है पर वह बहुत ही सीमित एवं अपूर्ण है । मेरी राय मे जिस प्रकार विविध धाराओ की आलोचना की जा रही है उसी प्रकार प्रत्येक विषय के जितने भी ग्रन्थ, हिन्दी साहित्य मे हैं उन सब का अध्ययन कर किस कवि में क्या विशेषता थी ? किन-किन नवीन वातो को कवि ने अपनी अनुभूति के बलपर नवीन रूप में या नवीन शैली से प्रतिपादित किया, किसने किनकिन ग्रन्थो से प्रेरणा ली, अनुकरण किया, किन-किन विषयो पर वर्तमान जगत
आगे बढ़ चुका है या पीछे रह गया है, उस साहित्य का विकास कवसे व कैसे हुआ ? इत्यादि उम विपय सम्बन्धी जितने भी तथ्यों पर विचार किया जा सके करके प्रकाश डाला जाय, इससे महत्वपूर्ण ग्रन्थो का पता चलेगा, वे प्रकाशित किये जाकर हमारी ज्ञानवृद्धि करेंगे। हमारे विद्वानों का ध्यान आकर्पित करने के लिये मैंने छंद', फोप, रत्नपरीक्षा, संगीत, वैद्यक श्रादि विषयो एवं शतक, वावनी, गजल आदि
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प्रकारों के हिन्दी साहित्य के सम्बन्ध में कई लेख प्रकाशित किये हैं। उनसे स्पष्ट है कि किन-किन विषयों के कितने ग्रन्थो का अभी तक पता चल चुका था और उस विषय के मुझे प्राप्त अज्ञात ग्रन्थ कितने हैं। मेरे उन लेखो से पाठक स्वयं समझ सकेंगे कि प्रस्तुत विवरणी द्वारा किस-किस विषय के नवीन ग्रन्थ किस परिमाण मे प्रकाश मे आये हैं।
(२) प्रस्तुत विवरण मे कतिपय ऐसे विषय एवं ग्रन्थों के विवरण है जो हिन्दी साहित्य के इतिहास मे एक नवीन जानकारी उपस्थित करते हैं जैसे नगर-वर्णनात्मक गजल-साहित्य । ऐसी एक भी रचना अभी तक किसी विवरण में प्राप्त नहींहुई एवं ये सभी गजलें जैनकवियो की रचित है ( एक आबूगजल जैनेतर-रचित है। वह भी जैन गजलो की प्रेरणा पाकर ही रची गयी ज्ञात होती है ) । एवं हिन्दी ग्रन्थो की टीकाएँ विभाग मे हिन्दी ग्रन्थो पर तीन संस्कृत टीकाएँ एवं एक राजस्थानी टीका का विवरण आया है। अभी तक हिन्दी ग्रन्थो पर संस्कृत मे टीकायें रची जाने की जानकारी शायद यहाँ पहली ही बार दी गई है।
(३) अन्य विवरण-ग्रन्थो में राजस्थानी लोकभाषा व साहित्यिक भाषा डिगल और गुजराती आदि के ग्रन्थो को भी हिन्दी के अंतर्गत मानकर उनका सम्मिलित विवरण दिया गया है। मेरी राय मे राजस्थानी भाषा एक स्वतंत्र भाषा है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से उसका मेल हिन्दी की अपेक्षा गुजराती से ज्यादा है। अतः मैंने राजस्थानी बोल-चाल की भाषा (जिसमे जैन कवियों ने बहुत विशाल साहित्य निर्माण किया एवं वार्ता ख्यात आदि गद्य रचनाओ मे तथा लोक साहित्य में जो अधिक रूप से व्यवहृत हुई है ) एवं साहित्यिक (चारण-बारहठ प्रभृति रचित गीत आदि ) डिगल भाषा के ग्रन्थो के विवरण स्वतंत्र ग्रन्थ मे लेने की योजना बनाई है और प्रस्तुत विवरण मे हिन्दीप्रधान ( मिश्रित राजस्थानी ग्रन्थों को सम्मिलित [पृष्ठ ८ की अन्तिम लाइन के-छन्द', संगीत२, वैद्यक, बावनी४ का फुटनोट यहाँ देखें ]
१. देखें, सम्मेलनपत्रिका, माघ-चैन का अंक । विविध विषयक जैन ग्रन्थों के सम्बन्ध में इसी पत्रिका के वर्ष २८ अंक ११ में लेख प्रकाशित है।
२. कोष-नाममाला, रत्नपरीक्षा और संगीतविषयक ग्रन्थों की सूची राजस्थान साहित्य वर्ष १ अंक १-२-४ में प्रकाशित की गयी है जो कि राजस्थान हिन्दी साहित्य सम्मेलन से प्रकाशित है।
३. हिन्दुस्तानी वर्ष ११ अंक २ ।
४. शतक और बावनी के सम्बन्ध मे मधुकर वर्ष ५ अंक १५.१९ में प्रकाश डाला गया है। गजलसाहित्य मुनि कान्तिसागरजी शीघ्र ही प्रकाशित कर रहे हैं।
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करने के कारण ) ग्रन्थों के ही विवरण लिये गये हैं। प्रारंभिक खोज के समय हिन्दी ग्रन्थों की इतनी अधिक उपलब्धि नहीं हुई थी अतः अन्य प्रान्तीय भाषाओं के विवरण भी उन्हें हिन्दी की शाखा मानकर साथ ले लिये गये, वह अनुचित नहीं था। पर अब जव हिन्दी के ही हजारो ग्रन्थों का पता चल चुका व चल रहा है, अन्य भाषा के साहित्य को भी साथ में निभाये जाना भारी पड़ जाता है। राजस्थानी ग्रन्थो का विवरण-ग्रन्थ स्वतंत्र रूप से प्रकाशित किया जायगा एवं उसके साहित्य का इतिहास भी प्रकाशित करने का मेरा विचार है ।
कवि-परिचय में भी समस्त कवियों का यथाज्ञात संक्षिप्त परिचय दिया गया है एवं परिशिष्टत्रय में अज्ञातकर्तृक ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार और अपूर्ण प्राप्त ग्रन्थों की सूची देदी गई है।
अब इस ग्रन्थ की कुछ अन्य आवश्यक बातों का परिचय भी करा दिया जाता है जिससे सरसरी तौर से ग्रन्थ के सम्बन्ध में जानकारी हो जाय
(१) प्रस्तुत ग्रन्थ १२ विभागों में विभक्त है जिनके नाम एवं विवरण लिये गये ग्रन्थो की संख्या इस प्रकार है
विषय . पृष्ठ ग्रन्थ १. (क) नाममाला (कोष) पृ० १ से ८ १० २. (ख) छंद
पृ०९ से १४ (ग) अलंकार - पृ० १५ से ३७ ४. (घ) वैद्यक
पृ० ३८ से ५४ (ड) रत्नपरीक्षा पृ० ५५ से ६० ६. (च) संगीत
पृ०६१ से ६८ ७. (छ) नाटक
पृ० ६९ से ७० ८. (ज) कथा
पृ०७१ से ९१ ९. (म) ऐ० काव्य पृ० ९२ से ९८ १०. (ब) नगर-वर्णन पृ० ९९ से ११६ ३२ ११. () शकुन सामुद्रिक' ज्योतिप,
स्वरोदय, रमल, इन्द्रजालपृ० ११७ से १३४ २८ १२. (ड) हिन्दी ग्रन्थों की टीकायें पृ० १३५ से १४० ४
ग्रन्थ
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। इनमें से मिश्र-बन्धु-विनोद' देखने पर १, ख्वालेकवारी २ लखपत जस सधु और ३, चम्पूसमुद्र तीन ग्रन्थो का उल्लेख उसमें प्राप्त होता महा अवशेषरट३ ग्रन्थ उसमें अनिर्दिष्ट है।
(२) जैसा कि कविनामानुक्रमणिका से स्पष्ट है इसमें १०२ कवियों की १३८ रचनाओं का विवरण है। इनका परिचय कविपरिचय मे दिया गया है। इसमें से मिश्र-बन्धु-विनोद' में २० कवियों का उल्लेख है। कई अन्य कवियों के भी नाम वहाँ मिलते है पर वे विवरणोक्त ही है या समनाम वाले भिन्न कवि हैं, यह निश्चय करने का साधन नहीं है । मेनारियाजी के ग्रन्थ में जान एवं गणेशदास दो कवियों का उल्लेख आ चुका है। प्रायः ८० कवि इस ग्रन्थ द्वारा ही सर्व प्रथम प्रकाश में आ रहे हैं। ४८ रचनायें अज्ञातकर्तृक है जिनकी सूची परिशिष्ट में दे दी गयी है। .
(३) इस विवरणी में जिन-जिन पुस्तकालयो की प्रतियों का उपयोग किया गया है उनका भी उल्लेख कर देना यहाँ आवश्यक है। इनमें से सबसे अधिक विवरण (१) अभय जैन ग्रन्थालय ( जो कि हमारा निजी संग्रह है ) तत्पश्चात् अनूप संस्कृत लायब्रेरी (बीकानेर का राजकीय पुस्तकालय ) के हैं। इनके अतिरिक्त (३) बृहत् ज्ञान भंडार ( खरतरगच्छीय बड़ा उपासरे मे स्थित ) जिसके अंतर्गत महिमा भक्ति भंडार, दानसागर भंडार, वर्द्धमान भंडार, जिनहर्षसूरि भंडार आदि भी आजाते हैं (४) श्री जिन चारित्र सूरि ज्ञान भंडार (५) जयचन्द्रजी ज्ञान भंडार (६) आचार्य शाखा भंडार (७) पन्नीबाइ उपासरा का संग्रह (८) गोविन्द पुस्तकालय (९) लछीरामयति संग्रह (१०) राव गोपाल सिहजी वैद का संग्रह (११) कविराज सुखदानजी का संग्रह (१२) विनय सागरजीका संग्रह (हमारे यही है) (१३) नवल नाथजी बगीची । ये तो बीकानेर में ही हैं । बाहर के संग्रहालयो में (१४) श्रीचंद्रजी गधैया संग्रह, सरदार शहर (१५) सीताराम शर्मा राजगढ़ (१६) यतिवयं ऋद्धि करणजी का संग्रह, चुरु, ये बीकानेर रियासत में है। (१७) यति विष्णुदयालजी का संग्रह फतेपुर, जयपुर रियासत में है । (१८) जिनभद्र सूरि
___-मिश्र-बन्धु-विनोद मे सैकड़ों भूल-भ्रान्तिये हैं जिसका परिमार्जन प्रस्तुत ग्रन्थ के कवि-परिचय में किया गया है। मैंने अपने "मिश्र-बन्धु-विनोद की भही भूले" शीर्पक लेख में इस सम्बन्ध में विशेष रूप से प्रकाश डाला है जो कि नागरी प्रचारिणी पत्रिका में शीघ्र ही प्रकाशित होगा।
२-नं० १ से ९ और १४ - १६ संग्रहालयों के, सम्बन्ध में मेरा "यीकानेर के जैन ज्ञानभंडार" शीर्षक निबंध देखना चाहिये जो कि 'घरदा' में प्रकाशित हो चुका है।
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भंडार (१९) वृद्धिचंद्रजी यति संग्रह (२०) चुन्नी संग्रह, ये तीन जैसलमेर में हैं। (२१)हरि सागर सूरि भंडार, लोहावट जोधपुर रियासत में है । इन इक्कीस संग्रहालयों की प्रतियों का विवरण है । प्रसंगवश विवरण लिये गये ग्रन्थों की अन्य प्रतियाँ जो राजस्थान के बाहर के संग्रहालयों में भी ज्ञात हैं उन पांच संग्रहालयों (१) दि० जैन मन्दिर देहली, सेठ कुञ्चेवाली गली में अवस्थित (२) भांडारकर रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना (३) नकोदर जैन-ज्ञानभंडार पंजाब (४) गुलाब कुमारी लायब्रेरी कलकत्ता (५) साहित्यालंकार मुनि कान्ति सागरजी संग्रह का भी उल्लेख किया गया है । प्राभार
___ कोई भी साहित्यिक कार्य प्रायः अनेक व्यक्तियों के सहयोग से ही सम्पन्न होता है। अतः जिन-जिन महानुभावों का सहाय प्राप्त हो उनके प्रति कृतज्ञता प्रकाश करना
आवश्यक हो जाता है। प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाश में आने के निमित्तभूत एवं सुविधा देकर कार्य में सुगमता एवं शीघ्रता करने के लिये श्रीजनार्दनरायजी नागर, बीकानेर पधार कर कई दिन लगातार मेरे साथ श्रम उठाकर विवरण-संग्रहमें सहायता एवं प्रेसकोपी तैयार करने-करवाने के लिये श्रीपुरुषोत्तमजी मेनारिया और विषय-वर्गीकरण आदि कार्यों में सत्परामर्श देने एवं प्रफ संशोधन में सहायता करने के लिये माननीय स्वामी नरोत्तमदासजी का मैं बड़ा अभारी हूँ। सबसे अधिक आभार तो जिन संग्रहालयों की प्रतियों का विवरण लिया गया है उनके संचालकों का मानना आवश्यक है जिनकी कृपा के विना यह ग्रन्थ संकलित हो ही नहीं सकता था। उन संचालकों में से श्री अनूप संस्कृत लायब्रेरी की प्रतियों के यथावश्यक नोट्स लेने की आज्ञा एवं सुविधा देने के लिये डायरेक्टर शिक्षाविभाग राज श्री बीकानेर, एवं क्यूरेटर महोदय का विशेष रूप से कृतज्ञ हूँ।
प्रस्तावना में कुछ अधिक लिखने का विचार था । जिन-जिन विषयो के ग्रन्थों का विवरण प्रस्तुत ग्रन्थ में दिया गया है उन सभी विषयों के अद्यावधि प्राप्त समस्त ग्रन्थो की सूची एवं उनके विकास और हिन्दी साहित्य पर अन्य प्रासंगिक विचार प्रकट करने का विचार था पर ग्रन्थ को रोके रहना उचित नहीं समझ अत्यंत संक्षेप में समाप्त की जा रही है। समय ने साथ दिया तो मेरे सम्पादित आगामी भागों के प्रकाशन के समय विस्तार से प्रकाश डालने की भावना है। वीकानेर
-अगरचन्द नाहटा (१)-जैसलमेर के ज्ञान भंडारों एवं वहाँ के अज्ञात ग्रन्थों के सम्बन्ध में मेरे निम्नोक्त दो
लेख प्रकाशित हैं :-( क ) जैसलमेर: के भंडारों की कुछ ताड़पत्रीय अज्ञात प्रतिय (प्र. अनेकान्त घर्प ८ अंक १), (ख ) जैसलमेर के भंडारों के अन्यत्र अप्राप्त ग्रन्थ (प्र. जैन साहित्य प्रकाध वर्ष ११ अंक ४)।
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कवि नामानुक्रमणिका १. अभयराम सनाढ्य १६ २७. जगजीवन ७० २. आनन्दराम कायस्थ १४
२८. जगन्नाथ २६ ३. उदैचंद १५,१०९
२९. जटमल ७६,१०५,११३ ४. उदैराज ३५
३०. जयतराम १२८ ५. उस्तत ६१
३१. जयधर्म १२३ ६. कर्णनृपति १९
३२. जर्नादन भट्ट २२ ७. कल्याण १०२,११४
३३. जान १८,२७,३३,४९,५५,७१,७९, ८. कल्ह ९६
८४,९०,९४,९७ ९. किसनदास ९७
३४. जोगीदास ५० १०. कुंवर कुशल ३४
३५. टीकम ७३ ११ कृष्णदत्त ११९
३६. तत्वकुमार ५७ १२. कृष्णदास ५६
३७. दयालदास ९८ १३. कृष्णानंद ४३
३८. दरवेश हकीम ४५ १४. केशरी ( कवि ) ३३
३९. दलपति मिश्र ९५ १५. खेतल १००,१०३
४० दीपचंद ४५ १६. खुसरो ४
४१. दीपविजय १०९,११५ १७. गनपति ८८
४२. दुर्गादास ११२ १८. गुलाबविजय १०१,१०३ . ४३. दूलह २३ १९. गुलाबसिंह ३६
४४. देवहर्प १०५,१०७ २०. गोपाल लाहोरी २९
४५. धर्मसी ४३ २१. घनस्याम २३
४६. नगराज १२५ २२. चतुरदास २०
४७. निहाल ११० २३. चिदानंद १२९
४८. नंदराम १७ २४. चेतनविजय ३,१३,७३
४९. परमानंद १३६ २५. चेलो ९९
५०. प्रेम २५ २६. चैनसुख ५४
५१. वगसीराम लालस १९
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५२. बद्रीदास ७ ५३. भगतदास ८६ ५४. भक्तिविजय ११०,११३ ५५, भीखजन ६ ५६. भूधर मिश्र ६६ ५७. भूप ११८ ५८. मनरूपविजय १०२,१०६,१०८,
११२,११६. ५९. मयाराम १३० ६०. मलूकचंद ५३ ६१. महमदशाहि ६७ ६२, महासिह १ ६३. मान २५ ६४. मान (२) ३७,३९,४० ६५. (मुनि ) माल (दे०) ८५ ६६. मुरलीधर ११ ६७. मेघ (राज) १२१ ६८. रघुनाथ ५ ६९. रत्नशेखर ५७ ७०. रसपुंज ११ ७१. रामचन्द्र (१) ४४,५१,१२४ ७२. रामचन्द्र (२) ५९ ७३. रायचन्द्र ११७ ७४. लछीराम २१,६२ ७२. लक्ष्मीचन्द्र ९९ ७६. लक्ष्मीवल्लभ ४१,४७
७७, लालचंद १३२ ७८. लालदास ३४ ७९, वल्लभ १३० ८०. विजयराम ८७. ८१. विनयसागर २
८२. वैकुंठदास १३१ । ८३. शिवराम ७५
८४. श्रीपति १५ ८५. सतीदास व्यास ३१ ८६. समरथ ४८,१३७ ८७. स्वरूपदास १४ ८८. सागर २,५,६२ ८९. सुखदेव ९२ ९०. सुबुद्धि ३ ९१. सूरत मिश्र १० ९२. सूरदत्त ३०० ९३. हरिदास ९२ ९४. हरिवल्लभ ६९ ९५. हरिवंश ३२ ९६. हृदयराम २७ ९७. हीरचन्द्र ६३ ९८. हेम १०४,१११ ९९. हेमसागर ९ १००. क्षमाकल्याण ७१ १०१. त्रिलोकचन्द्र ११८ १०२. ज्ञानसार १२,१०८
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ग्रन्थनामानुक्रमणिका
अतिसारनिदान ३८ अनुप्रास कथन १५ अनूप रसाल १५ अनूप शृङ्गार १६ अनेकार्थनाममाला १२ अनेकार्थी २ अमरबतीसी ९२ अलसमेदिनी १७ अवयदी शुकनावली ११७ आगरा गजल ९९ आत्मबोधनाममाला३ आबूगजल ९९ आरम्भ नाममाला ३ श्रांवलासार ४३ अंबड चरित्र ७१ इन्द्रजाल १२६, १२७, १२८ इन्दोर गजल १०० उदयपुर गजल १०० कथा मोहिनी ७१ कविवल्लभ १८ कविविनोद ४० कविविनोद ११९ कविप्रमोद ३९ कवीन्द्रचंद्रिका ९२ कापरड़ा गजल १०१ कायम रासो ९४
कालज्ञान ४१ . काव्यप्रबन्ध १९ कीर्तिलता टीका १३५ कुतबदीन साहिजादा वात ७२ कृष्ण चरित्र १९ केशवी भाषा ११८ ख्वालक वारी ४ गजशास्त्र ४२ गिरनार गजल १०२
" जूनागढ़ गजल १०२ चितौड़ गजल १०३ चित्रविलास २० चंद्रहंस कथा ७३ चंपूसमूद्र ११८ छंदमालिका ९ छंदसार १० छंदोहृदय-प्रकाश ११ ज्योतिषसार भाषा ११९ जसवंत उदोत ९५ जोधपुर गजल १०३, १०४, १०५ जंबू चरित्र ७३, ७४ झिंगोर गजल १०५ डीसा गजल ५ डंभक्रिया ४३ तुरकी शकुनावलि ११९ दशकुमार प्रबोध ७५
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दिल्लीराज वंशावलि ९६,९७ दीवान अलिफखाँ की पैड़ी ९७ दुर्गसिह शृङ्गार २२ दूलह विनोद २३ दंपतिरंग २१ धनजी नाममाला ५ नखसिख १३, २३, २४ नागोर गजल १०६ नाड़ी परीक्षा ४४ निजोपाय ४४ पाटण गजल १०७ पालीनगर वर्णन १०७ पासाकेवली १२० पाहन परीक्षा ५५ पूर्वदेशवर्णन १०८ पोरवंदरवर्णन १०८ पंवारवंशदर्पण ९८ प्रदीपिका नाममाला ५. प्रबोधचंद्रोदय ६९, ७० प्रस्तार-प्रभाकर ११ प्राणसुख वैद्यक ४५ प्रेममंजरी २४ प्रेमविलास चौपई ७६ बड़ौदा गजल १०९ बहिली मां री वात ७८ घारह भुवन विचार १२० घालतन्त्र भापा टीका ४५ बिहारी सतसइ टीका १३६ धीकानेर गजल १०९ घीरवल पातसाह की बात ८६
वुधसागर ७९ बंगाल गजल ११० भारती नाममाला ६ भावनगर गजल ११०, १११ भाषाकवि रसमंजरी २५ मनोहर मंजरी २६ मरोट गजल ११२ माधवनिदान भाषा ४७ मानमंजरी ७ मालकांगिनीकल्प ४७ माला पिंगल १२ मूत्रपरीक्षा ४७ मेघमाल १२१ मेड़तावर्णन ११३ मेदनीपुरवर्णन ११३ मैनाका सत ८१ मोजदीन महताब की बात ८२ मंगलोर वर्णन १११ योगप्रदीपिका १२८ रत्नपरीक्षा ५६, ५७, ५९ रतिभूषण २६ रमल प्रश्न १२८ रमल शकुन विचार १२२ रसकोप ३३ रसतरंगिनी २७ रसमंजरी ४८ रसराज २७ रसविलास २९ रसिक आराम ३१ रसिकप्रियाटीका १३७
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रसिकमंजरी ३२
शनीसर कथा ८७, ८९ रसिकविलास ३३
शिखनखटीका १४० रसिकहुलास ३०
शीघ्रबोध वचनिका १२३ रागमाला ६१, ६२, ६३, ६४, ६५, ६६ ।। श्रीपालरास ८८ रागमंजरी २६
सकुन प्रदीप १२३ रागविचार ६१
सतश्लोकी भाषा टीका ५४ लखपति जससिधु ३४
स्वरोदय १२९, १३०, १३१, १३२ लघुपिगल १३
स्वरोदयविचार १३३ लाहोर गजल ११३
सामुद्रिक १२४, १२५ लैला मजनू ८४, ८५
साहित्य महोदधि ३६ वचनविनोद १४
सांडेरा छंद ११४ विक्रम पंचदंडकथा ८५
सिद्धाचल गजल ११४ विक्रमविलास ३४
सूरत गजल ११५ वृत्तिबोध १४
सोजत गजल ११६ वेदक मति ४९
संगीतमालिका ६७ 'वैद्यक सार ५०
संयोग द्वात्रिशिका ३७ वैद्य विनोद ५१
हनुमान नाटक ७० वैद्यविरहिणी प्रबन्ध ३५
हरिप्रकाश ५४ वैद्यहुलास ५३
हिय हुलास ६८ वैतालपचीसी ८६
ज्ञानदीप ९०
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राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित
ग्रन्थों की रकोज
(द्वितीय भाग)
(क) कोष-ग्रन्थ (१) अनेकार्थ नाममाला । पद्य १२० । रचयिता-महासिह । रचनासंवत
१७६०
भादिप्रारंभ का एक पत्र खो जाने से ७॥ पद्य नहीं हैं । ९ वाँ पद्य इस प्रकार है
अग्नि धनंजय कहते कवि, पवन धनंजय माहि । भर्जुन बहुर्यो धनंजय, कृष्ण सारथी जाहि ॥ ९ ॥
अंत--
जो इह भनेकार्य को, पढे सुने नर कोइ । ताके अनेका अर्थ इह, पुनि परमारथ होइ । मो मनु निसु दिनु तुम वसो, सदा भिखारीदास ।
महासिंह तुम जीय जीयत, मो मन क्रो निवास ॥ २० ॥ लेखन-सं० १७६० ज्येष्ठ मासे कृष्णपक्षे १२ शनौ। पातसाहि श्री मनिविनोदात् अवरंगजेब राज्ये लि० पांडे महासिह ।
अमर आदि कोस जु धन, तिनि कोस तु इहां लीन ।
महासिंह कवि यों भनें, अनेकार्थ यह कीन ॥ प्रति-गुटकाकार पत्र १४ । पंक्ति १४-१५ । प्रति पंक्ति अक्षर १२-१६ । साइज ५||४८1-1
(अभय जैन ग्रन्थालय)
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[ २ ] (२) अनेकार्थ नाममाला । पद्य १६९ । विनयसागर । सं० १७०२ कार्तिक पूर्णिमा, गुरुवार ।
मादिदूहो धन दीरघ ३, लघु ४२ अक्षर ४५
सदय हृदय गुन गन भरन, भभरन ऋषभ जिनंद । भव भय दुह दुहग हरहि, सुखवर करन दिनंद ॥ १ ॥
x
अनेकारथ अनेक विधि, प्रबल बुद्धि प्रकाश ।
शास्त्र समूह सोधि कई, विरचित विनय विलास ॥ ४ ॥ अंत.
धर्म पाटि कल्यान गुर, अंचलगण सिणगार । विनयसागर इयूं वदे, भनेकार्थ अधिकार ।।१८।। सतरसहि बिडोतरे, कार्तिक मास निधान ।
पूनमि दिन गुरुवासरे, पूरण एहि प्रधान ॥ १९ ॥ इति श्री विनयसागरोपाध्याय विरचितायां दूहा बद्धानेकार्थनाममालायां तृतीयाधिकार संपूर्णः।
लेखनकाल–१८ वीं शताब्दी । प्रति-पत्र १२ । पंक्ति ११ । अक्षर ३५ ।
(प्रति-भंडारकर रिसर्च इन्स्टीट्यट पूना, प्रतिलिपि अभय जैन ग्रन्थालय) (३) अनेकार्थी । पद्य ६० । सागर मादिसारंग सन्द नाम
कमल कुरंग मराल ससि, पावस कुसुमअनंग। चातिक केहर दीप पिक, हेम राग सारंग ॥ १ ॥
अंत
पिता सुपुत्र हित ग्यांन मन, रति कोतक हित काम ।
रसना पट-रस म्वाद हित, पंच सुनो रस नाम ॥ ६० ॥ इति अनेकार्थी मागर कृत । लेग्वन काल-२९ वीं शताब्दी। प्रति-गुटकाकार वडा साइज ।
(अनुप संस्कृत पुस्तकालय)
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(४) आतमबोध नाममाला । पद्य २७३ । चेतनविजय । सं० १८४७ माघ शुक्ला १०॥
भादिअथ नाममाला लिख्यते ।
* दोहासिद्ध सरभ(सर्व)चित धारि के, प्रणमुं सारद पाय । मुझ ऊपर कीजै कृपा, मेधा दीजै माय ॥ १ ॥ गुरु उपगारी जगत मे, जानें सब संसार । चरन क्मल संसार के, वंदो बारमवार ॥२॥ भाषा आतम बोध की, रचना रचौ सुदाम । बहुत वस्तु है जगत में, तिनको कहूँ वखान ॥ ३ ॥
अंत
इह शुद्ध भातमबोधमाला, किये रचना नाम को । सुभ कुसुम मेधा सरस गुंथ्यौ, हिय धर इह दाम को ।। अति महक आवै, ग्यान पावै, चतुरता उपजे सही। चित चेत चेतन समझ लीज, नाम जग सोभा नही ।। २७१ ।। इक अष्ट चार अरु सात धरिये, माघ सुद दसमी रची। इह साख विक्रमराज का है, चित्त धार लीजे कची ।। इह नासमाला भति विसाला, कठ धारे जे नरा ।
बहु बुद्धि पजै हिय माहि, ज्ञान जग में है खरा ।। ७३ ॥ इति श्री आतमबोध नाममाला समाप्तं । लेखनकाल-लिपिका ऋ. भज्जू सं० १९२३ । प्रति - पत्र १८ । पंक्ति २२ । अक्षर ५० । साइज १०४४।।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (५) आरंभ नाममाला । सुबुद्धि । आदि
आदि गुरुन गुरु शिष कर, जियदाता जगपाल । पावन पतित उधार अरु, दीनानाथ दयाल ॥१॥ X
X अमर ग्रन्थ मैं जे कहे, सुने लहे करि शुद्ध । कछु उपजाये अर्थ सों, नए नांउ निज बुद्ध ॥ ५ ॥
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[ ४ ] सापा सहिमा अधिक है, दिन २ गुन अधिकाहि । मृतक जीवत संन्न सों, तुहो तो भापा माहि ।। ९ ।।
जे कवित्त भाषा पढ़ें, जोरत भाषा शुद्ध । तिनके समुशन को इते, वरने विविध सुबुद्ध ।। १३ ।।
x
अंत
सूरजसुत जम जगतअरि, जियनिपात कर जान ।
शिष्टभखी निर्दई अयुनि, रवितन जोपरि बान ।। पद्य ६७ के बाद पद्यांक नहीं दिये । लेखनकाल-१८ वी शताब्दी प्रति-पत्र १४ । पंक्ति ११ से १४ । अक्षर ३६ से ४८ । विशेष-प्रति पर कर्ता का नाम · सुबुद्धि दिया गया है जिस का आधार अज्ञात है, केवल छंद ११-१३ में सुबुद्धि नाम आता है, पर वहां रचयिता के अर्थ मे नहीं प्रतीत होता । आदि अंत दोनो ही भाग नाममय है (आदि का करतार नाम, अंत का जम नाम) कविका परिचय, रचना-समय आदि का कोई पता नही चलता।
(जयचन्द्रजी भण्डार) (६ ) स्वालकबारी । पद्य १५४ ।
आदि
खालिवारी सिरजनहार । चाहद् एक बड़ा करतार ॥ १ ॥ इस्म अल्लाहु खुदायका नांउ । गरमा धूप सायह हइ छांउ ॥ २ ॥ रसूल पड़गंवर जानि वसीठ | यार दोस्त घोलीजइ ईठ ॥ ३॥ राह तरीक सबील पहिछोनि । अरथ निहुँ का मारग जानि ॥ ४ ॥ ससियर मह दिणयर खुरसेद । काला उजला स्याह सफेद ॥ ५ ॥ नीला पीला जर्द कवृट । तांना चांना तनिस्तह पद ।। ६ ।।
संत
रखोहम् गुप्त कहूँगा ई, स्वाहम् करद करूंगा हूँ। एवाहम् आमद भाऊंगा है, म्वाहम् जिह मारूंगा हूँ। पाहम् गिम्न वठठ काहुँ, स्वाहम् शस्त चहठठ कातूं। चारमनी नो सिरजंन मेरा, जानमनी तो जीधरा मेरा ॥ ८३ ॥
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[ ५ तम तभामभु । ख्वालकबारी ।। लेखन-पं० अभयसोमेनालेखि ।। प्रति-पत्र २ । पंक्ति १७ । अक्षर ६० । साइज ९॥+४।
विशेष-प्रति मे ग्रन्थ दो विभागो मे लिखा हुआ है जिनमे क्रमशः ७१ और ८३ पद्य हैं । प्रथम विभाग का अन्तिम पद्य इस प्रकार है
तमन्ना वहम् आरजू चाह कहीयइ । इदो दस्त हाथों कदम पाउ गहियइ ।। ७ ।।
(अभयजैन ग्रन्थालय) (७) धनजी नाममाला । पद्य १४५ । सागर कवि आदि
दोहा पठ्या (पशु) पति सिव सुत ईस्वरी, कवलासन अरु संभु । करि प्रणान(म) सुभ देव को, सागर करहु अरंभु ॥ १ ॥ विश्नुनाम-विश्नु ना(न)रायण नरांपति वंनवाली हरि स्थांम । मधुसूदन अरु दैत्य रिपु, रावण- अरि श्रीराम ।। २ ॥
अंतअतरध्यांन नास-गुप्त तिरोहित अंतरित, गृड दुरूहनिलीय ।
लोकाजन मै लुकि सखी ईह बिधि तीय ।। ४५ ॥ इति श्री धनजी नाममाला सागर कृति समांपूर्ण। लेखनकाल–१९ वीं शताब्दी । प्रति-गुटकाकार बड़ा साइज । विविध कृतियो के साथ मे यह कृति है।
(अनूप सस्कृत लायब्रेरी)
(८) प्रदीपिका नाममाला । पद्य ३५५ । रघुनाथ । आदि
अविरल मद रेखा दिप, गनपति ललित कपोल । गंध लुब्ध मनु मगन है, पटपड करत कलोल ॥ १ ॥ हंस जान श्री सारदा, करत मधुर धुनि बीन । संत सकल सुरगन सदा, चरण कमल आधीन ॥ २ ॥ पानी घरन सकें नही, मन पहुंचे नहि ताहि । निराकार निरगुण जु है, सो सुर चे सुर आहि ॥ ३ ॥
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अव हौ वरनों शब्द निधि, पार होन की आस । चित विलास ग्घुनाथ कवि, नाना उकति प्रकास ॥ ४ ॥
अंत
विविध नाम रत्नावली, सुनत हर दुख दंद । कृत रघुनाथ प्रदीपिका, विष्णुदत्त के नंद ॥ ३५५ ॥
इति रघुनाथ विरचिता रत्नादिप्रदीपिका नाममाला सम्पूर्णम् । प्रति-पत्र २३ । पंक्ति ९ से १२ । अक्षर २७ से ३२ ।
____ (श्री जिन चारित्रसूरि संग्रह) (९) भारती नाममाला । पद्य ५२६ । भीखजन सं० १६८५ आश्विन शुक्ला पूर्णिमा, शुक्रवार । फतेहपुर ।
आदि
प्रथम निरंजन बंदि हौ, जगवंदन सुखकंद । दिन छिन दोछिन छिन जपे, अनदिन होत अनंद ।। १ ।।
राज ताहि राजत अवनि, कयों अन्य पुन चाहि ।। ८ ।।
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बागर सधि गुन आगरी, सुबस फतेहपुर गांव । चक्रवर्ति चहुवांन निरप, रान करत तिहां ठांव ।। १० ।। राज करत रस सो भयों, ज्यों जगतीपति इंद। अलिफखान नंदन नवल, दोलतिखान नरिंद ।। ११ ॥ दान क्रिपान सुजान पन, सकल कला संपूर । रवि विरंचि ऐसौ रच्यो, वचन रचन सति सूर ।।। १२ ।। ता नंदन बंदन जगत, गुन छंदनह निधान । कवि पंछी छाया रहे, तरवर ताहरखान ।। १३ ॥ अजा सिघ नित एकठां, धर्म गति आनंद । सकल लोक छाया रहे, घिनैराज हरिचंद ॥ १४ ।। तहां मुभग सोभा सरस, बसै बरन छत्तीस । तहां भीखजनु जानिके, इह मनि भई जत्तीस ॥ १५ ॥ नाममाल गुन सहसक्रिति, दुगम लखी जीय जांनि । इह टपजी जनु भीख जीय, रचि जु भापा आंनि ।। १६ ॥ मध्यो प्रन्य गुन सारदी, यानि लेउ नग सिंधु । पछुक और सुनि आन ते, रचौ जु दोहा बंध ।। १७ ।।
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तेरह मत्ता प्रथम पद, ग्यारह दुतिय करंति । तेरह ग्यारह साजि के, दोहा नाम धरंति ।। १८ ॥ सरस कला रस सो भरी, करो भीखजनु जांनि । धों नाव तिह भारथी, भाख्यो ग्रन्थ प्रधानि ॥ १९ ॥ सोलह सै पञ्चासिए, संवत इहे विचार । सेत पाखि राका तिथू, कवि दिन मास कुवार ॥ २० ॥
अंत
कथी भारथी भीखजनु, हित चित करि निज लेहुँ । जहां नाम पद पूरना, तहां समशि के लेहुं ॥ २५ ॥ संख्या सब गुन दोहरा, क्रित जनु भीख सुचेन । सत्रह उपरि पांचसै, भाठों कवित्त सहेत ॥ २६ ॥
इति भारती नाममाला समाप्ता । लेखनकाल - सं० १६९१ । काती सुदी १३ । श्री मुंझुण मध्ये । वा० ज्ञान मेरु शिष्य मुनि विमला लि चि० रंगसोम पठनार्थ । प्रति-पत्र २० । पंक्ति १४ । अक्षर ४८ ।
(श्री जिनचारित्र सूरि संग्रह)
(१०) मानमंजरी नाममाला । पद्य ११३ । बद्रीदास । आदिअथ मानमंजी लिख्यते
कवित्त अमल कमल पद प्रनति, प्रथम गुरुज (न) सुभ सुंदर, दरस सरस छवि कृष्ण, सरद राकेस बदन वर । करुणा सागर सुभग जगति, कारण लीला रचि, तिन के गोकुल ग्रेह ललित, गोपिन तन सग नचि । सहसक्रित नहिं कछु, सकति बिना को पचि मरे, यथा सुमति बगी सुखद, नाम दाम प्रगटें करें ॥ १ ॥
सोरठा बहु विधि नाम निहारि, भरथ अमर जु कोप के । सरब सभाउ विचारि, मान छदावति राधिका ॥ २ ॥
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[८]
मान के नाम
दप्पंक मद बदीदास
अहंकार, मान गर्भ मति छोह भरि । अधार, माननि को अभिमान सुभ ।। ३ ।।
अंत, जुगल के नाम
है जुग दहूँ जमल बीय, मिथुन अरु बिव उभै ।
नितही कीसोर जुगल, समरन बद्रीदास के ।। ११३ ॥ इति श्रीमानमंजरी संपूर्ण ॥
ले०-संवत् १७२५ वर्ष वैशाख वदि १२ दिने श्री जयतारिणी मध्ये लि० पं० श्री यशोलाभ गणिना वाच्यमाना चिर नंद्यात् ।
प्रति-पत्र १० । पंक्ति १५ । अक्षर ४० । साइज ९॥+४। । अक्षर सुन्दर हैं। किनारे से पत्र उदई द्वारा भक्षित होने से कुछ पाठ खंडित हो गया है।
(अभय जैन ग्रन्थालय)
man
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(ख ) छंद ग्रन्थ (१) छंद मालिका । पद्य १९४ । हेमसागर । सं० १७०६ हंसपुरी ।
आदि
अलख लख्यौ काहु' न परै, सब विधि करन प्रबीन । हेम सुमति वंदित चरन, घट घट अतर लीन ॥ १ ॥
x
कल्याणसागर गुरु मुनिराज वंदो । नामे करीहु भवसागर मान फंदो । गच्छाधिगज विधिपक्ष सरूप धारी । सोहें सदा विविध मार्ग परूपकारी ।। । ।
दोहा सुरत विंदर के निकट, नगर हंसपुर एक । लघु साजने तहां वमै, श्रावक वह सुविवेक ॥ ५॥ राखे पूजि चौमास तहि, सूरीश्वर कल्याण । सतरसे छीढोत्तरै, प्रगट्यो सुजश महान ॥ ६ ॥ हेम सुफवि चोमास में, छंद मालिका कीन । भादों वदि नौमी सरस, भाषा कवि हित लीन ॥ ७ ॥
अंत
सवत सत्तरसे ही वरप, पट ऊपरि जानो। हंसपुरी चोमासि, सूरि कल्याण बखानो । शांतिनाथ सुपसाय करी, छंदन की माला । सुकबि कट अति सोभ, सुगन सुभ वान विशाला । छंद जू इसी मुनि कहें, हेम सुकवि आनंद धरी । साह कूआ परवोध कुं, छंदमालिका में करी ॥ ५ ॥
इति उप्पय
१.-पाठान्नर-परत न कहूं ।
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[१०] इति श्री सत्यासी छंद समाप्त। पूज्य पुरंदर युग प्रधान श्री श्री कल्याणसागर सूरीश्वर विजयराज्ये शिष्य कवि श्री हेमसागर गणि कृते छदमालिका संपूर्ण ।
लेखनकाल-१८ वीं शताब्दी । प्रनि-१. छतीबाई उपाश्रय के संग्रह में, (प्रतिलिपि, अभयजन ग्रन्थालयमे )।
२. हरिसागर सूरि भंडार । पत्र १३, संवत् १७०७ लि० छंद ८५-२०७
३. जैसलमेर भंडार (२) छंदसार । पद्य २६७ । सृरत मिश्र । आदि अथ छंदसार लिख्यते--
सोरठा कृष्ण चरन चित आन, कहूँ सुमत पिगल कछु । जिहि त छंद हि जान, प्रभु गुन तामैं वरनिये ॥ ५ ॥
___ चौपाई प्रथमहि संख्या कम बताय, प्रस्तारहि सूची चितलाथ । पुन वहिष्ट नष्ट सुवखान, मेर पताका सर्कटि जान ॥ २ ॥
दोहा अष्ट कर्म ए मत्त के, पुनवर्तन के जान ।
इहि विधि षोडश कम ए, कहै सुकवि सुखदान ।। ३ ।। अंत-- रसीले रूप ागर विलासी सुख सागर, सुन्यो जू स्याम नागर इतै हूँ नै टरिये । मुवंसी के बजावत छबीली के रिझावन, सुवैइ चित्त भावन सुवेग परि हरिय। श्री वृन्दावन नाइक समस्त इछदायक, सुनै हो श्रवलायक बके सै धीर धरिये। अभंगी मैन मूरत न देखिय महरत, पुकारे द्वार सूरत कृपा की दृष्टि करिये ॥२३॥
छंद बंध जो वरहि तो, छंद बंध चितलाय ।
छद बंधि सब छाड़ के, नंद नंद गुन गाय ।। २२ ।। (१) प्रति-(१) हमारे संग्रह की प्रति अपूर्ण (पत्र १९ से २१ ) है अतः श्रांत का पद्म बृहत ज्ञान भंडार की प्रति से लिखा गया है।
(२) पत्र ३ । पंक्ति ५ । अक्षर २४ । माइज ७||४|| (३) पत्र १२ । पंनि १२ । अक्षर ५० । साइज १०x४||
( महिमाभक्ति-भंडार )
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[ ११ ] (३) छन्दो हृदयप्रकाश । मुरलीधर । सं० १७२३ कार्तिक शु० १५ ।
आदि
श्री विनती सुकोमिलि जो, लिखीकै गन भेद धरा भरिकै । छन्द भुजंगप्रयात बखानि, गो मत्त महोदधि को तरिके । नह उदिनि मेरु पताकनि, मक्कटि जालनि की धरिकै । भूषण सोई जगै जग में, फुनि पिगलु मगल को करिके ॥ १ ॥
अंत--
गहवर गुन पंडित कवि मडित रामकृष्ण कश्शप कुल पूषन । रामेसर ता तनय सुकवि जा जहिन निरखेड नेकु दूपन । मुरलीधरु तासुअनु सुपंचम देवीसिंघ कियउ कवि भूषन । 'छन्दोहृदयप्रकासु' रचउ तिन जगमगातु जिमि मीहरू मयखन ।। ८ ।।
समत सत्तरह सय वर्ष तेईस कातिक मास ।
पूनिव को पूरन भयो, छन्दो हृदय प्रकास ।। इति श्री पौलम्त्यवंशवारिजविकासनमार्तण्डगढादुर्गाधिराज्यलक्ष्मीरक्षणविचक्षणदोर्दण्ड चतुःषष्टिकलाविलासिनी भुजंगमहावीराधिवीर राजाधिराज श्री महाराज हृदयनारायणदेव प्रोत्साहित त्रिपाठी रामेश्वरात्मज मुरलीधर कवि भूषण विरचित छन्दो हृदयप्रकाशे गद्यविवरणनाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
लेखन--लिखितमिदं पुस्तकं त्रिपाठी संभुनाथेन सं० १७३० माघ सुदी ११ हरिधवलपुर ग्रामे समाप्त। प्रति-पत्र ४७ । पंक्ति १२ । अक्षर ३२ । साइज़ ९।४५॥
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय) (४) प्रस्तार प्रभाकर । पद्य ८९ । रसपुञ्ज । स० १८७१ चैत्र कृष्णा ५ गुरुवार । आदि
दोहा क्षासोहं यह मत पुरा, प्रभु से हुती सुहार । हर लोजो दाकार तिन, गोपी अम्बर हार ।।
भंत
संमत ससि' मुनि वसु मही', चन कृष्ण पछ सार ।
पंचमी गुरु पूरण भयो, प्रभाकर सु प्रस्तार ।। प्रति-गुटकाकार।
(कविराज सुखदानजी चारण के संग्रह में)
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[ १२ ] (५) माला पिंगल । पद्य १५३ । नानसार । सं० १८७६, फा० सु०९ ।
आदि
श्री अरिहंत सु सिद्ध पद, आचारज उवझाय । सरव लोक के साधु कुं, प्रणमूं श्री गुरुपाय ॥ १ ॥ प्राकृत ते भाषा करूं, सालापिंगल नाम । सुर्खे बोध बालक लहै, परसम को नहि काम ।। २ ।।
अंत
जंवूदी मेरु सस, भवर न को उतुंग । स्युं शरीर मय गछ सकल, खरतर गच्छ ठतमंग ।। १४७ ।। गीर्वाग् वाणी सारदा, मुख ते भई प्रगट्ट । यात खरतर गच्छ में, विद्या को आर्भट्ट ।। १५८ ॥ ताकै शिखा समान विभु, श्री जिनलाभ सुरीस। ज्ञानसार भाषा रची, रत्नराज गणि सीस ।। १४९ ।।
चौपाई
संवत काय फिर भय देय । प्रवचनमा ८ सिधसिल' लेय । फागुण नवमी उजल पक्ष । कीनौ रक्षण लक्ष विपक्ष ।। १५० ॥ रुपदीप ते बावन किए । वृतरत्न ते केते लिए । चिन्तामणि ते केई देख । रचना बीनी कवि मति पेख ।। १५१ ।। नहि प्रस्तार न कर उद्दिष्ट, मेरू मटी न कियौ नष्ट । आधुनकालो पंडित लोक, ग्रंथ कठिन लखि देहै धोक ॥ १५३ ।।
दोहा
हक्सो अठ नो सेर के, वृत्ति किए मतिमंद ।
यात या भाखियो, नामें माला छंद ।। १५२ ॥ इति श्री माला पिगल छंद संपूर्णम् । लेखनकाल–१९ वी शताब्दी। प्रति-पत्र १३ । पंनि १३ । अक्षर २७ से ३२ । साइज ९||४|| विगेप-प्रस्नुन छंद-ग्रन्थ मे ११० छंदा का वर्णन है । इसकी दो अपूर्ण प्रतियां भो हमारे संग्रह में हैं।
(अभय जैन ग्रन्थालय)
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[ १३ ] (६) लघु पिंगल । पद्य १११। चेतनविजय । सं० १८४७ पौष शुक्ला २ गुरुवार । बंगदेश।
आदिअथ लघु पिंगल भाषा लिख्यते
दोहा चरन कमल गुरुदेव के, बंदी शीश नवाय । लघुपिंगल भाषा करूं, सारद देहु बताय ।। १ ।। छाया बिन नही कर सके, पिंगल छद अपार । रूपदीप चिंतामणि, ए पिंगल मन धार ।। २ ।। चेतन लघुपिगल कहे, सुनियो वचन प्रमान । कवित्त छंद केइ जातके, जानें चतुर सुजान ।। ३ ।। लघु दीरघ गण गण है, अक्षर मत्त समान । चेतन बरनै ग्यान सुं, लघुपिगल गुन खान ।। ४ ।।
अत
रूपदीपक चितामणि, इन पिगल को देख । भाषा लघुपिंगल रची, कीन्हा सुगम विशेष ।। १०५ ।। छद व्यालिसे जात के, लघु पिगल मों जान । भणे गुणे कठे करै, उपजै बुद्वि निधान ॥ १०६ ।
ऋद्वि विजय पाचक गुरू, बहु आगम के जान । तस शिष्य लघु चेतन भये, जनमें बग सुथान ॥ १०९ ।। दिक्षा ले यात्रा किये, फिरि आए निज देश । संगत पायें साध की, मेटे सकल कलेश ॥ ११ ॥ चट' सिद्धप वेदा मुनि, मास पोप गुनखान ।
स्वेत बीज गुरुवार को, पूरे ग्रन्थ सुजान ।। १११ ।। इति लघु पिगल भाषा संपूर्ण । लेखनकाल-संवत १९२३ मिती श्रावन बद ७ मी । लिखते भज्जूलाल । प्रति-पत्र ११ । पं० २२ । अक्षर ५० । साइज़ १०x४||
(अभय जैन ग्रन्थालय)
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[ १४ ] (७) वचनविनाद । पद्म १२५ । आनन्दराम कायस्थ । सं० १६७९ लेखन | आदिपिगल भूपण दृषण कविन की जाति वर्णन् ।
राम सुमिरि गुरु सुमिरि करी, सुमिरि सवद अभिराम ।
रुचिर वचन रचना रचौ, कवि जन पूरण काम ॥ १ ॥ गुरु नुति दोहायुग्म ।
नमो कमल दल जमल पग, श्री तुलसी गुरु नाम । प्रगट जगत जानत सकल, जहां तुलसी तहां राम ।। २ ।। कासी वासी जगतगुरु, अविनासी नसलीन । हरि दासन दरसत सदा, जल समीप ज्यो मीन ।। ३ ।। अद्भुत वरननि वरनिका, करि करननि चित्तु लाइ । वरन वरन के भेद सब, वरनो प्रगट बनाइ ।। ४ ।। कवि कवित्त वरनत सकल, समुझति विरला लोइ ।।
भूपन गन दूपन लखे, निदू पन तब होइ ।। ५ ॥ अंत
ए भूपन दूपन समुनि, रचै जु कविजन छंद । ताहि पढ़त अति सुख बढ़त, श्रवन सुनत आनंद ।। १२४ ।। जब स्लग स्वर वसुधा सुधा, उदधि संगपति चंद ।
नव लगि अविचल ह्र रहो, वचनविनोद अनंद ।। १२५ ।। इति आनंदराय कायस्थ भटनागर हिमारि कृत वचन-विनोद समाप्त । लेखन-सं० १६७९ वर्प आसु सुदि ४ सनी लिखतं नागोर मध्ये तेजाकेन स्वाधीत्य । प्रति-पत्र ६ । पंक्ति १३ से १५ । अक्षर ४ । साइज़ ११४५ उदाहरण मे कइ दोहे शाहमहमद के रचित है
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय) (८) वृत्तिबोध । स्वरूपदास । सं० १८९८ माघ कृष्णा १ । सिवापुर । आदि
वृत्ति सब्द की छन्द की, तालवृत्ति जुन लोन । सुमगि जक कृन रचत हु, सुगम अन्य नवीन ।। १ ।। नृत्ति समुझ वो कठिन है, सजन देखहु सोध ।
म्वरूपदास विरचत सुगम, वाल पढ़े हुय बोध ।। २ ।। ऑन
संमत अष्टादस शतक, और अठाण मान ।
माघ कृष्ण पडिया भयो, अन्य मिवापुर थान ।। प्रनि-गुटकाकार।
• ( कविराज मुखतानजी चारण के संग्रह में )
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(ग) अलंकार ग्रंथ
(१) अनुप्रास कथन । पद्य ३० । श्रीपति ।
आदिअथ अनुप्रास कथनं लिख्यते
अनुप्रास सो जानिये, बरन साम्य जहं होइ । छेक लाट मिश्रित कहे, तीन भांति कवि लोह ॥ १ ॥ साम्य वर्ण जहं आदि मे, वहै छेक पहिचानि । एक स्लंड पद दूसरो, अरु समस्त अनुमानि ॥ २ ॥
अंत - दामनी नचत तम जामनी सचत व्रजपति बिन कामिनी तचत पंच बांन सौं । सीपति रसिक मन डोलत बयानि सीरी बोलति है क्केल धीरी परम सयांन सौं। धूमि धूमि धावै, चूंमि झूमि झुकि भावै, अंमि मि झरि लावै छवि धुरवांन सौं । नेसुक निहारे सिखि होत है सुखारे भारे विरही दुखारे होत कारे बदरांन सौं ॥३०॥
इति अनुप्रास कथनं संपृणे । प्रति-पत्र ३ । पंक्ति १२ । अक्षर ३६, । साइज १२४ ६.
(अनूप संरकृत पुस्तकालय) (२) अनूप रमाल । उदैचद । स० १७२८ आसोज शुक्ला १० । बीकानेर । आदि
जगमणि जगसिरि जगमगत, जगत जोति जगवंद । जगत चच्छ जग जय तिलक, वंदे चद अमद ॥ १ ॥
x
विक्रमपुर पनि कर्णसुत, श्री अनूप भूपाल । राजे गाजे बाजत, रसिक सिरोमनि माल ॥ ३ ॥
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[ १६ ]
ज्ञान अनूप अनूप गुण, भाग अनूप सरूप । दाम अनूप अनूप खग, राजे राज अनूप ॥ ४ ॥ ता हित चित करिफै रच्यो, अन्य अनूप रसाल । कवि कोकिक कुल सुख सदन, सरस मधुर सुविशाल ॥ ५ ॥
अंत--
संवत सत्तरैले अठइसे आसु सुदी दसमि कुज दीसें ।
श्री बीकापुर नगर सुहावा । तहां ग्रन्थ पूरणता पावा ॥ ३५ ॥ इति श्रीमन्महाराजा श्रीअनूपसिह विरचिते श्रीअनूपरसाले तृतीयः स्तवकः संपूर्णः। लेग्वनकाल-१८ वीं शताब्दी। प्रति-गुटकाकार । पत्र १३ । पंक्ति १७ । अक्षर ११ । साइज ६+९।। विशेष -प्रथम स्तवक पद्य ६१, नायिका वर्णन; द्वितीय स्तवक पद्य २०, नायक
वर्णन; तृतीय स्तवक पद्य ३५, अलंकार वर्णन । प्रति की प्रारंभिक सूची मे इसका कर्ता 'मथेन उदैचन्द कृत' लिखा है ।
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय) (३) अनूप श्रृंगार । अभयराम सनाढ्य । सं० १७५४ अगहने शुक्ला २
रविवार। आदि
गिरजासुत को समरिले, एक रदन मुख सोइ । प्रगट बुद्धि कवि को दई, भाषा कृत गुण होइ ॥ १ ॥
x
ब्रह्मा ते प्रगटित भये, भारद्वाज रिपराज । जिनके कवि-कुल में तहां, कोविद के सिरताज ।। ४२ ।। खांभ पदारथ चंद ये, जिन के केसवदास । मेरसाहि सब विधि भन्टे, भाषा चतुर निवास ।। ४३ ॥ अभैराम जिनकै भये, सब कवि ताके दास । रणथंभोर गढ़ की तनी, गांव वैहरना वास ॥ ४५ ॥ जाति सनावढ गोति करैया, अभैनाम हरि दीनों। जासो कृपा करि महाराजा, जब गिरथ यह कोनो ॥ ४५ ॥ सुनो कान बाचे यथा, दुख को काटणहार । नांव धों या अन्य को, यह अनृप शृङ्गार ।। ४६ ॥ कपा करि महाराज ने, बकस्यो बहुत बनाय । रोग हरै सब दुग्न गयो, नामु दियो कविराय ।। ४७ ॥
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[ १७ ] संवत सतरेसै चौपना, ग्रन्थ जन्म जग जानि । अगहिन सुदि का द्वैज यह, आदितवार बखानि ।। ४७ ।।
यह अनूप सिगार रस, सुनियो कहूँ सुनाइ ।
अछिर चूक्यो होइ जो, लीजो सुकवि बनाइ ॥ इति श्री महाराजाधिराज महाराज श्रीमदनूपसिंह देवस्थाज्ञा पांडे अभैराम विरचिते अनूप शृंगारे नायकावर्णनम् ।
लेखनकाल–१८ वीं शताब्दी। प्रति-गुटकाकार । पत्र ९५ । पंक्ति २१ । अक्षर १५ । साइज ६४१०
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय) (४) अलस मेदनी । पद्य । ११५, नंदराम । अनूपसिंह कारित ।
आदि
वन्दन करि उर ध्यान धरि, धाम जलद अभिराम । अलसमेदिनी सरस रस, करत सुकवि नंदराम ॥ १ ॥ विक्कमपुर नायक भये, रायसिह नर राज । एक मोज अगनित दये, जिन माते गजराज ॥ २ ॥ सूरसिह तिनके भये; मनो दूसरे सूर । जिनके तीछन तेज ते, दुरयो तिमिर सव दूर ॥ ३ ॥ बाके वांके अरिन के, गढ़ तोरे वर जोरि । कर्णसिंघ तिनके तनय, नय कोविद सिरमोरि ॥ ४ ॥ दान दया अरु जुद्ध यह, तीन भांति रस वीर । सो जान्यो नृप कर्ण अरु, भये भक्ति रस धीर ।। ५ ॥ चारि पुत्र नृप कण के, जेठे राव अनूप । तेग त्याग जीते जिनहु, सब देसन के भूप ॥ ६ ॥ विकमपुर बैठे तखत, करि जन मन आनंद । सुथिर राज तो लौं करौं, जौं लगि धरनी चंद ।। ७ ॥ मोजनि सों दारिद हरत, फोजनि रिपु कुल मूल । नन्दराम जाके सदा, हर धरिनी अनुकूल ॥ ८ ॥ नृप अनूप गुण रतन को, जलनिधि ज्यों आधार । तत्र गुनी सब देस के, सेवत हैं दरवार ॥ ९ ॥ नृप अनूप के हुकम ते, कोविद कवि नन्दराम । रस मन्थन को सार ले, करत ग्रन्ध अभिराम ।। १० ।।
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[ १८ ] अंत
बड़े ग्रन्थ देखन करें, जे आरस सुकुमार ।
तिनको हित नंदराम कवि, रच्यो नयो परकार ॥ ३३ ॥ इति श्रीमन्महाराजाधिराज अनूपसिह विरचितायामलसमोदिन्यामलंकार निरूपए नाम तृतीय प्रमोद संपूर्ण ।
लेखनकाल–१८ वी शताब्दी। प्रति-गुटकाकार । पत्र ११ । पंक्ति १८ । अक्षर १२ । साइज़ ६४९।। विशेष-नायिकावर्णन प्रथमग्रमोद पद्य ६४, नायकवर्णन द्वितीय प्रमोद पद्य १८, अलंकार वर्णन तृतीय प्रमोद पद्य ३३, कुल पद्य ११५ ।
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय) (५) कवि वल्लभ । कवि जान । साहजहां राज्ये । सं० १७०४
मादि
अगम अगोचर निरंजन, निराकार कर्तार । अविगत अविनासी अलख, निश्चय अपरंपार ।। १ ।।
रवि ससि धू आकास धर, पानी पवन पहार । तो लौ अविचल जान कहि, साहिजहां संसार ।। ८ ।। जौ रौ या संसार में, निसि दिन आवे जांहि । ती लौ अविचल राज सों, चगता जगती मांहि ।। ९ ।। कहत जान कवितान हितु, ग्रन्थ करी उच्चारु । अलंकार समुझाइहौं, अपनी मति अनुसार ॥ १० ॥ कवित करन की इच्छ जिहि, ताके आवत काम । याते राख्यो समुझि के, कवि वल्लभ यह नाम ॥ ११ ॥
अंत
साहिजहां जगपतिह दाइक, चैन की मैन सरूप सुहावै । वंस अक्चर सत्ति है लायक, वैन को ऐन सु सूर कहावै । मोहन मुरति अति है मोहत, माननि मान गुमानि मिटावै ।
जान अनुपम गत्ति है सोहन, कामनि प्रान ढइसि लगावै । इसके बाद कई चित्र-काव्य हैं। लग्बनकाल–१८ वी शताब्दी । प्रनि-गुटकाकार । पत्र ९६ । पंनि १८। अक्षर २२ । साइज़ ६४९॥
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय)
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[ १८ ] अंत
बड़े ग्रन्थ देखन करें, जे आरस सुकुमार ।
तिनको हित नंदराम कवि, रच्यो नयो परकार ॥ ३३ ॥ इति श्रीमन्महाराजाधिराज अनूपसिह विरचितायामलसमोदिन्यामलंकार निरूपण नाम तृतीय प्रमोद संपूर्ण।
लेखनकाल–१८ वी शताब्दी। प्रति-गुटकाकार । पत्र ११ । पंक्ति १८ । अक्षर १२ । साइज़ ६४९॥ विशेप-नायिकावर्णन प्रथमप्रमोद पद्य ६४, नायकवर्णन द्वितीय प्रमोद पद्य १८, अलंकार वर्णन तृतीय प्रमोद पद्य ३३, कुल पद्य ११५ ।
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय) (५) कवि वल्लभ । कवि जान । साहजहां राज्ये । सं० १७०४
आदि
अगम अगोचर निरंजन, निराकार कार । अविगत अविनासी अलख, निश्चय अपरंपार ॥ १ ॥
x
रवि ससि धू आकास धर, पानी पवन पहार । तो लो अविचल जान कहि, साहिजहां संसार ।। ८ ॥ जो लो या संसार में, निसि दिन आवे जांहि । तो लो अविचल राज सों, चगता जगती मांहि ॥९॥ कहत जान कवितान हितु, ग्रन्थ करी उच्चारु । अलंकार समुझाइहौं, अपनी मति अनुसार ॥ १० ॥ कवित करन की इच्छ जिदि, ताके आवत काम । यातं राज्यों समुझि के, कवि वल्लभ यह नाम || ११ ॥
अंत
साहिजहां जगपनिह दाइक, चैन की मैन सरूप सुहावै । यंस अक्बर सत्ति है लायक, वैन को ऐन सु सूर कहावै । मोहन मूरति अत्ति है मोहत, माननि मान गुमानि मिटावै।
जान अनुपम गत्ति है सोहन, कामनि प्रान ढइसि लगावै । इसके बाद कई चित्र-काव्य हैं। लन्यनकाल–१८ वी शताब्दी । प्रति-गुटकाकार । पत्र ९६। पक्ति १८ । अक्षर २२ । साइज़ ६४९।।
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय)
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लेखनकाल–१८ वी शताब्दी। प्रति-पत्र ७१ । पंक्ति ९ से १० । अक्षर २४ से २८ । साइज़ १०+५ विशेष-कर्ण भूपति रचित कृष्णचरित्र पर गद्य मे टीका है । ग्रन्थ मे अहं. कारो का वर्णन है।
(अनूप संस्कृत-पुस्तकालय) (८) चित्रविलास । पद्य १३१ । अमृतराइ भट्ट शिष्य चतुर्भुदासजी । सं० १७३६ का० शुक्ला ९ । लाहोर ।
आदि
छापय छंद सुंडा दंड भसूढ मंड, सिंदूर भूरवर । केसर गुड अलि झुंड लसै, शशि खंड भाल पर । मुकट चंड सुचंड गंड, मद झरन चलतच्चै । कुंडल करल अखंड चढ़े, जनु मारतंड द्वै। भुज दंडन नुर वल कंड अति, नवो खंड चंदत चरन । कटक विहंड सत खंड कर, लंबोदर संकट हरन ।। १ ।।
वानी पे वर पाइ के, पुन भाषा गुरु सब विध चतुर, जै
बदौ सिरनाइ । श्री अमृतराइ ॥ ३ ॥
बैठे हैं वहु मित्र मिल, कवि अमृत के धाम । तिन सबहिन मिल यों कहयो, रच्यो ग्रन्थ अभिराम ॥ ५ ॥
कुंडलिया
पंडित बड़े लाहोर में, अंत गुनन को नाहि । कछु ऐसी विध कीजिये, ज्यों सब मोहे जाहि । ज्यों सब मोहे जाहि, ग्रन्थ रचिये अति रुचकर । आगे भयो न होइ, और भाषा में सरवर । हो तुम चतुर सुजान, सबै विद्या गुनमंडित । की वहै उपाय, जाहि सुन रोझत पंडित ।। ६ ॥
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[ २१ ]
तिन की आज्ञा से भयो, कवि के चित्त हुलास । चतुरदास छत्री वहल, वरन्यो चित्र विलास ।। ७ ।। संवत् सत्रहसे वरष, बीते भधिक छतीस।। कार्तिक सुदि नवमी सु तिथ, वार चारु दिनईस ॥ ८ ॥ चौगत्ता को राज । राजत आदि जुगादिजग,..... । तिनके कुल सिरताज, अवरंग साह महाबली ॥९॥ तिनके सहर बड़े बड़े, अपनी अपनी ठौर । तिन सब में सवविध अधिक, नागर नगर लाहोर ॥ १० ॥
चित्र प्रकार अनंत गति, कहि भए कविराइ । कषि अमृत द्वे विध रचै, सभरन भरन बनाइ ।। १५ ।।
अत
चित्रजात अभरन भरे चित्र की वृत्त
कछु, वरनी अब, कहि
अमृतराइ । चतुरंग बनाइ ॥ १३१ ॥
इति श्री चित्रविलास ग्रन्थ अभरन, अमृतराय भट्ट कृत संपूर्णम् । लेखनकाल-१८ वीं शताब्दी । प्रति-पत्र ६ । पंक्ति १७ । अक्षर ४५ से ५०। विशेष-इसके आगे चित्र भरे वृत्त होने चाहिए थे पर वह खंड इसमे नही है।
कर्ता अमृतराइ भट्ट प्रति मे लिखा है पर प्रारंभ से चतुर्दास क्षत्री कर्ता ज्ञात होता है।
__(जयचन्द्रजी भंडार) (९) दंपतिरंग । पद्य ७३ । लछीराम । सं० १७०९ से पूर्व । आदि
अथ दंपतिरंग लिख्यते ।
दोहा करि प्रनाम मन वचन क्रम, गहि कविता को व्योहारु । प्रकृति पुरिष धरनन करूं, भधमोचन सुख सारु ।। १ ।। रसिक भगत कारन सदा, धरत अलख अवतार । काम्हकुंधर व नीर वन, प्रगट भये संसार ॥ २ ॥ जिहिं विधि नाइक नाइका, वरनै रिपिनि बनाइ । छीराम तिहि विधि कहत, सो कवियन की सिख पाइ ।। ३ ॥
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[ २२ ] अंत
सवैया जा तिय निसि द्यौसु रहे पति, सो तिय काहे कौं नेह कमे । घन बार छुटे ग अंजन ही, नतमोर विना मुख लाल हसे । सखि स्यांम महावरु पाइ दयो, सु विलोकि विलोकि विचारि रमै ।
मन आने नहीं वनिताजि बनी, सब ही के सिंगारनि देखि हसे ॥ ७३ ॥ इति सौन्दर्यगर्विता अरु प्रेम गर्विता कही ॥ इति श्री दंपतिरंग शृंगार अष्टनाइका भेद संपूर्ण।
लेखन-संवत् १७०९ का वैशाख सुदि ३ दिने श्री जगतारिणी मध्ये पं० चारित्र विजय लिखत वाचनार्थ दीर्घायु सक्त । भंडारी श्री कपूरचंद्रजी री पोथी उपरि लिखि आख्या तीज है दिन शुक्रवार । श्रीरस्तु।
प्रति-गुटकाकार । पत्र ६ (१४२ से १४७)। पंक्ति १९ । अक्षर ३८ । साइज ७||४५
(अभय जैन ग्रन्थालय) (१०) दुर्गसिंह शृंगार । जनार्दन भट्ट । सं० १७३५ । ज्येष्ठ शुक्ला ९ रविवार ।
आदि-~प्रथम के २३ पत्र नहीं है।
अंत
तिय तरवनि जावक लसे, सब सोभा आगार । नव पल्लव पकज मनों, दयो हारि निज सार ।। ३४३ ।। सत्सरेसे पैतीस सम्, जेठ शुक्क रविवार । तिथि नौमि पूर्ण भयो, दुर्गसिह शृङ्गार ॥ ३४४ ॥ छन्द अर्थ अक्षर कहूँ, भयो होइ जो हीन ।
लीज्यो सकल सुधारिकै, सो या मांझ प्रवीन ।। ३४५ ।। इति श्री गोस्वामी जनार्दन कृतः श्री दुर्गासिंह शृङ्गार संपूर्ण । श्री शुभमस्तु । श्रीरस्तु संख्या ९००।
लेखनकाल–१८ वीं शताब्दी । प्रति-पत्र २४ से ४६ । पंक्ति ९ । अक्षर ३८ । साइज १०४५ विशेष-प्रारम्भिक अंश मिलने पर संभव है दुर्गसिह के बारे में नई जानकारी प्राप्त हो।
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय)
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[ २३ ] (११) दूलह विनोद । दूलह ? आदिअथ दूलह विनोद लिख्यते
दोहरा अलख अमूरति अगम गति, कहत न जीभ समाय । अद्भुत अवगति जाह की, सो क्यों बरनी जाहि ॥ १ ॥
आदि जन्म सब एक है, अरु फुनि अंतहु एक । बौरें ते जग कहतु है, हिदू तुरक विवेक ॥ ६ ॥
मोहन रूप अनुप सि मूरति, भुप बलि विधि रूप सुधारो। तेग बली अरु त्याग बलि, अरु भाग्य बलि सिरताज संवारो। साहि सुजान विहान को भांन, जिहांन जान ओ नैननि तारो । साहिब आलम साहिन साहि, महम्मद साहि सुजा जगि प्यारो ॥१॥
अंत-अप्राप्त केवल प्रथम पत्र ही प्राप्त है। प्रति-पंक्ति १२ । अक्षर ३२ । साइज़ ९x४
(अभय जैन ग्रन्थालय) (१२) नखसिख । पद्य ६३ । घनश्याम । सं० १८०५ काती सुदी बुधवार
आदिअथ राधाजी को नखसिख वर्णनं लिख्यते । पुरोहित घनश्याम कृत ।
कवित्त छप्पय श्री वल्लभ नित समर, करत मति निरमल लायक । विट्टलेस प्रभु समर, सरन गत सदा सहायक । गोवद्धन धुर सुमिर, सकल ब्रज जुवती नायक । निज गुरु गिरिधर सुमिर, सदा मंगल बुधदायक । इन चरनन को अनुसरहु, हरदासन की हुवै सरन । राधा अदभुत् रूप तिहां, घनश्याम नखसिख वरन ॥ १ ॥
अंत
अष्टादश शत . पंचए, संवत् कातिक मास । सुकल पछि पद बुध दिवस, नख सिख भयो प्रकास ॥ ६१ ।।
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[ २४ ] विनुहि समझ वर्णन करयो, लघु दीरध सम साध । श्री वल्लभकुल को दास गनि, छमहु सु कवि अपराध ॥ ६२ ॥ श्री वल्लभ प्रभु सरन है, ज्ञान कयो सच पाय ।
घनस्याम अच्छर सबै, पीनो भव जदुराय ॥ ६३ ।। इति नखसिख वर्णन संपूर्ण।
लेखनकाल-सं० १८२८ माववदी १४ दिने वा० कुशलभक्ति गणी लिखतन सोचभद्रामध्ये । प्रति-गुटकाकार । पत्र ६ । क्ति १९ । अतर ३८ । माइज ९४५।।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (१३) नखसिख। आदिअथ नखसिख वर्णनम्
रसदायिनी दायिनी सरस, परस समोह सयान । विमल वदन वाणी विनय, नमन निरंतर दान ॥ १॥ रसिकनि हेतु सिंगार रस, नख सिख अंग विचार ।। निरुपम रुचि नव नागरी, ताके कहत सिंगार || २ ॥
अथांत्रिवर्णनम् कमल कुलीन किधु कूरम सुलीन जर जोर गति नीर निधि काम करि ठए हि । गति के करीश किधु मोहन मृणाल दल सायक कह पांचउ पुन्य पुरन के नए हि । पदमा के पीन नवनीत सुं सुधारे ढारे अमल अमोल छवि छाहेर रस दए हि । किधुपद युग नव तरुनी के राजतहि वाजने नूपुर गज गाह धरि लएहि ।। १॥
अंतपत्र ३ के बाद पत्र नहीं मिलने से ग्रन्थ अधूरा रह गया है। लेखनकाल–१८ वी शताब्दी का पूर्वार्द्ध प्रति–पत्र ३ । पंक्ति १३ से १४ । अक्षर ५० से ५७ । साइज १०॥४४॥
(अभय जैन ग्रन्थालय) (१४) नखशिख । सवैये ३० ।
आदिजीवन सरोवर के कोमल सिवाल सूल, काम तंतु नूल मखनूल कैपे तार हैं । पंच सर मिधुर के स्याह और किधौ मौर किवा सिरि सहज सिंगार रस सार हैं ।
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[२५] माथें मार मरकत मनि के मपूख, किधों धेरै चंद कौ तिमिर, परवार हैं। लामै लामैं जामैं जोति लता के वितान किधौं, किधौं स्यामवरन छवीले छूटे वार हैं ॥ १ ॥ ' , भंत-. . वीजुरी ताक, किधौं रतन सलाक किधौं, कोमल परम किधौं प्रीतिलता पी को है। रूप रस मंजरी कि मंजुल चपक दाम, किधौं कामदेव के अमर मूरि जी की है। चन्द्रकला सकलक मालिन कमल माल, जाके आगे लागति प्रदीप जोति फीकी है। दूजी सुर नर नाग पुरन बिरची रची, जैसी नखसिख अग राधिकाजू नीकी है ॥ ३० ॥
लेखनकाल–१८ वीं शताब्दी । प्रति-पत्र ३ । पंक्ति १६ से १८ । अक्षर ६६ से ४० । साइज ९४४
(श्री जिन चारित्र सूरि संग्रह) (१५) प्रेममंजरी । पद्य ९७ । प्रेम । सं० १७४० चैत्र सुदी १० सोमवार आदि- . ___मन वच करूं प्रणाम, प्रथमहि गुरु गोविन्द कुँ।
पूजै मन की काम, जिनकी कृपा सुदृष्टि से ।। १ ।। भंत
. सतरैसे , चालोतरा, चैत्र मास उजियार ।
अटकनि अटकहि लिख चुके, तिथि दसमी , शिववार ।। लेखन-संवत १७५४ अनुपसिह राज्ये कुंवर सरुपसिंह.चिरंजीयात् महाराज कुंवर आणंदसिहजी भाणेज जोरावरसिह सीसोदिया हजूर, मथेण राखेचा लि० आदणी गढे। प्रति-पत्र १४ ॐ
(खरतर आचार्य शाखा चुन्नी-भडार, जैसलमेर) (१६) भाषा कवि रस मंजरी । पद्य । १०७ । मान आदि
- ' सकल कलानिधि वादि गज, पंचानन परधान । , , -, श्री शिवनिधान पाठक चरण, प्रणमि वदे मुनि मान ॥ १ ॥
नव अंकुर जोवन भई, लाल मनोहर होइ ।
कोपि सरल भूपण ग्रहै, चेष्टा मुग्धा सोइ ॥ २ ॥ अंत
नारि नारि सबको कहै, किडं नाइकासु होइ ।
निज गुण मनि मति रीति (ध) रि, मान ग्रन्थ अवलोइ ॥ ११७ ॥ इति भाषा कवि रसं मंजरी नायका ८, नायक ४ दूत ४ दूती १७ भेदाः समाप्ताः ।
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f२६ । लेखनकाल–१८ वी शताब्दी प्रति-पत्र ४ । पंक्ति १९ । २० । अक्षर ५६ से ६०। साइज १० x ४॥
(अभय जैन ग्रन्थालय) (१७) मनोहर मंजरी । पद्य १४८ ।
सं १६९१ । मथुरा। आदि
अथ मनोहर मंजरी लिख्यते एक दंत गुणवंत महा बलवंत विराज,
लंबोदर बहु विघन हरत, सुमिरन सुख राजै । भुजा चारि गज वदन अदन मोदक मद गाजै,
गवरिनंद आनंद कंद जगदंब सदा नै ॥ ५ ॥
दोहा कछु अनुभव कछु लोक ते, कछु वि रीति वखानि । ' करत मनोहरमंजरी, रसिक लेहु पहिचानि ॥ २ ॥
अंत--
“वरन येक नव रस मही, मधु पूरन दिनरात । करी मनोहर मंजरी, रसना कहि न अघात ॥ ४७ ॥ मथुरा को हो मधुपुरी, वसत महौली पौर । करी मनोहरमंजरी, भति अनुप रस सौर ॥ ४८ ।
इति मनोहर मंजरी संपूर्ण शुभमस्तु । लेखनकाल-२० वी शताब्दी प्रति पत्र ५। पंक्ति २३ । अक्षर ५६ । साइज १०४ ५ विशेष- नायिका भेद आदि का वर्णन है।
(अभय जैन ग्रन्थालय) ( १८) रतिभूपण | जगन्नाथ । सं० १७१४ जे० शु० १० चंद्रवार । जैसलमेर आदि
पहिले करो प्रणाम, गणपति सरसति सुगुरुको । यो मोहे मति अभिराम, तिय पिय केलि सु घरणवों ॥ १ ॥
भंत
प्रीत प्रभाठ के दर्शन चार प्रकार । जोरि करि जगन्नाथ कवि, ऐसी भांति विचार ।। १५ ॥
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[ २७ ]
लेखनकाल–१८ वीं शताब्दी विशेष-जैसलमेर के रावल सबलसिह के पुत्र अमरसिंह के लिये रचित । ग्रन्थ . में ६ अध्याय हैं।
(जिनभद्रसूरि भंडार, जैसलमेर ) (१९) रस तरगिनी भाषा । कवि जांन । सं० १७११ माघ
आदि
अलख अगोचर सिमरिये, हित सौं आठौं याम । तो निहचै कवि जान कहि, पूजै मनसा काम ॥ १ ॥ दीन दयाल कृपाल अति, निराकार करतार । सन को पोषण भरण है, मन इच्छा दातार ॥ २ ॥ नवी महम्मद समरियै, जिन सर्यों करतार । घारापार जिहाज बिन, कैसे कीजै पार ॥ ४ ॥ साहिजहां जुग जुग जिओ, सुलताननि सुलतान । जान कहें निह राज मे, करत अनंद जहांन ॥ ४ ॥ रसुतरंगिणी संस्कृत, कृते कोविद भान । ताकी मैं टीका करी, भाषा कहि कवि जान ॥ ५ ॥ सब कोइ समझत नहीं, संस्कृत दुगम बखान । तातै मैं कीनी सुगम, रसकनि हित कहि जान ॥ ६ ॥
मंत
सन् हजार जु पैसठो, रविउल अव्वल मास । रसुतरंगिणी जान कवि, भाषा करी प्रकाश ॥ ३२६ ॥ संवत सतरहसै भयो, इग्यारह तापर और ।
माह मास पूरण भई साहिजहाँ के दौर ॥ ३२० ।। लेखनकाल-सं० १७२४ प्रथम आषाढ शुक्ल ९ चन्द्रवासरे लिखितम् प्रति-पत्र २८ ग्र० १०५४
(आचार्य शाखा भंडार, बीकानेर) । (२०) रस रत्नाकर । मिश्र हृदयराम । सं० १७३१ वै० शु० ५.
आरिशिव(र!), पर सरस सिंगार सो सहित सौहै, सारस में जैतवार सखी में सहास है। ओर देवतानि के बदन मांह निन्द मय, महानदी मांह महा रोस को प्रकास है ।
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[ २८ ] फुकरत लखि फणपति में सभय हरि, लोचन चरित मांह विस्मय विलास है। जयति जयंती जूकी दीठि भाव रसमय, करुण सहित शुभ जहां शिवदास है।
· कवि वंश वर्णनम् ' . ब्रह्मा कीनी सृष्टि सव, पहिले करि सप्तर्षि । तिनि सातनि के वंश सों, उपजै बहु ब्रह्मर्पि ॥ १ ॥ पंच गौड़ द्विज जगत में, पंच द्राविड़ जांनि । जहं जहं देस वपे तहां, नाम विशेष वखानि ॥ २ ॥ जनमेजय के यज्ञ मैं, हरि आने जे विप्र । . इन्द्रप्रस्थ के निकट' तिन, ग्राम दये नृप क्षिप्र ।। ३ ।। गौड़ देस ते आनि के, बसे सबै कुरु खेत । विप्र गौड़ हरि आनियां, कहै जगत इहि हैत ।। ४ ।। तिनमैं एक भटानिया, जोशी जग इहि ख्याति । यजुर्वेद माध्यदिनी. शाखा सहित सुजाति ॥ ५॥ गोत कलित कोशल्ये, गनौ घरोंडा प्राम । उपजै निज कुल कमल रवि, विष्णुदत्त इहिं नाम ॥ ६ ॥ विष्णुदत्त को सुत भयो, नारायण विख्यात । ताको दामोदर भयो, जग में जस अवदात ।। ७ ॥ भाष्य सहित फैयट सकल, पठ्यो पढ़ायो धीर । पट दर्शन साहित्य में, जाको ज्ञान गंभीर ॥ ८ ॥ स्वास्थ परमारथ प्रदा, विद्या भागुबंदु । श्री दामोदर मिश्र सब, ताको जानै भेद ॥ ९ ॥ हरिवंदन के नाम जिन, ग्रंथ को विस्तार । कर्मविपाक निशान नत्, और चिकित्सासार ।। १० ॥ करी चाकरी बहुत-दिन, बैरम सुत के पास । बहुरि वृद्ध ताके भये, कीनो कासी वास ।। १ ॥ रामकृष्ण ताको तनय, विद्या विविध विलास । विप्र नगर के सिष्य सब, कियो जौनपुर वास ।। १२ ।।
इसके पश्चात् भुवनेश मिश्र के २ संस्कृत पद्य आदि हैं।
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. आसफखां जू को अनुज, यातिकादखां वीर। . ताको करि कृग महा, जानि गुणनि गंभीर ॥ रामकृष्ण के तनय त्रय, जेठे तुलसीराम । मझिले माधवराम बुध, लहुरे गंगाराम ।।
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[ २९ ] रामकृष्ण को पौत्र है, हृदयराम कवि मित्र । उद्धव पुत्र प्रयाग द्विज, दीक्षित को दौहित्र ।। १५ ।। रामकृष्ण को पुत्र मणि, माधवराम सुजान । साहि सुजा की चाकरी, करी बहुत दिन मान ।। १६ ॥ नंदन माधवराम को, हृदयराम अभिराम । नवरस को वर्णन करे, यथा सुमति संदाम ॥ १७ ।।
संमत सत्तरैसे वरस, बीते अरु एकतीस । माधव सुदि तिथि पंचमि, वार बरनि वागीस ॥ २१ ॥ भानुदत्त कृन संस्कृत, रसतरगिणी भाइ ।
रसिक घृद के पदन कौं, पोथी करी बनाइ ॥ २२ ।। अंत
ज्यों समुद्र मथि देवतनि, पाये रतन अमोल । त्योंही नवरस रतन लही, मथि तेरह कल्लोल ॥ २७ ॥ रसरत्नाकर ग्रन्थ यह, पढ़े जु नर मन लाइ । ताको ह्वे हैं हृदय मैं, नव रस ज्ञान बनाइ ॥ २८ ॥ करि प्रनाम कछु करत हों, विनती बुध सौं लेखि।
जहे असुद्ध तह शोधियो, सहृदय बुद्धि विशेखि ॥ २१ ।। इति श्री मिश्र माधवरामात्मज श्री मिश्र हृदयराम विरचिते रस रत्नाकरे, रसालंकारे, रसाभिव्यक्ति वर्णनम् नाम द्वादश कल्लोलः समाप्तः ।
लेखन-सं० १७४८ वर्षे कुंवार शुक्ल पक्षे ५. शुभमस्तु ग्रन्थ संख्या १८८० प्रति-गुटकाकार । पत्र ७५ । पंक्ति २० । अक्षर १८ । साइज ७ x ९
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय) (२१) रस विलास । गोपाल (लाहोरी ) सं० १६४४ वैशाख शुक्ला ३ ।
मिरजाखांन के लिये। आदिप्रस्तुत ग्रन्थ का केवल अंतिम पद्य ही प्राप्त है अत. आदि के पद्य नही दिये जा सके। अंत
रुकुमनी लछनि रूप गुनही, को कवि कहे निवाहि । मे जान तेही कहे, गोविद रानी आदि ॥ ४१ ॥
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[३०] संवत सोरहसइ वरस, बीते चोतालीस । सोमतीज वैशाख को, करी कमध्वज ईस ॥ ४२ ।। वरनि सेनि वैकुंठ की, सची वेलि संसार । सुने सुनावइ जिन नसनु, प्रेम उतारइ पार ।। ४३ ।। आज्ञा मिरजांखांन की, भई करी गोपाल । वेल कहे को गुन यहइ, कृष्ण करो प्रतिपास ॥ ४४ ।। मरुभापा निरजल तजी, करि ब्रजभापा चोज । अब गुपाल यातें लहैं, सरस अनोपम मोज ॥ ४५।। कपि गुपाल यह ग्रन्थ रचि, लायो मिरजां पास ।
रस विलास दे ना उनि, कवि की पूरी आस । ४६ ।। इति श्रीमन् ति(नि!)खिल खांन शिरोरत्न श्रीमान् मुसाहिब खांन तनुज श्रीमन्नबाप सिरदारखांनात्मज श्रीमन्मिरजांखांन मनोविनोदार्थ पंडित लाहोरी कृतं । रसविलास समाप्त ।
लेखन-संवत् १७४९ वर्षे पं० प्रेमराजेन लिपी कृता श्री भुज नगरे । प्रति-अंत का आठवां पत्रांक प्राप्त । साइज १० x ४|||
(अभय जैन ग्रन्थालय)
(२२) सिक हुलास सूरदत्त सं० १७१६ फागुन शुक्ला ५ अमरसर । आदिआनद के कंद. जगवंद, दजुत चद सोहें, पारवती के नद हरै विपति कुमति कौं। बुधि के सदन गजवदन रदन सुभ, दुख के कदन सुख देत दै सपत्ति कौं। विघन हरन सब के भरन पोषन हो, असरन सरन सो सुमति को। श्रीपति सिवापति सिकराय सुरपति, करत प्रनाम ऐसे महा गनपति को ।। १ ।।
नगर अमरसर अमरपुर, कीनो भुव । कर्तार ।। वसैं जहां चारों वरन, दाता वनिक अपार ॥ ३
राय मनोहर नृपति तह, रच्यो एक कार । सेखाउत क्छवाह मनि, पारथ को अवतार ॥ ६ ॥ मिरजाई तिह को दई, अकवर साहि सुजान । सुत सम बहु आदर करे, जानै सकल जहान ॥ ७ ॥ ताको सुत जग मे विदित कहिये प्रथिवीचंद ।। सुमिरत जाके नाम को, मिटे सकल दुख दंद ।। ८ ॥ कृष्णचन्द्र ताको तनय, मनसिज सौ अभिराम । साहि समान प्रसिद्ध जग, सुर तरवर को धाम || ९ ॥
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[ ३१ ] रसिकराय सो तिन कयो, करिके बहुत सनेहु ।। हमको रसिक हुलास करि, रसतरगिनि देहु ।। १० ।।
दोहा
संवत सतरैपे वरस, सोरह ऊपर जानि । फागुन सुदि तिथि पंचमि, सु महूरत सो मानि ॥ १।।। ता दिन ते आरंभ यह, कीन्हों रसिक हुलास । समुझि परै जाके पदें, (र)सके सबै विलास ।। १२ ।। पढ़ें जो रसिकहुलास वह, नर नर वर म कोइ । जाने गति रस भाव की, मजिलिस मंडन होइ॥ १३ ॥ सूरदत्त कवि अलप मति, कासी जाको वास । अति प्रवीन तिन सरस यह, कीनो रसिकहुलास ॥ १४ ॥
अंत
बुध वारिद वरषहुं सदा, तातें नह नवीन । जाते रसिकहुलास की, वृद्धि होहि परवीन ।। जावत सूर सुता रहै, धरती मै सुख पाइ ।
तावत सूरदत्त कृत, रसिकहुलास सुहाइ ॥ इति श्री सूरदत्त विरचिते रसिक हुलासे दृष्टि आदि निरूपणं नाम अष्टमो हुल। समाप्तं ।
लेखनकाल-सं १७४९ । मिती कार्तिक वदी सप्तमी । प्रति-पत्र ४५ । पंक्ति । २२ । अक्षर १७ । रस रत्नाकर वाले गुटके मे है।
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय ) (२३) रसिक आराम पंद्य १०० । सतीदास व्यास । सं० १७३३ माघ शुक्ला : बीकानेर आदि
नमन करि हलवीर कुं, नव जलधर वर स्याम । सतीदास संछेप सुं, रचति रसिकआराम ॥ ५ ॥ शुभ संवत से सप्तदश, वरस वरन तेतीस । मास माघ सित पछ तिथि, दूज भ चार दिन ईश ॥ २ ।। बीकानेर सुहावनों, सुख संपति गुन रूप । सुथिर राज महि मेरू लों, अधिपति भूप अनूप ॥ ३ ॥
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। ३२ ]
अंत--
देवीदास वियास मनि, गुननिधि विद्या धाम । तिनके सुत के सुत रच्यो, पूरन रसिकाराम ॥ २ ॥ बीकानेर पुरे श्रिया सुख करे नृपस्य भूमीपतेः । देवीदास इति त्रिलोक विदितो व्यासान्वयोस्ति प्रधी तत्पुत्र किल देवर्जीति विदितो स्तत्सूनुनायं कृतं
शृङ्गारात्मक अकरूप रसिका रामः सुबोध्यो बुधैः ।। ११ ॥ लेग्वन-संवत १७५२ वर्ष माघमासे शुक्लपक्ष तिथौ ११ एकादश्यां सोमवासरे लिखते ब्रा० वदरा दाहिवां ओझा, वांचे तिने राम राम ।
प्रति-गुटकाकार । पत्र २८ से ६४ । पंक्ति १६ । अक्षर १८ । साइज ६४६
विशेप-प्रथम अध्याय-नायिका निरूपण पद्य ४३ द्वितीय अध्याय-नायक निरूपण पद्य १६, तृतीय अध्याय अलंकार निरूपण पद्य ३१।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (२४) रसिक मंजरी भाषा । हरिवंस । आदि
कल कपोल मद लोभ रस, कल गुजत रोलंय । कवि कदंब आनंद कहि, लंबोदर अवलंब ॥ १ ॥ अति पुनीत, कलि कलुप विहंडन, साहि सभा सबहिनि सिर मंडन ।
खुलित खग्ग खत्तिय सिर खडन, जगमगात हक्कु इक्कुल तंटन ॥२॥ . .,
, पद्धरी छंद : - - - . , . तिह. वंस किय उद्योत, तिहि कित्ति सुरसदि सोत ।
छजमल सुअ आनंद, मसनंद परमानंद ॥ ३ ।। कुल कमल मानस हंस, जसु कित्ति जगत प्रसंस । मसनंद सुभ अवतंस, जयवस मनि हरिवंस ॥ ४ ॥ रसिकराई हरिवंस तिनि, चंचरीक निज हेत। भानु उदित रसमंजरी, मधुर मधुर रस लेत ॥ ५ ॥
अंत
साक्षात् दर्शनहा हा तजि रे चित चंचलता, जीवरा निज लाजन लोलुप हैं । करुणा करि नैननि नीर भये, तुम्हकू न परौ पलके पल है।
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सिर सोहत मोरनिके चंदूवा, मुरली मधुरा धर तै मधु है।
नध नीरद सुंदर स्यामल होत, हहा हरि लोचन गोचर है ॥ २७ ।। इति श्री रस मंजरी भाषा, हरिवंस कृत संपूर्ण। श्री श्री श्री श्री। लेखन-१८ वीं शताब्दी। प्रति-१-गुटकाकार । पत्र २९ । पं० १३ । अक्षर २५ । साइज ६४५।। २-विनय सागरजी संग्रह,
(जयचंद्रजी भंडार) (२५) रसिक विलास । कवि केसरी । आदि
जासु लगत सर निकट, कन्ह वृन्दावन नंचिय । चलत जुद्ध जिहि क्रुद्ध सुद्ध, संकरु नहिं रंचिय ॥ जेहि वस कियउ समग्ग, अमर दानव किन्नर नर । जड़ जंगम केहरि जाहि, सेवत निस वासर ॥ जिन रच्चिय जग तुअन वन विधि नमुनि जानत जिमि रत्ति वर । तेही तजि अपरू केहि वंदियइ, परम पुरुस प्रभु पंचसरु ॥ महा महाकवि है गये, कोरे धरनि अनेक । बहु रतना वसुधा कही, गुनी एक ते एक ।। निन भाषा में केहरी, केचित भयो प्रकास ।
श्री ब्रजराज सुजान हित, कीनों रसिक विलास ।। अंत
केहरी मै धन आस बध्यो, मनु दाहै मरोद वज्यो प्रमदा हो।
रुख्यो पर्योइ रहे सजनि, सुनि नाह सों ही नित नेहु निबाहों ।। १ ।। इति श्री कवि केशरि कृते शृंगार रसे नायिका भेदे रसिकविलासोल्लासे सप्तमः प्रभावः । संपूर्णोयं ग्रन्थः।।
लेखन-१८ वी शताब्दी । लिखतमिदं पुस्तकं महानंदात्मज कृष्णदत्त व्यासेन ।
प्रति-गुटकाकार । पत्र २१ । पंक्ति १८ से २२ । अक्षर २० से २४ । साइज ६४९।।
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय) (२६) रसकोष-जान कवि सं० १६७६ ।
ग्रन्थ रस कोष । आदि
अलख अगोचर निरंजन, निराकार अविनास । __ काहू की पटंतर नही, ना को पटतर तास ॥ १ ॥
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[ ३४ ] निमसकार ताको करौ, नांउ महंमद जाहि । असरन सरन अभरन भरन, भै भंजन गुन ताहि ॥ २ ॥ जवहि बखानौ नाइका, नाइक कहि कवि जान । मयूं कy रसमंजरी, सुनो सबै धर कान ॥ ३ ॥ तन मन मै संतोप है, मिट चित को सोप । आरस दोपन नास है, धर्यो नांड रसकोष ॥ ४ ॥
x
अंत
जहाँगीर के राज्य में, हरन चित को दोप। सोलहसै पटहुतरे, क्यिो जान रसकोप ॥ १४१ ॥
चौपाइ ५० लेखन-सौलहसै चौरासिये, नन फतेपुर थान ।।
हुती जु सातै जेठ बदि, लिख्यो भीखजनु जान ॥ १ ॥ (ग्र० ३००) प्रति-गुटकाकार, जिसमे पहले आनंद रचित कोकसार (सं० १६८२ लिखित) है ।
(अनूप संस्कृत लायब्रेरी)
(२७ ) लखपति जस सिन्धु । तपागच्छीय कनककुशल शिष्य कुंवरकुशल । आदि
सकल देव सिर सेहरा, परम करत परकास । सिविता कविता दे सफल, इच्छित पूरै आस ॥ १ ॥
अत
कवि प्रथम जे जे कहे, अलंकार उपजाय।
कुंवर - कुशल ते ते लहे, उदाहरन सुखदाय ॥ ८२ ॥ इति श्री मन्नमहाराज लक्षपति आदेशात् सकल भट्टारक पुरन्दर भ० श्री कनककुशल सूरि शि० कुंअरकुशल विरचिते, लक्षपति जससिन्धु शब्दालङ्कारार्थलंकार त्रयोदश तरंग। प्रति-गुटकाकार । पत्र ५३ ।
( यति ऋद्धिकरणजी भंडार, चूरू) (२७) विक्रम विलास । लालदास । आदि
जिहिन सुन्यौ हरिवंस जिमि, विक्रम साहि विलास । तजहिनते रसराज वर, तनै जनम सुख आस ॥ १ ॥
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[ ३५ ] कथा माधवानल करी, नाटक उखाहार । तृपति न मानी लाल तव, नव रस कियो विचार ॥ २ ॥ नीरसु गहे न भाव रस, रसिकु भजे रस भाव । गाड़ी चले न सलिल में, सूखि चले न नाव ।। ३ ॥
अंत
चरित राम सुग्रीव के, सोरि नन्द व्यवहार ।
इत्यादिक में जानियो, प्रिय रस के अवतार ॥ ४ ॥ इति श्री लालदास विरचिते विक्रम विलासे रसान्तरोपि समाप्तः ।
लेखन-संवत् १७२९ वर्षे शाके १५९४ प्रवर्तमाने महामांगल्यप्रद माघ मासे, शुक्लपक्षे पूर्णमास्यां तिथौ सोम्यवासरे श्री नासिक महानगरे श्री गोदावरी महातटे श्री महाराजाधिराज श्री महाराज श्री ४ अनूपसिंहजी चिरंजीवी पोथी लिखावितं । शुभं भवतु श्री मथेन सांमा लिखतं ॥ प्रति-(१)-पत्र ३१ । पंक्ति १९ अक्षर १६ । साइज ६४९॥
(२)-पत्र २७ । पंक्ति ८ । अक्षर ३५ विशेष -प्रति मे प्रथम अलसमेदनी, अनूपरसाल, योगवाशिष्ठभाषा, विक्रमविलास, सतवंती कथा, बीबी बांदी झगड़ो, कथा मोहिनी, जगन बत्तीसी, रसिक विलास ग्रन्थ है । दूसरी प्रति मे विक्रम विलास का निम्नोक्त अन्त पद्य अधिक है--
विवरण भेरस भीम के, आरण पायो लाल ॥ ३१० ॥ जहां जान अजान में, कियो कछु अविचारि ।
तहा कृपा करि सोधियो, सज्जन सबै विचारि ॥ ३१९ ।। इति लाल कवि विरचित विक्रम विलासे रसान्तर रस वर्णन समाप्त । श्लोक ५६१
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय) (२९) वैद्य विरहिणि प्रबंध । दोहा ७८ । उदैराज । सं० १७७२ से पूर्व
आदि
एकन दिन व्रज वासिनी, दिल में दई उहार । हों दुखहारी वैद पै, जाइ दिखाऊं नारि ॥ १ ॥ की विरहिन जिय सोच मैं, धर अपनी जिय आस । रिगत पान क्यों कर दनै, गयो वैद पै पास ॥ २ ॥
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[ ३६ ]
अंत
अपने अपने कंत सू, रस घस रहिया जोइ । उदैराज उन नारि कू, जमें दुहागन होइ ॥ ७७ ॥
जां लगि गिरि सायर अचल, जाम अचल दृ राज । तां लगि रंग राता रहै, अचल जोड़ि व्रजराज ॥ ७८ ॥
___ इति श्री वैद्य विरहिणी संपूर्णा । . लेखनकाल-संवत् १७७२ वर्षे कार्तिक सुदि १४ तिथौ प्रति-पत्र २ । पंक्ति १७ । अक्षर ५२ । । साइज १०४४॥ विशेप-अक्षर बहुत सुन्दर हैं । विरहिणी नारी वैद्य के पास जाती है और कामातुर हो अपना सतीत्व नष्ट कर देती है । इसका श्रृंगार रसमय वर्णन है ।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (३०) साहित्य महोदधि सटीक । रावत गुलावसिह । सं० १९३० लग० । आदि
गवरी उवटणी करत, गुटिका किय चुनि गाद ।
ताके अंगज त्रय भये, सुतरु तुमरु नाद ॥ १ ॥ अर्थ-एक समय गवरी कैलास मे उवटणो नाम अन्न विकार को मालस करावते हुते । तदा वह उबटणा की गाद परिमणु तिकों भेगी करिके तीनि गुटका कीनी । पुरुष रूप की वह गुटिका के तीन पुत्र प्रगट कीन्हे । वड़ा पुत्र को नाम सूतजी, दूजा को नाम तुमुलजी, तीजा को नाम नादजी, यह तीन पुत्र गवरी के भये ।
अंत
एक दिवस उदल नृप, मम प्रति कहो यह कत्थ । रचिदौ ऐसो ग्रन्थ तित, मिले काव्य कृत सत्य ।। १० ॥ तव में कीनो ग्रन्थ यह, शिशु हित सूधपलेत ।
काव्य अंग वेदांत अरु, प्राकृत राग समेत ॥ ११ ॥ इति श्री चारणान्वय महडू कवि रावत गुलाबसिंह विरचित साहित्यमहा ।' स्तरणी टीकायां नृपवंश निरुपणे अमुक खंड ॥ ११ ॥
लेखनकाल–सं १९६३ प्रति-पत्र १७,
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[ ३७ ] विशेष-साहित्य महोदधि का यह खंड कवि वंश वर्णन और प्रतापगढ़ राज वंश वर्णन के रूप मे है।
(कविराज सुखदानजी के संग्रह में) (३१ ) संयोग द्वात्रिंशिका । पद्य । ३७. मान, । सं० १७३१ चैत्र शुक्ला ६. भादिअथ संयोग द्वात्रिशिका लिख्यते
बुद्धि वचन वरदायिनी, सिद्धि करन सुभ काम । सारद सों माननि सखर, हिय की पूरे होम ॥ १ ॥ राग सुभाषित रमन रस, तिहुन में ओ गूढ । जो जोगीसर जंगली, न लहै तिनको मूढ ॥ २ ॥
अंत -
आदि सुराग सुभाषित सुंदर, रूप अगूढ सरूप छत्तीसी । पच संयोग कहे तदनंतर, प्रीति की रीति बखान तितीसी । संवत चंद्र' समुद्र शिवाक्ष, शशी' युति वास विचार इतीसी । चैत सिता सु छहि गिरापति, मान रची सुसंयोग छ (?)त्तीसी ॥२ ।
दोहा अमर चंद मुनि आग्रहै, समर भट्ट सरसत्ति ।
संगम बत्तीसी रची, भाछी आनि उकत्ति ॥ ७३ ।। इति श्री मन्मान कवि विरचितायां संयोग द्वात्रिंशिकायां नायका नायक परस्पर संयोग नाम चतुर्थोन्मादः ॥ ४ ॥ इति संगम वत्तीसी संपूर्णम् ।
लेखन-लिखितं वा० कुशलभक्ति गणिना पं० हर्षचंद्र सहितेन पंचभदरा मध्ये सं०१८२८ रा माह वदि २ बुधौ लिखित अति हर्षेन पं० हरनाथ वाचनार्थ लिखिता। प्रति-पत्र ५
(अभय जैन ग्रन्थालय)
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(ग) वैद्यक-ग्रन्थ
(१) अतिसार निदान आदि-- अथ अतीसार को निदान कथ्यते । परिहां-भजीर्ण रसहि विकार रुख मद पानहीं।
सीतल उष्ण स्निग्ध गमन जल पानही । कृम मिथ्या भय सोक कर बहु खेद हो । उपजै यु भतिसार वखांन्यो वैद ही ॥ १ ॥
आंबा गिटक अरु विल्व पतीस, ए सभ दारू सम कर पीस ।
तंदुल जल चूरणहु खाय, रक्त सकल अतिसार मिटाइ ।। १९ ।। . इसके बाद मधुरा लक्षण, मुखवात लक्षणादि लिखे हैं। प्रति पत्र २ की अपूर्ण है । पता नहीं यह स्वतन्त्र रचिन पद्य है या किसी अन्य भापा वैद्यक ग्रन्थ से उद्धृत है । इसी प्रकार मूत्र परीक्षा का १ आदि (अपूर्ण) पत्र उपलब्ध है
घटी च्यारि निसि पाछली, रोगी कुंजु उठाइ। . रोग परीक्षा कारण, तव पेसाब कराइ ॥ १। आदि अंत की धार तजि, मध्य धार तहां लेहु ।
सेवत काच के पाच मझि, एकंत ढांकि धरेहु ।। २ ॥ ये पद्य भी किसी वैद्यक भापा ग्रन्थ से उद्धृत है या स्वतन्त्र है यह अज्ञात है ।
(अभय जैन ग्रन्थालय)
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(२) कवि प्रमोद । पद्य २९४४ । मांन । सं० १७४६ कार्तिक शुक्ला । आदि
कवित्त प्रथम मंगल पद, हरित दुरित गद, विजित कमद मद, तासों चित्त लाईयइ । जाके नाम कूर करम, छिनही म होत नरम, जगत विख्यात धर्म, तिनही को गाईयइ । अश्वसेन वामा ताको अंगज प्रसिद्ध जगि, उरंग लछन पग जिनमत गाईयइ । धर्मध्वज धर्म रूप परम दयाल भूप, कहत मुमुक्ष मांन ऐसे ही को ध्याईयइ ॥ १ ॥
युगप्रधान जिनचंद प्रभु, जगत मांहि परधान । विद्या चौदह प्रगट मुख, दिशि चारो मधि आंन ॥ ९ ॥ खरतर गच्छ शिर पर मुकुट, सविता जेम प्रकाश । जाके देखै भविक जन, हरखै मन उल्लास ॥ १० ॥ सुमतिमेर वाचक प्रकट, पाठक श्री विनैमेर । ताको शिव्य मुनि मानजी, वासी बीकानेर ॥ १॥ संवत सतर छयाल शुभ, कातिक सुदि तिथि दोज । कवि प्रमोद रस नाम यह, सर्व ग्रंथनि को खोज ॥ १२।। संस्कृत वानी कविनि की, मूढ़ न सममें कोई । तातै भाषा सुगम करि, रसना सुललित होइ ॥ १३ ॥ ग्रंथ बहुत अरु तुच्छ मति, ताकी यह परधान । सब ग्रन्थनि को मथन करी, कीयो एह मई आन ॥ १४ ॥
वाग्भट शुश्रुत चरक मुनि, अरु निबंध आत्रेय । खारनाद अरु भेड़ ऋषि, रच्यो तहां सौ लेय ॥ ९ ॥ मन मैं उपजी बुधि यह, भाषा कीजे आन । सब सुख दायक ग्रंथ मत, भाषा में परधान ॥ ९३ ॥ घटि बधि अक्षर चूक यह, सुजन होय के सोध । रस ही मंहि जु विरस जउ, ताहिन उपजे बोध ॥ ९४ ।। रोग हरन सब सुख करन, सबही के हित काज ।।
और जु भाषा नाव सम, कीनौ एह जहाज ।। ६५ ।। कवित्त छंद दोहे सरस, तां महि कीने जोग । प्रथम कीए मह आप कर, भए प्रसन सब लोग ।। ९६ ।। अभिमांनी अक उपजसी, हीन शास्त्र नर होय । हाथ न ताके दीजियो, अवगुन काढ़े कोय ॥ ९७ ।।
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[४] खरतर गच्छ परसिद्ध जगि, वाचक सुमतिमेर । विनयमेर पाठक प्रगट, कीयै दुष्ट जग जेर ।। १८ ।। ताको शिष्य मुनि मानजी, भयो सबनि परसिद्ध । गुरु प्रसाद के वचन ते, भाषा को नव निद्ध ॥ ९९ ।। कवि प्रमोद ए नाम रस, कीयो प्रगट यह मुख । जो नर चाहे याहि कों, सदा होय मन सुख ॥ १०० ।। सब सुख दायक ग्रन्थ यह, हरै पाप सब दूर ।
जे नर राखै कंठ मधि, ताहि मह सब पूर ।। १ ॥ इति श्री खरतर गच्छीय वाचक श्री सुमति मेरु गणि तद्भात पाठक श्री विनैमैरु गणि शिष्य मांनजी विरचिते भाषा कविप्रमोद रस ग्रन्थे पंच कर्म स्नेह वृन्तादि ज्वर चिकित्सा कवित्त बंध चौपई दोधक वर्णनो नाम नवमोदेसः ॥ ९॥
लेखन-१८ वी शताब्दी प्रति - पत्र १८० । पंक्ति १२ । अक्षर ३२ । पद्य २९४४ ।
(श्री जिनचारित्र सूरि संग्रह) ( ३ ) कवि विनोद, । मान । सं० १७४५ वैशाख शुक्ला ५ सोमवार । लाहोर ।
आदिउदित उद्योत, जगिमगि रह्यौ चित्र भानु, ऐसह प्रताप आदि ऋष को कहत है । ताको प्रतिबिब देख, भगवान रुप लेख, ताहि नमो पाय पेखि मंगल चहत है । ऐसी दया करो मोहि, ग्रंथ करौ टोहि टोहि, धरो ध्यान तव तोहि, उमंग गहतु है । बीच न विघन कौऊ, अच्छर सरल दाउ, नर पढ़े जोऊ सोऊ सुख को लहतु है ॥ १ ॥
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गुरु प्रसाद भाषा करूं, समझ सफै सब कोई ।। ओपद रोग निदान कछु, कविविनोद यह होई । ५ ॥
संवन सतरहसइ समइ, पैताले वैशाख । शुक्ल पक्ष पंचम दिनइ, सोमवार यह भाख ।। ९ ।। और ग्रंथ सब मथन कार, भाषा कही बखांन । काढ़ा औषधि चूर्ण गुटी, करै प्रगट मतिमांन ।। १० ।। भट्टारक जिनचद गुरु, सब गच्छ के सिरदार । खरतर गच्छ महिमानिलो, सब जन को सुखकार ।। ११ ॥ जाको गच्छवासी प्रगट, वाचक सुमति सुमेर । ताको शिव्य मुनि मानजी, वासी बीकानेर ॥ १२ ॥
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[ ४१ ] कीयो ग्रंथ लाहोर मई, उपजी बुद्धि की वृद्धि ।
जो नर राखे कंठ मइ, सो होवै परसिद्ध ।। १३ ॥ अंत (प्रथम खंड)
गुनपानी अरु क्वाथ क्रम, कहे जु भाद के खंड ।
खरतर गच्छ मुनि मानजी, कीयो प्रगट रह मड ॥ २६५ ॥ इति श्री ख० मानजी, विरचितायां वैद्यक भाषा कविविनोद नाम प्रथम खंड समाप्तं । अंत-(द्वितीय खंड)
द्वितीय खंड ज्वर की कथा, कही सुगम मति मान । समझ परै सब ग्रंथ की, पढ़े सु पंडित जान ।। २७७ ।। खरतर गच्छ साखा प्रगट, वाचक सुमति सुमेर । ताको शिष्य मुनि मानजी, कीनी भाषा फेर ॥ २७८ ।। संस्कृत शब्द न पदि सके, अरु अच्छर से हीन ।
ताके कारण सुगम ए, तातै भाषा कीन ॥ २७६ ।। इति ख० मुनि मानजी विरचितायां ज्वर निदान, ज्वर चिकित्सा, सन्निपात तेरह निदान चिकित्सा नाम द्वितीय खंड ।
लेखन-१८ वीं शताब्दी प्रति १-पत्र १४ उपरोक्त दो खंड मात्र ( जयचन्द्रजी भंडार बस्ता नं० ४१) २-पत्र ४२
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बस्ता नं० १०) ३-पत्र ४५ । पंक्ति १३ । अक्षर ३८ । साइज १०॥४४॥।
(नकोदर भंडार पंजाब) (४) कालज्ञान । पद्य १७८ । लक्ष्मीवल्लभ । सं० १७४१ श्रावण शुक्ल १५ । आदि
सकति शंभु शंभू-सुतन, धरि तीनों को ध्यान । सुदर भाषा बंध करि, करिहुं काल ग्यांन ॥ १ ॥ भाषित शंभुनाथ को, जानत काल ग्यान । जाने आउ छ मास थे, धुर ते वैद्य सुजान ।। २॥
जग वैद्यक विद्या जिसी, नहीं न विद्या और । फलदायक परतखि प्रगट, सब विद्या को मौर ॥६५॥
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[ ४२ ] चंद्र' वेद मुनि भू' प्रमित, संवत्सर नभ मास । पनिम दिन गुरवार युत, सिद्ध योग सुविलास ।।७।। श्री जिनकुशल सूरीस गुरु, भए खरतर प्रभु मुख्य । खेमकीर्ति वाचक भए, तासु परंपर शिष्य ।।७१॥ ता साखा में दोपते, भए अधिक परसिद्ध ।। श्री लक्ष्मीकीर्ति तिहां, उपाध्याय बहु बुद्धि ॥७२॥ श्री लक्ष्मीवल्लभ भए, पाठक ताके शिष्य ।। कालग्यान भाषा रच्यो, प्रगट अरथ परतक्ष ॥७३॥ पंडित मोसुं करि कृपा, शुद्धः करहु सुविचार । पंडित मान करै नहीं, करै सबसुं उपगार ।।७४।।
अंत
ऐसे काल ग्यान को, कह्यौ पंचम समुहेस ।
सुगुरु इष्ट सुप्रसाद तैं, लिख्यो अर्थ लवलेश ||७८। इति कालग्याने भापा प्रबन्धे उपाध्याय श्री लक्ष्मीवल्लभ विरचिते पंचम समुद्देस ॥५॥
लेखन-संवत १७६० वर्ष वैशाख सुदि ८ दिने पं० आणंदधीर लिखिता। प्रति-पत्र ३ । पक्ति १७ से २१ । अक्षर ५८ से ६८ । साइज ९॥४४| विशेष-इस ग्रन्थ की कई प्रतियाँ हमारे संग्रह में हैं।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (५) गज शास्त्र (अमर-सुबोधिनी भाषा-टीका ) सं० १७२८ ।
आदिप्रथम पत्र पश्चात् ३ पत्र नहीं मिलते, पीछे का अंश
-इनके वंस के तिनके भेद । जु पांडुर वर्ण होइ । भूरे केस । नखछवि पूछ होइ । धीर होइ । रिस कराई करे। सु एरापति के वंस को। आगी ते काहू ते न डेर (डरे?) नहीं। दांत सेत । आगिलो ऊंचो गात्र । मेरताई छवि । राते नेत्र । सेत सुधेदा । सु पुंडरीक के वंस को जानिवे ।
अंतहस्ती को यंत्रु लिखि जो हस्ती को जंत्र करी । जुद्ध मांझ अथवा लराई में
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[ ४३ ] बांधिजै तो जयु होइ । हाथी भागे नहीं । गोरोचन सो भोज पत्र मे लिखी हाथी के दांत किवा कांन बांधिजै । ( इसके पश्चात् हाथियो के १४२ नाम लिखे गये हैं) ___इति पालकाप्य रिषि विरचितायां तद्भाषार्थ नाम अमर सुबोधिनी नाम भाषार्थ प्रकाशिकायां समाप्ता शुभं भवतु।
लेखन-सं० १७२८ वर्षे जेठ सुदी ७ दिने महाराजाधिराज महाराजा श्रीअनूपसिहजी पुस्तक लिखापितः । मथेन राखेचा लिखतम् । श्री ओरंगाबाद मध्ये ।
प्रति-पत्र ९५ । पंक्ति ९ । अक्षर ३० । साइज १०||४५।। विशेष-हाथियो के प्रकार और उनके रोगो का सुन्दर वर्णन है ।
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय) (६) गंधक कल्प-आंवलासार । दोहा ४६ । कृष्णानंद । आदिगंधक कल्प आंवलासार, दूहा ।
सुन देवी अब कहत है, गंधक विध समझाय । अजर अमर होय जगत में, जो कोइ एसै खाय ॥ १ ॥ यथा जोग्य सब कहतु है, भिन्न २ समझाय ।
जब लू द्वन्य आकाश है, तब लू काल न खाय ॥ २ ॥ अंत
कृष्णानद विचारके, कह्यौ पदारथ सार । सिद्ध होय या युक्त (जगत?) में, अमर देव आकार । ४५ ॥ गंधक विधि ए हे चूकी, ओर कहे उपदेश ।
जरा मोत कु जीत के, जीवत रहै हमेश ।। ४६ ।। लेखन-१९ वी शताब्दी। प्रति-पत्र २ । पंक्ति १३ । अक्षर ४० । साइज ९||४४।।
. (अभय जैन ग्रन्थालय) (७) डंभ किया। पद्य २१ । धर्मसी । सं० १७४० विजय दशमी । आदिभादि का पद्य प्राप्त नहीं हैं। भंतसतरसे चालीसे विजय दशमो दिने, गच्छ खरतर जग जीत सर्व विद्या जिनै । विजय हर्ष विद्यमान शिष्य तिनके सही, कवि धर्मसी उपगारे, उभ क्रिया कही ॥ २१ ॥
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[ ४४ । लेखन-१८ वीं शताब्दी । प्रति-पत्र ९८, कवि की अन्य कृतियो के साथ
(वड़ा ज्ञान भंडार) (८) नाडी परीक्षा, मान परिमाण । पद्य ४५+१३ । रामचंद्र । आदि
सुभ मति सरसति समरिये, शुद्ध चित्त हित आण ।
प्रगट परीक्षा जीवनी, लहीयो चतुर सुजाण ॥ १ ॥ अंतसौम्य दृष्टि सुप्रसन्न सदाई भालीय, प्रकृति चित्त इहु दुख सहू ही रालीयै । शीघ्र शांति होइ रोग सदा सुख संदही, नाडि परीक्षा एह कही रामचंदही ॥ ४५ ॥
आगे मान परिमाण के १३ इस प्रकार कुल ५८ पद्य है। हमारे संग्रह मे सं० १७६१ की लिखित रामविनोद की प्रति पत्र ४७ के शेष मे है।
विशेष-रामविनोद की किसी किसी प्रति मे मान परिमाण के इन पद्यो को उसी मे सम्मिलित कर दिया है।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (९) निजोपाय । पद्य ९६ । आदि
दोहा प्रथ ग्रन्थ निजोपाय लिख्यते । दोहा । आदि सुमरु अलख, दोम महंमद नाम । ठनही को कलमां कहूँ, नसदिन आई जांम ॥ १ ॥ मानस रोगी कारण, ओषद रची अपार । सीत गरम पुनि रक्त हुँ, दीनो भेद विचार ॥ २ ॥ चार तस्व पैदा किया, आदम के तन मांहि ।।
खाक अग्नि पाणी पवन, सब से मैं परिछांई ॥ ३ ॥ अंतइलाज नेत्रांजन का
एक पीपा अर आवरे, दार चीणी से आंनि । महलोठी मिश्री जु संग, सब ही पीस समान ॥ ९५ ॥ जल सौं गोली बांधिए, गुंजा के प्रमान । भनन करि है नैन कुं, सकल दोष होइ हानि ॥ ६ ॥
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[ ४५ ] इति श्री निजोपाय छुटकर दवा संपूर्णम् । प्रति-गुटकाकार । पत्र १४ । पंक्ति ८ । अक्षर १४ ।
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय) (१०) प्राणसुख । पद्य १८७ । दरवंश हकीम। आदि
सुनिरे वैद वेद क्या बोला, उत्तमु इहि विद्या पढ़ो अमोला | वायु पित्त कफु तीनों जानौ, रोगां का घरु यही वखांनी ॥ १ ॥
यहि प्राणसुख पोथी के, ओषध सकल प्रमान ।
कधि दरवेस हकीम की, सुनीयो वैद सुजांन ॥ ८०॥ इति प्राणसुख वैद्यक चिकित्सा संपूर्ण। लेखन-सं० १८८६ चै. व. १२ देरासमाइल खांन मध्ये । प्रति-पत्र ११ । पंक्ति १५ । अक्षर ४८ करीव ।
(श्री जिन चारित्र सूरि संग्रह) (११) बालतंत्र भाषा वचनिका । दीपचन्द । आदि
-अथ बालतंत्र ग्रन्थ भाषा वचनिका बंध लिख्यते । प्रथमहि श्री गणेशजी कुं नमस्कार करिकै । शास्त्र के आद । केसे है गणेशजी । कल्याण नामा पंडित कहत है । मैं प्रथम ही ग्रन्थ के धूर गणेशजी कुं नमस्कार करता हूँ। बालतंत्र ग्रन्थ को प्रारंभ करता हूँ। मूर्ख प्राणी के ताई ज्ञान होणे के खातरै इनका प्रयोग उपचार शास्त्र के अनुसार करै । कौंण कौण से शास्त्र श्रुश्रुत, हारित, चरख, वागभट, इन शास्त्रां की शाखा की अनुसार कर सर्व एकत्र करूं हूँ । इस बाल (तंत्र ) ग्रन्थ विषै बाल चिकित्सा को अधिकार कहें है।
अंत
ग्रंधकर्ता कहै है मैने जो यह बाल चिकित्सा ग्रंथ कीया है । नाना प्रकार का ग्रंथ कू देख किया है सो ग्रन्थ कौंण कौंण से आत्रेय १, चरख २, श्रुश्रुत ३, वागभट ४, हारीत ५, जोगसत ६, सनिपात कलिका ७, बंगसेन ८, भाव प्रकाश ९, भेड १०, जोग
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[४] रत्नावली ११, टोडरानंद १२, वैद्य विनोद १३, वैद्यकसारोद्वार १४, श्रुश्रुत १५ (१) जोग चिन्तामणि १६ इत्यादिक ग्रन्था कि साखा लेकर में यह संस्कृत सलोक बंध कीया है। कल्याणदास पंडित कहता है, बालक की चिकित्सा का उपाय को देख कीजे। अहिछत्रा नगर के विषे बहू पंडितां के विपें सिरोमण रामचंद नामा पंडित रामचन्द्रजी की पूजा विषे सावधान । सो रामचन्द्र पंडित कैसो है । सातां कहतां सजनां नै वि पंडित मनुष्यां ने प्रीय छै । तिसके महिधर नामा पुत्र भयौं । सो कशो हुवौं । पंडत मनुस्यां के ताइ खुस्यालि के करणहारे हुये । अत्यंत महापंडित होत भये । सर्व पंडित जनौं के वंदनीक भये । फेर महिधर पंडित केसे होत भये । श्री लक्षमीजी के नृसिंघजी के चर्ण कमल सेवन के विपें ,ग कहतां भंवरा समान होत भयो । माहा वेदांती भये । आतम ग्यानी भये । सर्व शास्त्र भागम अर्थ तिसके जांणणहार भये । महा परमागम शास्त्र के बकता भये । तिसके पुत्र कल्याणदास नामा होत भये । माहा पंडित सर्व शास्त्र के वकता जाणणहार वैद्यक चिकित्सा विषे महा प्रविण सर्व सास्त्र वैद्यक का देख कर परोपगार के निमित्त पंडितां का ग्यान के वासतै यह वाल चिकित्सा ग्रन्थ करण वास्ते कल्याणदास पंडित नामा होत भये । तीसनै करी सलोक बंध । तिसकी भाषा खरतर गच्छ माहि जनि वाचक पदवी धारक दीपचन्द इसे नामैं, तिसनै कह्या यह संस्कृत ग्रन्थ कठिन है सौं अग्यानी मंद बुद्धि मनुष्य समझे नही तिस वास्तै वालतंत्र ग्रन्थ भाषा वचनिका करे, मंद बुद्धि के वास्तै और या ग्रन्थ विषै पोडश प्रकार की बाँझ स्त्री कथन, नामर्द का उपाय, कथन, गर्भ रक्षा विधान कथन, बंध्या स्त्रि का रुद्र (ऋतु) स्नान कथन, कष्टि स्त्रि का उपाय, बालक की दिन मास वर्ष की चिकत्सा कथन, वलि विधन कथन; धाय का लक्षण कथन, दुध श्रुद्ध कर्ण का उपाय, और सर्व बालक का रोगां का उपाय कथन, इसौ जो वालतंत्र ग्रन्थ सर्व जन को सुखकारी हुवौ । इति वालतंत्र ग्रन्थ भाषा वचनिका सर्व उपाय कथन पनरमौं पटल पूरो हूवौ ॥ १५ ॥ इति श्री बालतंत्र ग्रन्थ वचनिका बंध पूरी पूर्णमस्तु ।।
लेखन-लिपीकृतं पाराश्वर ब्राह्मण शिवनाथ, नीवाज ग्राम मध्ये । संवत् १९३६ रा वर्ष १८०१ असाढ़ शुक्ल ९ शनी ।
प्रति-पत्र ७२, । पंक्ति ११, । अन्तर ४०, । साईज ११४५ विशेष-~मूल ग्रन्थकार के सम्बन्ध मे देखें "ऐतिहासिक संशोधन ग्रन्थ ।
(अभय जैन ग्रन्थालय)
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[४७ ] (१२) माधव निदान भाषा आदिअथ रोग परीक्षा निदान लिख्यते ।
प्रणमेति ग्रन्थकार इयु कहेइ । रोगां का निश्चय ज्ञान होइ । जिसते सो ऐसा ग्रन्थ करो । हो क्यूं करि करहू । सिब को आदि ही नमस्कार करिये । महादेव के नाम बहुत हई । सिव नाम जो आनिधा सा प्रन्थ कार । दोह नाम महादेव का कियूं न आनि राख्या । इस ग्रन्थ को जो पढ़ाए तथा पढ़े । तिनादे कल्याण पदेनमिति ।
अंतअंत के पत्र अप्राप्य हैं। प्रति--पत्र १३३, । पंक्ति ९, । अन्तर ३०, । साइज १०४५
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय) (१३) माल कांगणी कल्प (गद्य) मादि अथ माल कांगणी कल्प लिख्यते ।
माल कांगणी सेर २। तेल तिल्ली का सेर २। गऊ का घृत सेर २। मधु सेर २। गऊ का मूत्र सेर ४। माटी के पात्र मध्ये सब एकत्र करके मुख मूंदी करी दीपाग्नि देणी । पहर । ७ ।
अंत-द्वादश अंत परह (पहर?) जोग कार्य सिद्धी होइ । गेहूँ घृत खाय । निश्च सिद्ध होई। खाटाखारा वजनीक । प्रति-पत्र २, पंक्ति ११, अक्षर ३०, साइज ९॥४५॥
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय) १४ मूत्र परीक्षा । पद्य ३७. लक्ष्मी वल्लभ । आदि
आदि का पद्य अप्राप्य है। अंत
मूत्र परीक्षा यह कही, लच्छि वल्लभ कविराज ।
भाषा बंध सु अति सुगम, बाल बोध के काज ॥ ३७ ॥ लेखन-सं० १७५१ वर्षे कार्तिक वदि ६ दिने श्री बीकानेर मध्ये । प्रति-पत्र १,
(नवलनाथजी की बगीची)
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[४८ ] (१५) रस मंजरी । समरथ । सं० १७६४ फाल्गुन ५ रविवार, देश आदि
शिव संकर प्रणमुं सदा, उमा धरै अरधंग । जटा-मुकुट जाके प्रगट, वहत जु निरमल गंग ॥१॥ ताको दो कर जोरि के, करूं एह अरदास ।। वछित वर मोहि दीजिये, हरहु विघन परकास ॥ २ ॥
वैद्यनाथ ब्राह्मण • भयों, ताको पुत्र परसिद्ध । शालिनाथ जसु नाम है, शुचि रुचि सदा सुबुद्धि ॥ ५॥ शास्त्र अनेक विचार के, देखि वैद्य संकेत । तिसने करी रसमंजरी, सुकृति जन के हेत ॥ ६ ॥ कोविद मधुभृत बूंद के, हरे निरंतर चित्त । रस अनेक जामैं वसैं, अनुभव कीए जु नित्त ।। ७ ॥ किये शालिनाथ रस. मंजरी, संस्कृत भापा माहि। समझि न सकति मूढ़ की, व्याकुल होत है आहि ॥ ८ ॥ तातें भापा करत है, श्वेताम्बर समरस्थ ।
सुगम अरथ सरलता, मूरख जन के अरथ ॥ ९ ॥ मंत
संवत सतेरसय चौसठि समै, ६७६७ (१) फा (गु) न मास सब-जन को रमै । पांचमि तिथि अरु आदित्यवार, रच्यो ग्रन्थ देरै मझारि ॥ ११ ॥ श्री मतिरतन गुरु परसाद, भाषा सरस करी अति साद । ताको शिष्य समरथ है नाम, तिसने करि(यह)भाषा अभिराम ॥ ४२ ॥ रस मंजरो तो रस सों भरी, पढ़ी सुनहु तुम आ [ दर करी] वनवाली को आग्रह पाइ, कीयो ग्रंथ मूरख समझाई ॥ १३ ॥ रस विद्या में निपुण जु हौइ, जस कीरति पाये बहु लोइ ।
जहां तहां सुख पावै सही, सो रस विद्या प्रगटावै कही ॥ ४४ ॥ इति श्वेताम्वर समर्थ विरचितायां रस मंजरी
चिकित्सा छाया पुरुष लक्षण कथन दसमोध्यायः ॥ १०॥ समाप्तोयं रसमंजरी भापा ग्रंथ शुभं।
लेखन-१८ वी शताब्दी। प्रति-१-पत्र ३० । पंक्ति १३ । अक्षर ४४ । साईज १०x४||
(अभय जैन ग्रन्थालय) १ पाठा० रस नाणही ।
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[ ४९ । २-अपूर्ण । महिमा भक्ति ज्ञान भंडार ब० नं० ८७ । विशेष प्रस्तुत ग्रन्थ के १० अध्यायो के नाम व पद्य संस्था इस प्रकार है१-रस शोधन कथन प्रथमोध्यायः
पद्य ३७ २-रस जारण मारणादि कथन द्वितीयोध्यायः
,, ६८ ३- उपरस शोधन मारण सत्व नियात माणिक्य सोधन मारण कथन तृतीयो
___ध्यायः पद्य १० ४–विष लक्षण, विष सेवा, विप परिहार, कथन चतुर्थोध्यायः पद्य ३२ ५-स्वर्णादि धातु शोधन मारण कथन पंचमोध्यायः ६--रसमारण कथन षष्टोध्यायः ७-वीर्य रोधनाधिकार सप्तमोध्यायः ८- ? नाम अप्राप्य ९-मिश्रकाध्यायः नवमः १०-छाया पुरख लक्षण कथन दशमोध्यायः (१६) वैदक मति । दोहा १०१ । कवि जान । सं० १६९५ आदिअथ वैदकमति पद नांवौ।
आदि भलह को नाम ले, दोम महमद नाम । वैदक मत की सीख ये, कहत जान अभिराम ॥ १ ॥ कहत जान कवि यौ लिख्यो, वैदक ग्रन्थन माहि ।
अनुरुचि है तौ तीजीय, अनरुचि लीजै नाहि ॥ २ । अंत
जौबत तथा क्रोध करि, काहू काटै आइ । फूल करर दोनुं सदल, ता ऊपरि घसलाइ ॥ १०० ॥ सौरहसै पंचानवै, ग्रन्थ कीयो यहु जान ।
वैदकमति यह नाम है, भाख्यौ बुद्धि प्रमान ॥ १०१ ।। इति पद नावां वैदकमति संपूर्ण।। लेखन-सं० १८०१ वर्षे वैशाख वदि ३ श्री मरोटे लि०६० भुवनविशाल मुनिना। प्रति-शिक्षासागर की प्रति के ५ वे पत्र के द्वितीय पृष्ट से इसका प्रारंभ हुआ है और ७ वे पत्र मे संपूर्ण हुआ है। अतः पत्र २ पंक्ति १६, अक्षर ५० साइज १०४४।
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[ ५० j विशेष-प्रारंभ मे स्वास्थ्य सम्बन्धी उपयोगी शिक्षाओ के बाद कई औषध प्रयोग __ है। जनसाधारण के लिये प्रस्तुत ग्रन्थ विशेष उपयोगी है।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (१७ ) वैद्यक सार । जोगीदास ( दास कवि ) । सं. १७६२ आश्विन शुक्ला १० । बीकानेर। आदि
वित हरण सब सुख करन, भाल विराजत चंद । सिद्ध रिद्ध जाके सदा, जय जय गवरी नंद ॥ १ ॥ प्रथम गणेश्वर पाय लग, अपने चित्त के चाय । भाषा शुभ करिकै कहूँ, वैद्यकसार बनाय ॥ २ ॥ नव कोटि मे मुकुट मन, बीकानेर शुभ थान । राज करै राजा तहाँ, नृप मन नृपति सुजान ॥ ३ ॥ जाँकै कुँवर प्रसिद्ध जग, सब गुण जान अनूप । जोरावर सिंह नाम जिह, राज सभा को रूप ॥ ४ ॥
तिन महाराज कुंधार की, उपज लखी कविराय । अपने मन उछाह सों, भाषा करी बनाय ॥ ११ ॥
संत
अथ कवि वर्णन--
धीकानेर वासी विसद, धर्म कथा जिह धाम । स्वेताम्बर लेखक सरस, नोसी जिनको नाम ।। ७२ ।। अधिपति भूप अनूप मिहि, तिनसों करि सुभभाय । दीय दुसालौ करि करै, कह्यो जु जोसीराय ॥ ७३ ॥ जिनि वह जोसीराय सुत, जानहु जोगीदास । संस्कृत भाषा भनि सुनत, भौ भारती प्रकाश ॥ ७४ ॥ जहां महाराज सुजान जय, वरसलपुर लिय आंन । छन्द प्रवन्ध कषित करि, रासौ कह्यो बखान ॥ ७५ ॥ श्री महाराज सुजान जव, धरम ललक मन आंन । वर्षासन संकल्प सौ,दीय सांसण करि दान ॥ ७६ ॥ व्यतीपात के पर्व विच, परवानो पुनि कीन । छाप आपनी आप करी, दास कविनि को दीन ॥ ७७ ॥
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अंत
[५१ 1
सब गुन जन सुजानसिंघ, सब रायनि के राय । कविराज सु करि कृपा, बहुरि दयो सिरपाय ॥ ७८ ॥ जिन महाराज सुजांन फै, जोरों कुंवर सुजान | कलि में दाता कर्ण सो, सूरज तेज समांन ॥ ७९ ॥ जिनके नामै ग्रन्थ यहु, करयो दास कवि जान । राज कुंवर की रीझ को, अब कवि करै बखान ॥ ८० ॥
नयन २ खंड६ सागर७ अवनि १, ऊजल आश्विन मास दसम धौंस कवि दास कहि, पूरन भयो प्रकाश ॥
इति श्रीमन्महाराज कुंवार जोरावरसिह विरचितायां वैद्यक सारे । प्रथम पुरुप मर्दी
स्त्री कष्टी छूटे नाल परावर्त्ति
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उपाय
+
+
+
वर्ननं नाम सप्तमो अध्याय: । ७ शुभं भवतु | कल्याण मस्तु ||
लेखन --- १९ वीं शताब्दी |
प्रति--पत्र ३९, पंक्ति १०, अक्षर ३२, साईज ९×५
( अनूप संस्कृत पुस्तकालय )
( १८ ) वैद्य विनोद ( सारंगधर भाषा ) । पद्य २५२५, । रामचन्द्र | सं०१७ शु० १५ । मरोट
२६ वै०
भादि
परधान ॥ ३ ॥
श्री सुखदायक सलहीये, ज्योति रूप जगदीस । सकत करी सोभइ सदा, श्री भगवत निशदीस ॥ १ ॥ हेमाचल ओषद करी, ज्यूं राजै भू मांह | युं उमापति राज है, प्रणम्यां आपद जांहि ॥ २ ॥ युगवर श्री जिनसिंहजी, खरतर गच्छ राजांन । शिष्य भए साके भले, पदमकीर्ति ताके विनय घणारसी, पदमरंग रामचन्द गुर देव कों, नीकै प्रणयें सारंगधर अति कठिन है, बाल न पावे ता कारण भाषा कहूँ, उपजै पहिली गुरु मुख सांभली, भाव ता पीछे भाषा करी, मेटन पंडित भाषा देखि के, करिस्यै मोकुं हासि । सारंगधर तो सुगम है, योंहि कयौं प्रकास ॥ ७ ॥
ज्ञान
भेद
परिज्ञान ।
सकल अज्ञांन ॥ ६ ॥
गुणराज ।
आज ॥ ४ ॥
भेद |
उमेद ॥ ५ ॥
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[ ५२ ] तेट पंडित वचन ले, ताको सुणि अधिकार । ज्यों तागौ मणि के विपे, छिन्न करे पैसार ॥ ८ ॥ ऐसी विधि मारग रह्यो, मेरी मति अनुसार । कहूँ चिकित्सा सांभलौ, दोस न देहु लिगार ।। ९ ।। विविध चिकित्सा रोग की, करी सुगम हित आणि । वैद्यविनोद इण नाम धरि, यांमै कीयौ बखाण ॥ १० ॥
अंत
पहिली कीनौ रामविनोद, व्याधि निकंदन करण प्रमोद । वैद्य विनोद इह दूजा कीया, सज्जन देखि खुसी होइ रहीया ।। ६० ।।
कविकुल वर्णन चौपाई।
गरुआ खरतरगछि सिणगार, जाणे जाकुं सकल संसार जिनके साहिब श्री जिनसिंघ, धरा मांहि हुए नरसिध ॥६॥ दिल्लीपति श्री साहि- सलेम, जाकुं मान्यो बहु धरि प्रेम । बहु विद्या जिनकुं दिखलाय, दयावान कीने पतिसाहि ॥६५|| शिष्य भले जिनके सुखकार, पदमकीरति गुण के भंडार ।। ताके शिष्य महा सुखदाई, सकल लोक में सोभ सवाई । ६६॥ वाचनाचार्य श्री पदमरंग, बहु विद्या जाने उछरंग। चिर जीवौ धू रवि चंद, देख्यां उपजै अतिहि आणंद । ६७॥ रामचंद अपणी मतिसार, वैद्य विनोद कीनो सुखकार । पर उपगार कारण के लई, भाषा सुगम जो मह करि दई ॥६८॥ रस६ ग सागर शशि' भयो, रित वसंत वैसाख । पूरणिमा शुभ तिथि भली, प्रन्थ समाप्ति इह भाख ।।६६॥ साहिन साहिपति राजतौ, औरंगजेब
नरिंद। तास राज में ए रच्यो, भलो ग्रन्थ सुखकंद ।।७०॥ गठनायक है दीपता, श्री जिनचंद राजान । सोभागी सिर सेहरी, वंदे सकल जिहांन ॥७१।। मरोट कोट शुभ थान है, वशे लोक सुखकार । ए रचना तिहां किन रची, सबही कुं हितकार ॥७२॥ पर उपगारी ग्रंथ है, सकल जीव सुखकार ।
थिर रहिज्यौ जां लगि सदा, तां लगि धू इकतार ॥७३।। इति श्री वणारस पद्मरंग गणि शिष्य रामचंद विरचिते श्री वैद्यविनोदे नेत्र प्रसादन कल्प नामाध्याय । इति श्री वैद्य विनोद संपूर्ण । ग्रन्थ संख्या ३७०० ।
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[ ५३ ] लेखनकाल–सं० १८१० फाल्गुण शुक्ला ६ सहजहानाबाद । रत्नकलशभ्रातृ हितधर्म लि.
प्रति-पत्र ९८ विशेष प्रस्तुत ग्रन्थ तीन खण्डों में विभक्त है, जिनकी क्रमशः पद्य संख्या ४५६+१२९२+७७७-२५२५ है।
(दान सागर भंडार बं० नं० २५) (१९) वैद्यहुलास (तिब्ब सहावी भाषा)। पद्य ३१५ । मलूकचंद । आदिअथ वैद्य हुलास-तिब सहावी भाषा लिख्यते ।
दोहरा निकृ (ख ? क्ष) त देव चित्त धरन धर, रिद्धि सिद्धि दातार । विमल बुद्धि देवे सदा, कुमति विनासन हार ।। १ ॥ दूजे सरस्वती ध्याइये, अरु सिमरो सारद माइ । सुगम चिकित्सा चित्त रची, गुरु चरणे चितु लाइ ॥ २ ॥ श्रवणे प्रथमे सुनि लई, तिब सहाबी आहि। पाछे भाषा ही रची, गुनजन सुनिभो ताहि ॥ ३ ॥
वैद्य हुलास जो नाम धरि, कीयो ग्रन्थ अमीकंद । श्रावक धर्म कुल पक्ष(जन्म) को, ना (म) मलूक सु (सौं) चंद ॥५॥
कुलांजण ककड़ासिंही, लोंग कुढ सु कचूर ।
भीडंगी जल वपत सो, महाकास हुइ दूर ॥४०४॥ इति श्री मलूकचंद विरचिते तिब्ब सहावी भाषा कृत नाम वैद्य हुलास समाप्तं १॥
लेखन-पं० प्र० श्री १०८ श्री चैनरूपजी पं० प्र० श्री १०५ श्री श्रीचंदजी to पनालालि लिखतं समाप्ता । संमत १८७१ मिती ज्येष्ठ वदि ४ अदितवार । श्री मोजगढ़ मध्ये।
प्रति-पत्र २६ । 'क्ति १३ । अक्षर ३० । साइज १०४४।
विशेष-इसकी एक अपूर्ण प्रति भी हमारे संग्रह मे है। एक अन्य पूर्ण प्रति कृपाचंद्रसूरि ज्ञान भंडार मे थी जिसमे इसके पद्य ५१८ थे।
(अभय जैन ग्रन्थालय)
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[ ५४ । (२०) सत श्लोकी भाषा टीका । चैनसुख जती। सं० १८२० भाद्रपद कृष्णा १२ शनिवार ।
आदि-प्रति अभी पास मे न होने से नहीं दिया जा सकता। अंत-संवत अठारे वीस के, मास भाद्रपद जाण ।
कृष्णपक्ष तिथ द्वादशी, वार शनिश्चर मान ।। १ ।। टीका करी सुधारि के, चैनसुख कविराय ।
आज्ञा पाय महेस की, रतनचन्द के भाय ॥ २ ॥ लेखनकाल–१९ वीं शताब्दी । विशेष-टीका गद्य में है।
(यति विष्णुदयालजी, फतहपुर ) (२१) हरि प्रकाशआदिअथ हरि प्रकाशाभिधस्य वैद्यक ग्रन्थस्य व्रजभाषा प्रसादि शोधन मारण विधान ।
रस उपरस, विष उपविपहि, सबै धातु उपधातु ।
कहौ रतन, उपरतन औ, शोधनीक जे घात ।। १ ।। अंत
भल्ला तरु पुरु राम बहि, पंच लौंण अय क्षार ।
सोधण कहें निघंट मैं, गुण मारण नहिं धार ॥११॥ कही रसादिक विधि सवै ... ......... । प्रति-पत्र ९ । पंक्ति १२ । अक्षर ४५ । साइज १०४७ अंगु ल
(श्री जिनचारित्र सूरि संग्रह )
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(ङ) रत्न परीक्षा विषयक ग्रन्थ (१) पाहन परीक्षा । जान कवि । सं १६९१ । आदि
करता सुमरण कीजिये, निश वासर यह तस्थु । निस्तारण तारण जगत, पोषण भरण समत्थु ।। नबी महमद मुसथकार, चाहेत जिहा सीसू । ताकी चाहत आस सव, धर्मी पुनि पापीसू ॥ पाहन की परिख्या कहूँ, जैसे ग्रन्थ बखान । को मुहरो किन काम को, प्रगट कहत कवि जांन । हिन्दी तुरको मति मथो, कथो खंड बखानि । कहत जान जानत नहीं, सोउ लहत सुजानि ।।
अंत
रखत कपूर जु अपने पास, कवल बात दुख देत न तास । अन्द नारियर कोयउ आदि, तिनको उड़ि लागत है ताहि ।
पाहन परिख्या भाखि जान, जेसी विधि ग्रन्थनि परमानि । लेखनकाल–१९ वीं शताब्दी । प्रति-(१) दानसागर भंडार ।
(२) गुलाब कुमारी लायब्रेरी, कलकत्ता । गुटका नं० ३९ (२) पाहन परिक्षा ( संग वर्णन) आदि
दाहा
किसन देव गुरु ध्यान कर, शिव सुत गौरि मनाय । संग जाति धनन करुं, पढ़त ज्ञोग होय ताय ॥
॥
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संग कहत कंची संग कुं, जुगल मिलण कहै संग । संग नाम पापाण को, ताके अद्भुत रंग ॥ २ ॥
संग गिलोला, नाम है, अवलाखा रंग तांहि । जहां तहां कहुं होत है, जात खार के मांहि ॥ ८० ॥ नाम जराहि संग है, असमानी फोका ताहि ।। पूरव दखिण देस में, भरै घाव मिट जाय ॥ ८१॥
पचभदरा संग नाम है, लूण होत है तांह। विशेष
(ग्रन्थ अपूर्ण) लेखनकाल–१९ वीं शताब्दी । प्रति-पत्र २ । पंक्ति १६ । अक्षर ४२ ।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (३) रत्न परीक्षा । पद्य १३६ । कृष्णदास । सं० १९०४ कार्तिक कृष्णा २ आदि
कृष्णदेव गुरु ध्यान करि, सिव सुत गौरी मनाय । संग जाति वर्णन करौ, पढ़त ज्ञान होय ताहि ।। १ ।।
अंत
चन्द्र चाप सुनि वेद ही, सम्वत उरजु जु मास ।' कृष्ण पक्ष तिथि दूज ही, भूसुर कृष्ण जु दास ॥ भूसुर कृष्ण जु दास की, मन सुख नाम हैं । आया बीकानेर ग्राम, तोसाम हैं । १३२ ।। कृती करी यह ताहि, मित्र सुन लीजिये । छंद भंग कहि होय, सुन्द कर दीजिये ।। १३३ ॥ जोहरी कृष्ण जु चंद ही, श्रावग कुल हि निवास । विक्रमपुर का वासिन, पुनि दिल्ली में वास ।।१३४ ।। जाति बोथरा नाम है, सुनो सवन दे ताय । ताही पढ़न के कारणे, मै भाषा रची बनाय ।। १३५ ।। रस्न परिच्छा ग्रन्थ ही, पढ़े सुने जो कोय । रस्न परीक्षा मुनि करे, रन सरीखा होय ।। रत्न सरीखा होय, मान नहो कीजिये । दया धर्म के बीच, मीत चित दीजिये।
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[ ५७ ] कहिये वचन विचारि, कपट तजि दीजिये ।
भज कमला-पति चरण, सुरग-सुख लीजिये ॥ १३६ ।। इति रत्नपरीक्षा ग्रन्थ । लेखनकाल–संमत् १९०४ कातिक वदि ९ लि० महात्मा हरखचंद विक्रमपुर मध्ये। प्रति-गुटकाकार नं० ३९
(वृहद् ज्ञानभंडार) (४) रत्न-परीक्षा । तत्व कुमार । सं० १८४५ श्रावण कृष्णा १० भादि
आदि पुरख आदीसरु, आदिराय आदेय ।
परमातम परमेसरु, नमो नमो नाभेय ॥ १ ॥ अंत
श्रावण वदि दसमी दिन, संवत अढार पैंताल । सोमवार साचो सुखद, ग्रन्थ रच्यो सुविशाल । खरतर गच्छ जाणे खलक, मोटिम बड़े मंडाण ।। ३ ।। सागरचद सूरीस की, ता मक्षि साखा भाण ॥ ४ ॥ ता शाखा में दीपते, महोपाध्याय जगीस । आगम अरथ भंडार है, पदमकुशल गणिश ॥ ५॥ प्रथम शिष्य तिनके कहूँ, वाचक के पद धार । दशनलाभ गणि कहें, ताहि शिष्य सुविचार ।। ६ ॥ पं० संज्ञा धारक प्रवर, तत्वकुमार सुजाण ।
ग्रन्थ रच्यो बहु हेत धर, दिन दिन अधिक बखाण ।। ७ ।। लेखनकाल–सं० १८४७ विशेष-बंग देश के राजगंज के चंडालिया आसकरण के लिये रचित । प्रति-(१) प्रतिलिपि-अभयजैन ग्रन्थालय ।
(२) गुटकाकार-वृद्धिचंद्रजी यति संग्रह जेसलमेर ।
(३) मुनि कांतिसागरजी साहित्यालंकार । (२) रत्न परीक्षा। पद्य ५७० । रत्नशेखर । सं० १७६१ मार्गशीर्ष शुक्ला ५ गुरुवार । सूरत । शंकर के लिये। आदि
ऊंकार अनेक गुण, सिद्ध रूप परगात । पांच पद यामैं प्रगट, सुमिन पूरन आस ॥ १ ॥
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[ ५८ ] अलख रूप यामें वसे, अनहद नाद अनूप । ब्रह्मरंध्र आसन सजै, रच्यो अनादि सरूप ॥२॥ सुमिरन याको साधिके, रचिहु ग्रन्थ मति मानि । रत्न परीक्षा देखि फै, भाषा करहु वखानि ।। ३ ।। आन कवीसर के किए, संस्कृती सब ग्रन्थ । ताते मो मन में भई, भाषा रस गुन ग्रंथ ।। ४ ।।
सोरठा भाषा रस को मूल, भाषा सब को बोध कर । तातें हम अनुकूल, भाषा कारन मन करयौ ॥ ६ ॥ सूरति गुन मूरति जिहां, वसत लोग धन आढ । ताहि विलोक कुबेर कत, मान धरत मनि गाढ ॥ ७ ॥ तहाँ वसत दातार मनि, गुनी धनी सुचिसील ।। भाग्यवंत चतुरन चतुर, भीम साहि लछि लील ॥८॥ शंकर शंकर तास सुत, कुल मंडन जस जास।। ताहि विलोक विचछन ही, होवत हीयै प्रकास ॥ ९ ॥ श्री श्रीवंश उद्योत कर, धरमवंत धुरि धीर । सकल साह सिरदार घर, भंजन दारिद नीर ॥१०॥ ताकी इच्छा इह भई, रतन सबन ते सार । या की भाषा करि पढ़े, गढ़े हीयन दिढ हार ॥११॥ ताकी रुचि सुचि साधके, रचिहुं चित्त धरि चुप । मन वच क्रम मग पाइ वर, मनि जिन आनहु कोप ॥१२॥ वाचक रस प्रकास कर, रत्न परिच्छा भेद । कहत रत व्यवहार इह, मनसौं धरयो उमेद ॥१३॥ संवत सतरह से अधिक, साठि एक करि भौंन । भगहन सुदि पंचम दिने, गुरु मुख लहि गुरु भोन ॥१४॥ ऋषि सबै कर जोरि के, मुनि अगस्ति ढिग आइ ।
पूछन रत्न विचार सब, विधि सो प्रणभी पाय ॥१५॥ अंत
छप्पय विद्या विनय विवेक विभौ धानी विधि ग्याता ।
जानत सकल विचार सार शास्त्रन रस श्रोता । भीमसाहि कुलभान साहि शंकर शुम रछन ।
पढत गुनत दिन रयन विविध गुन जानि विचछन । कुलदीपक जीपक अरपि भरीया लछि भंडार जिहि ।
दोहि रस व्यवहार रस इह प्रारथना कीन तिहि ॥७७॥
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[ ५९ ]
दोहा ता कारन कीनो अलप ग्रन्थ जु मो मति मानि । सज्जन सुनि सुध कीजीयउ, जहाँ घट मात्रा जानि ॥७॥ अंचल गछपति श्री भमर, सागर सूरि सुजान । ताके पछि पाचक रतन, शेखर इमि अभिधान ॥७९॥ तिन कीनी भाषा सरस, पढ़त होत बहु मान । . प्रथम लेख सुंदर लिख्यौ, विबुध कपूर सग्यान ॥८॥ रवि शशि मंडल मेरु महि, जो लौं हुभ आकाश ।
पढे सौ तौ लं, थिर रहै, लीला लछि विलास ॥४१॥ इति श्री वाचक रत्नशेखर विरचिते रत्नव्यवहारसारे श्रीमच्छीशंकरदास प्रिये मणिव्यवहारो नामाष्टमो वर्ग:॥ ८॥
इति रत्न परीक्षा ग्रन्थ संपूर्णमिदं ॥ प्रतिपरिचय-(१) पत्र ३२ । पंक्ति १३ । अक्षर २५ से ४५ तक । साइज ११४५।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (२) अन्यप्रति-(वृहद ज्ञान भंडार) विशेष-वर्गनाम व पद्यसंख्या-१ वन पद्य १०५, मौक्तिक १२९, माणिक्य ९०,
नीलमणि ४३, मरकत मणि ३३, उपरल ४७, नानोरत्न १८, माणिक्य ८१,
प्रारंभिक १४ । कुल पद्य संख्या ५७० । (६) रत्न परीक्षा । पद्य ७० । रामचन्द्र । आदि
प्रथमहि सुमर गनेश को, जात बाधे बुद्ध । ता पीछे रचना रचौ, रतन परिच्छा सुध ॥ १॥ रत्न दीपका ग्रन्थ में, रतन परिच्छा जानि ।
रामचन्द्र सौ समझि के, भाषा करनो आनि ॥२॥ अंत
सवैया मधुकर परीक्षा-निसा मुख ससी बुध गाइहू को काचौं लेह,
ताके बिच मनिह को मेल्हि निसो ठानिये । भा (नु उ) दे देखत ही दुद्ध लाल रंग होत, • तातै जानों सत्रुन सौं जुद्ध जीत जानिये ।
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काल रंग विष हरे पीले पित वाय नसे,
वीतडयो सो पेट सुलंनिलोपित दांनिये । नीर पय जैसो य सोई राज मान देत,
इहै वीध ननि के गुननि पहिचानिये । इति रत्नपरीक्षा संपूर्ण। लेखन काल-सं० १९३७ रा मिति आसु वदि १३ शनिवारे । शुभंभूयात् । प्रति-पत्र ११ । पंक्ति १३ । अक्षर २५ से ३० ।
( दानसागर भंडार व० नं० २५)
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(च ) संगीत-ग्रंथ
(१) रागमाला । पद्य ३८४ । उस्तत । सं० १७५८ मगसर सुदी १३ । भेहरा । आदि
भरथनाद ग्रंथ ताकी सांख (१) 'नादग्राम स्वरापदा।' आदि श्लोक। सर्व संगीत विधि
आद नाद ध्यावै गुणगराम को मरम पावै सातो सुर सगम पधन वृत्तंत है। चित बीच लै लागै गम कामै जोत जागै मुर्छना अ क ताल बरग अनंत है। आलस्या उघट किलक तानि निरत हमै राग रागनी सरूप बूझमै अनंत है। इंद्री भेद जानै सो सनि पिहछानै जोग सोई राग मह जान सोई कलावंत है ॥ २॥ नाद वर्णण
दोहा एक आप हर रुप है, अनहद अगम भतोल । लख चौरासी मै बन्यो, जोन अनूपम बोल ॥ ३ ॥ बोलन मैं भरु पठन मै, राग कला मै सोय । जोग सबन मै नाद है, बिता नाद नहि कोइ ॥ ४ ॥
अंत
जो कछु देख्यो भरथ मै, कीनो योग विचार । जो कुछ चूक परी कहूँ, सुरजन लेहू सुधार ॥ ७ ॥ नगर भेहरो वसत है, नदी सरश्वती कूल । च्यार वण चारों सुखी, धर्म कर्म को मूल ॥ ७७ ॥ उत्तर दिसि पछिम हितु, अमर कुंड तट धन्य । पट रस भोजन सोज जिह, तिनि की सैंधवारन्य ॥ ७८ ॥
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[ ६२ ] औरंग साह महा बली, साहन फै सिरताज । करी रागमाला सर (स), ताकै भवचल राज ॥ ७९ ॥ चौरासी देस है, अरु चौरासी राग । देस देस में राग है, गावत गुनी सुभाग ॥ ८ ॥ चतुरासी जो देस है, सुन ले ताके नाम । पातसाह उस्तत कहै, गुनी जोग सुभ काम ॥ ८ ॥ संमत विकम जोत को, सतरै से पंचास । आठ वरस दुन और संग, कीनो अन्य प्रकास ॥ ८२ ॥ बुद्धवार तिथि त्रयोदशी, सुकल पख्य परधान । कहि राग माला प्रगट, मगसिर मास प्रधान ।। ८३ ।। राग की माल श्री माल धनी चुनि उच्छर फूल समो संगवासी। नाद को मेरु धरयो पट नारन कंठ कहैऽनुराग हुलासी। सत्संग विचार हजार हजार परे सुन ते रस मै बुध जोग प्रकासी।
राग संगीत के भेद को देख कै नाउ करयो तिह राग चौरासी। ८४ ॥ इति रागमाला। श्रीरस्तु । शुभं भवतु । लेखक पाठकयो । लेखनकाल–१८ वीं शती। प्रति-(१) पत्र ११ । पंक्ति १७ से १९ । अक्षर ५० से ५५ । साइज १०४४।
(महिमा भक्ति भंडार) (२) पत्र ४ । अपूर्ण ।
(हमारे संग्रह में) (९) राग विचार । पद्य ९८ । लछीराम । मादि
गुरु गनेश मन सुमरि कछु, कहौ कामिनी कंस । राग ताल मिति नाहिने, गुरु कहि गये अनन्त ॥ १॥ देव रिपिनि कीने विविध, मत संगीत विचार । लछीराम हनिवन्त मत, कहै सुमति अनुसार ।।
अन्त
धैवतु प्रह सुर रागना भरु कामोद सुनाठ ।
लछीराम ए जानि के तन मन भाणंद पाउ ॥ १७ ॥ प्रति-(१) पत्र ५ (अनूप संस्कृत लाय ब्रेरी)
(२) पत्र ९ सं० १७३२ चै० सु०७ । लि० जनार्दन । (१०) राग माला । पद्य ८५ । सागर ।
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[ ६३ 11 भादि
अथ रागमाला लिखतेगुरु प्रसाद सागर सुकवि, कृष्ण चरण रिदै धारि । उतपंत जो षट राग की, ताका कहै विचार ॥ १ ॥ कहां तां उपजे रागषट, सुत नारी पित मात ।
देस समो रुति पर तिनिह, तिनकी वरनो वात ॥ २ ॥ भंत
राग रागिणी पन सपौं, गावत समे ज कोइ ।
सख सिध सागर सुकवि, सो फल दायक होइ । लेखनकाल–१८ वीं शती।
प्रति-पत्र २ । पंक्ति ११-१२। अक्षर २५ से ३२ । साइज १०x४। पद्य २५+११ के बाद (आगे के पत्र न होने से ) ग्रन्थ अधूरा रह गया है । अतः अन्त का अंश अनूप संस्कृत लायब्रेरी के गुटके से लिखा गया है।
(अभय जैन ग्रन्थालय)
(२) रागमाला-पद्य ६१ । हीरचन्द । सं० १६९१ । मांडलिनगर ।
भादि
अकल अरुप अमेय गुन, सुंदर रै जसु दीन । परम पुरुष पय लागि के रागमाल यह कीन ॥५॥ ब्रह्मादिक हरिहर सबै अहि निसि सब जग आहि । कोटि कल्प युग धीहि(ति) गए, भेद न पायो ताहि ॥ २ ।। सुर नर मुनिवर गन असुर, नाद ध्यान सब छीन । आप आपनी बुद्धि तें, है कोई नहीं हीन ॥ ३ ॥
अन्त
असित देह रमणी कलभ, लिखित कुसुम पीय हास । मुगध धनासी लोचनह, मृगमद तिलक सुवास ।।५९।। सपत सोले एकानधैं मांडलि नयरि मझारि । राग रागिनी भेव कीय, गुणी जन लेहु विचार ॥६॥ सब जन कारन यह रची, रागमाल सुचि मेघ ।
हीरचन्द कवि सुचि कीय, नागरि जन के हेव ॥६॥ इति रागमाला समाता। लेखन काल-१८ वीं शती।
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[६४ ] प्रति-(१) पत्र ३ । पंक्ति २७ । अक्षर १८। साईज ४४७। (२) गुटकाकार प्रति में गाथा ५६ पीछे लिखते-लिखते छोड़ दिया है।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (३) राग माला। पद्य ९०। सं० १७४६ वि०। आदि
अथ गान कतुहल भाषायां राग संयोगः ।। कानरट ।। शुद्ध कानरउ आदि दे, भेद कानरे पंच । कह तिम से संगीत के, गुन जन मानस संच ।। १ ।। प्रथम कहत हों गाइ फै, शुद्ध कानरठ एक ।
भेद चार के गाईयइ, ताकौ सुनहू विनेक ॥ २ ॥ वागेसरी-कारठ इहाँ धनासरी दोउ मिलि अभिराम ।।
एकै सुर करि गाइये चागेसरी सुनाम ।। ३ ।। अंत
स्वर साधारण काकली श्रुत संगीति निवेद ।
बिनु स्वर महू न समझीए विस्तर तान सुभेद ॥९॥ . सर्व गाथा सलो (क) १०४ । इतिरागमाला सम्पूर्ण । लेखन-संवत् १७४६ वर्षे माह वदि कृष्ण पक्षे तिथि इग्या (र ) रस दे (दि) न वोधवारे पंडित रामचन्द गणि लीपीकृतं भटनेर मध्ये श्री रसते सोभ भवतो । श्री छ। प्रति-पत्रा २ । पंक्ति २० । अक्षर ५० । साईज १०४४।।
(अभय जैन ग्रन्थालय)
(५)रागमाला आदि
चले कामनी कंत के, गृह सुर अरु सब मेव ।।
रहनि ! रुप लक्षन कहों करो कृपा गुरु देव ।। १ ।। भैरव राग लछनं
सोरठा धरे रुद्र को भेप, तीनि नैन माथे जटा ।
भालचंद्र की रेख, भैरव को लछन सरस ॥ २ ॥ अन्तदेसकार लछन
नेन कमल मुस्त्र चंद, कुछ कठोर कंचन वरन । हरति नाह दुख दंद, देसकार सुकुमार तन ।
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. [ ६५ ] इति षट राग तीस रागिनी समेत समापतं । लेखनकाल–१९ वीं शती। प्रति-पत्र १ । लम्बी पंक्ति ४५+४३ । अक्षर १७ । साईज ४॥x१६ ।
(अभय जैन ग्रन्थालय)
(६) रागमाला भादि
भैरुं शिव मुख तँ भयो, धनी सुगति सुर सोय । सरद प्रात ही गाइये, जाति सु अडो होय ॥ १ ॥
मोदक छन्द घौवत सुर गृह ताको जानौ, शिव मूरति संगीत घखानौ । कंकन उरग और शशि भाल, सुर सुरि जटा गरै रुंड माल । खेत वसन नैन फुनि तीन, सिद्धि सरुप अरु महा प्रवीन ।। २ ॥
सोरठो कहो भैरवी नारि, वैराडी मधु मधु धुनी ।
सैंधवि तेहु विचारि, बगाली हू जानियौ ।। ३ ॥ विशेष-प्रथम पत्र ही उपलब्ध है । ग्रन्थ अधूरा ही प्राप्त हुआ है। लेखनकाल–१९ वीं शती। प्रति-पत्र १ (एक तरफ)। पंक्ति १३ । अक्षर ४८ । साईज १०४४।।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (७) रागमाला । दोहा ३६ । आदि
अथ रागमाला दूहा स्याम वरन तन दुख हरन सब रागन को राइ । चवर दुरै मरदन करें, वनिता भैरों भाइ ॥१॥ पुहप माल गल छाजि हैं, राग करत दै ताल । धाम फटक सरपो तरंग भाव भैरवी वाल ॥ २॥
अन्त
वैनी लाबी स्याम बहु, बंगाला रंग सेत।। राग रागनी तीस पट, सुनि राइ कर हेत ॥ ३६ ॥
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लेखनकाल–१८ वी शती। प्रति-पत्र २ । पंक्ति २७ । अक्षर २० । साइज ४x७।
(अभय जैन ग्रन्थालय)
(७) रागमाला | पद्य ८६ । आदि
रसनिधि गुननिधि रूपनिधि राग रंग निधि श्याम । श्री नट नारायण प्रगट, ताकी करूं प्रणाम ।। १ ॥ गुण निधि गंगादास, हरिजन साह कल्याण सुव । हरिजस केलि निवास, रागमाला ता हित गुही ॥ ५॥
अन्त
मधु माधुवा मिलि गोर तनु, धूमल हार श्रृंगार ।
भस्म पुण्ड अति अरुन तनु सवु भूपण उदार ॥ ८६ ॥ प्रति-पत्र २ । लक्ष्मीप्रभु लिखित ।
(श्री सीताराम शर्मा, राजगढ़)
(८) राग मंजरी-। शाकद्वीपी भूधर मिश्र । सं० १७३० माघ वदि ९ । आदि
स्याम घन-स्याम सुख आनन्द को धाम, जाको, राधावर नाम काम मोहन बखानिऐ । मन अभिराम मुरली को सुर ग्राम धरें, याम याम यम यम ध्यान उर आनिऐ । लसे वनमाला दाम वाम प्यारी गोपीवाम, मुनि गायें जाको साम काम रूप जानिऐ । भूधर नेवाज्यो राम वस्यो आए नन्द ग्राम, तिहू लोक ऐक धाम साची जिअ मानिऐ॥ १ ॥
दोहा
रंध्र राम मुनि चन्द्रमा, नोमी माघ की स्याम । दछिन गढ़ नाटेरि लगु, उपज्यो मन यह काम ॥ २ ॥ सूवा नाम विहार है, गद मुगेरि निज धाम । आजम साह पयान में, देख्यो दन्तिन प्राम ॥ ३ ॥ साकं द्वीपी भूमिसुर, मिश्र भार्गव राम । ता सुत भूधर यहो कही, राग मंजरी नाम ।। ४ ।।
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[ ६७ ] ले दर्पन संगीत को, मती कहे कछु भेद । राग रागिनी समय अरु, लछन पंचम वेद ॥ ८ ॥
इति सोमेश्वर मते राग रागिनी प्रथम प्रकास । अथ हनुमन्मते ।
अंत
सत्रह से चालीस मे, दूज उजरी पाख । नीरा तीर लिखी यहे, कटक स्वार तहा लाख ॥ ३ ।। आजम साह महाबली, आए उन्हके साथ ।
भूधर करि यह पुस्तकी, दीन्ही गिरिश के हाथ ।। ४ ।। इति श्री मिश्र भूधर वैद्य राज पंडित सकलं विद्या विनोद शाकद्वीपि द्विजवर विरचित रागमंजरी पुस्तक संपूर्ण।
लेखनकाल–२०१७४२ काती वदी १२बुध वीजापुर मध्ये लिखितं प्रो० विद्यापति तत्पुत्र हरिरामेण । प्रति-पत्र २७ । पंक्ति ८ । अक्षर ३२ ।
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय)
(१०) संगीत मालिका- महमद साहि ।
आदि- प्रारंभ के १० पत्र नहीं होने से नहीं दिया जा सका। मध्य
एक पताक त्रिपताक कहि पन कोप पुनि होए । अलि पन कह शास्त्र पुनि, संस पक्ष सुनि लोए ॥२४१।।
गद्य
पहिले ही पाउको फिराई स्वस्तिक वांधियहि हाथै। (फिराई स्वस्तिक बांधयहि हाथे) फिराइ स्वस्तिक कीजहि । पीछे हाथ को स्वास्तिक अरु पाऊन कौ स्वस्तिक विलगाई फिरावत वाऐ दाहिनै ले जइये पीछे हाथ पाउ वेर हूँ ऊँचे नीचे कीजहि तिहि पीछ उद्दत अणिहा उरो मंडर ए तीनिऊँ करण कीजहि तब आक्षिरे चित नाम अगहार होई।
अंत. इति कल्पनृत्यं । इति श्री पेरोज साह्या वंशान्वये मानिनी मनोहरे कामिनी काम पूरन विरहनी विरह भंजन सदा वसंतानंद कंदारि गज मस्तकाकुंश श्री
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[ ६८ j मत्तत्तार साह्यात्मज महमदसाहि विरचितायां संगीतमालिकायां नृत्त्याध्याय समाप्त। शुभं भवतु।
लेखन काल-१९ वीं। प्रति-पत्र ११ से ५३ । पंक्ति २० । अक्षर १६ । (मध्य के भी कई पत्र नहीं)
(अनूप संस्कृत लायब्रेरी) (११) हीय हुलास । सटीक । पद्य ६७ । आदिअथ राग रूपमाला लिख्यते ।
दोहाप्रथमहि ताको सुमिरियै, जिणे दीनो गुरु ग्यान । ज्ञानी गुन गावे सदा, ध्यानी धरे जु ध्यान ॥ १ ॥ अंवर थम्बी थंभ विन, धरती अधर धराय । मनुष्य रूप हुय अवतर्यो, देखत कलि को भाव ॥ २ ॥ हीये हुलास या अन्य को, राख्यो नाम विचार ।
यामें सिगरे रागन के, रचेय रूप सिंगार ॥ ३ ॥ अंत
महलारचीन गहे गावत बहुत, रोवत है जलधार । तन दुर्बल विरह दह्यो, विरहिन नाम मल्हार ।। ६६ ।। सेझ विछाई कमल दल, लेट रही मन मार ।
लेत उसास निसियरि तन, तनक वियोगिनी नार ॥ ६७ ॥ इति हियहुलास ग्रन्थ रुपमाला संपूर्ण ।
अथ रागमाला की टीका लिख्यते या को विचार याही में याकी मूर्छना याही में . तीन ग्राम सप्त स्वर याहि मे ग्राम १ ग्राम २ ग्राम ३ । दूहा
अन्तरागिनी पांचमी केदारा वखत घरी २ भारल्या २ भारज्या १ मारु वखत घटी २
इति रागमाला राग ६ रागिनी ३० भारज्या ४८ सय मिलि ८४ नाम संपूर्ण।। [ इसके बाद रागिनी-उत्पत्ति दिवस-रागिनी, रात्रि-रागिनी आदि के कई पद्य है।]
इति छतीस राग रागिनी नाम संपूर्ण । लेखन काल-१९ वी शती । प्रति-पत्र ४ । पंक्ति १७ । अक्षर ५२ । साईज १०॥४५। विशेष-टीका-टिप्पणी रूप ( संक्षिप्त स्पष्टीकरण मात्र ) है ।
(महिमा भक्ति भंडार)
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(छ) नाटक ग्रन्थ (१) प्रबोधचन्द्रोदय नाटक । हरि बल्लभ । आदि
श्री राधा वल्लभ पद कमल मधु के भाइ । हित हरि वंश बड़ो रसिक, रह्यो तिननि लपटाइ ।। १ ।। ताके चरननि बंदि के, वन चन्दहि सिर नाइ । रचना पोथी की करौं, जाते करें सहाइ ।।२।। कियो प्रबोधचन्द्रोदय जु, नाटक दीनो तोहि । कृष्ण मिश्र रचि बहुत विधि, वहै दिखाउ सुजोहि ॥१६॥ कीरति वर्मा की सभा, तिनकै चित यह चाउ। सो नाटकु नायक अबहि, इनकों सजि दिखराउ ।।१७॥ यह बात गोपाल जु, मोसों कही बनाइ । तातें जब घर जाइ के, आनो जुवति बुलाइ ।।१०।।
अन्त
हरि वल्लभ भाषारच्यो चित में भयो निसंक । श्रीप्रबोध-चन्द्रोदयहि छठओं बीत्यो अंक ।।
समाप्तोयं ग्रन्थः । लेखन काल-१८ वी शताब्दी । प्रति-पत्र १४+१९+१५+१३+१२+१५ । पंक्ति ११ । अक्षर ३२ ।
साईज १०४५। विशेष-राजा कीर्तिवर्मा तथा गोपाल का प्रारंभ मे उल्लेख मात्र है। .
(अनूप संस्कृत लायब्रेरी)
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[ ७० ] (२) प्रबोधचन्द्रोदय नाटक आदि-अथ प्रबोधचन्द्र नाटक लिख्यते ।
कवित्त
जैसे मृग सृष्णा विपं जल की प्रतीति होत,
रूपै की प्रतीति जैसे सीप विष होत है। जैसे जाके बिनु जाने जगत सत जानियत
विश्व सब तोत है। ऐसें जो अखंड ज्ञान पूर्ण प्रकाशवान,
नित्त समसत्त सुध मानन्द उद्योत है। ताही परमातमा की करत उपासना हैं,
निसन्देह जान्यो याकी चेतनाही जोत हैं ।।१।। ऐसे मंगल पाठ करी सूत्रधार अपनी नटी बुलाई यहां आज्ञा दीजे । । सूत्रधार बोल्यो। अन्तविशेष-प्रति के केवल तीन पत्र होने से अंत का भाग नहीं मिला, तथा कर्ता का नाम भी ज्ञात नहीं हो सका। प्रति--पत्र ३ । अपूर्ण । पंक्ति २४ । अक्षर ६२ । साईज ९" x ४" ।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (३) हनुमान नाटक । जगजीवन । आदिश्रीमज्जगजीवन कवे आत्म विनोदार्थ हनुमान्नाम्ना नाटक पर(?)यतुं समुद्यतः ।
कहे प्रिया कविराज कहि रामायन की बात ।
नाटक श्री हनुमान को नचौ अंक द्वे सात ।। अन्तसातवें अंक का समाप्ति वाक्य
ठठि जानुकि रन स्रवन दे दसआनन गत जोति ।
दुंदभिरि मृभेदंग धुनि ! अंत सख धुनि होति ॥ २९ ॥ इति श्री जगज्जीवन कृते महानाटके रावननिदहनो नाम सप्तम अंकः । इसके बाद आठवे अंक के ५४ वे पद्य तक है। बाद के पत्रे नहीं हैं। प्रति--पृष्ट ७२ । पंक्ति १८ । अक्षर १२ । साईज ६" x ९।।"।
(अनूप संस्कृत लायब्रेरी)
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(ज) काव्य ग्रन्थ
(१) कथा (१) अंबड चरित्र । हिन्दी गद्य । क्षमाकल्याण । आदि
वर्द्धमान भगवन्त के पावन पद अरविंद । आतम चित्त अंतरधरी प्रणमी नवपद वृंद ॥ १ ॥ अबंड नामे अवनिपति चावो चौथे काल । - श्रावक धीर जिनेश को ताको चरित्र विशाल ॥ २ ॥ श्री मुनि रन सुरिन्द कृत संस्कृत मय संबंध । वर्तमान अवलोक के विरचं भाषा बन्ध ॥ ३ ॥
गद्यधर्म सै सर्व लक्ष्मी संपजै धर्म सै प्रशंसनीक रूप संपजै, धर्म से सोभाग अरु वडौ आउखौ जीव पावै बहुत क्या कहे धर्म से सब मनो वंछित मिलै जैसे अंबड क्षत्रिय के धर्म के प्रसादे सर्व संपदा मिली आपदा मिटी उस अंबड का दृष्टान्त दिखावै है। भन्त
बाचक अमृतधर्म वर सीस क्षमाकल्याण, पालीताना पुरवरै चरित रच्यो यह जान । सय अठारा चौपन समै सुदि आषाढ सुमास । तृतीय तिथि कुजवार युत सिद्ध योग सुप्रकास ॥ आर्या उत्तम धर्मरुचि पुत्री सम सुविनीत ।
नाम खुश्याल श्री निमित्त, यही कीनौ धरि चित्त ॥ ३ ॥ लेखन काल-१९ वौं शताब्दी। प्रति--पत्र ३७।
(महिमा भक्ति भंडार) (२) कथामोहिनी। पद्य १२२ । जान कवि । सं० १६९४ अगहन शुक्ला ४। आदि
आदि अगोचर अलख प्रभु निराकार करतार । देनहार ज्यौ सकल तन, रचनहार सँसार ॥ १ ॥
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[ ७२ ] रवि ससि उडिन अफास सब पल मै करै प्रकास । देत हुलास उदास कौं पुजवन आस निरास ॥ २ ॥ नाम महंम्मद लीजियें, तन मन है आनंद । पूर्जे मन की इच्छ सब, दूर होंहि दुख दंद ॥ ३ ॥ अवहि बखानों जांनि काई, सुलप कथा चितु लाहि ।
पढत न हारै रसन जिह लिखत न कर अरसाइ॥ ४ ॥ अन्त
जौं लौं मोहन मोहनी जीये इह संसार । एक अंग संगही रहे रंचक घटयो न प्यार ॥२११ ॥ सोरह से चोरानवे ही अगहन सुद चार ।
पहर तीन में यह कथा, कीनी जान विचार ॥१२२॥ इति कथामोहनी कवि जान कृत संपूर्ण । लेखन काल-सं० १६३० वि०। प्रति-गुटकाकार पत्र ८ । पंक्ति १८ । अक्षर १७ । साईज ६४९।।। इस प्रति में कवि जान कृत सतवंती ( १६७८) भी है।
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय) (३) कुतवदीन साहिजादैरी वारताआदि___ अथ कुतवदीन साहिजादैरी वारता लिख्यते ।
वडा एक पातिस्याह । जिसका नाम सवल स्याह । गढ मांडव थांणा । जिसके साहिजादा दाना । मौजे दरियावतीर। जिसकै सहर मैं वसै दान समंद फकीर । जिसकी औरत का नाम मौजम खातू । सदावरत का नेम चलातू । जो ही फकीर
आवै । तिसकुं खांणा खुलावै। एक रोज इक दीवान फकीर आया । दावल दान घरां न पाया। अन्त
बेटे वाप विसराया, भाई वीसारेह ।
सूरा पुरा गल्लडी मांगण चीतारेह ॥१०॥ वात
असा कुतबदीन साहिजादा दिल्ली वीच पिरोसाह पातस्याह का साहजादा भया दांवलदान फकोर की लड़की साहिवा से आसिक रह्या बहुत दिनां प्रीत लगी। दुख पीड आपदा सहु भागी। पीरोसाहि का तखत पाया साहजादा साह कहाया । यह सिफत कुतवदीन साहिजादे की पढे बहुत ही वजत सुख सै व यह वात गाह जुग से रहि । ढढणी ने जोड कर कही।
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[ ७३ ] इति श्री दूतका ढढणी के प्रसंग कुतवदीन सहिजादै की वात संपूर्ण । लेखन काल-१९ वीं शताब्दी। प्रति-गुटकाकार । पत्र २४ से ३० । पंक्ति ३२। अक्षर २४ । साईज ६।४८
(अभयजैन ग्रन्थालय) विशेष-१०७ पद्य दोहे-सोरठे हैं, बाकी गद्य है, इस वार्ता की प्रचीन प्रति १७ वीं शताब्दी की भी उपलब्ध है, पर उसका पाठ इससे भिन्न प्रकार का है। (४) चंद हंस कथा। टीकम। सं० १७०८ जेठ बदि ८ रवि । भादिअथ चन्द्रदंश कथा लिखिते ।
दोहा , ऊंकार अपार गुण, सबही आर भादि । सिधि होय याकुं जुपे, भक्षर एह अनादि ॥ १ ॥ जिण बांणी मुख उचरै, ऊं सबद सरुप ।
पिंटित होये मति बीसरो, अखि (क्ष)र एह भनूप ।। २ ।। अंत
ऐसी जुगति खैचीयो भार, जाणे साकुं सम संसार । संपत माठ सतरा सै वर्ष, करत चोपइ हुमा हरिष ॥ ४३८ ।। पंडित होय हसो मति कोय, बुरा भला अखिर जो होय । जेठ मास अर पखि अधियार, जाणो दोइज अर रविवार ।। ४३९ ।। टीकम तणी वीनती एह, लघु दीरघ संवारि जु लैह । सुणत कथा होय जु पासि, हुं तिनका चरणां कु दास । ४४० ॥ मन धरि कथा एहै जो कहै, चंद्रहश जेम सुख लहै ।
रोग विजोग न व्यापै कोय, मन धीर कथा सुणे जो कोय ।। ४४१ ।। इति श्री चंद्रहंश कथा संपूर्ण ।
लेखनकाल–लिखितं रिषि केसाजी पापड़दा मध्ये संवत् १७६३ वर्ष मास काति वदि ११ सौमवार दिने कल्याणमस्तु ।
प्रति-पत्र ३१ । पंक्ति १४ । अक्षर २५ । साइज ८४६।। विशेष-भाषा राजस्थानी मिश्रित है। रचना साधारण है। .
(अभय जैन ग्रन्थालय ) (५) जम्बूचरित्र । चेतनविजय (ऋद्धिविजय शिष्य ) । सं० २८५२ श्रावण सुदी ३ रविवार । अजीमगंज ।
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[ ७४ ] प्रति प्राप्त न होने से नहीं दिया गया ।
मादिभंत
पाचक पद धारक भए, ऋदिविजय गुरु देव । तिनके शिष चेतनविजय, नहीं ज्ञान को भेद ॥ १७ ॥ श्री गुरु देव दया किया, उपजी मन में ज्ञान । भाषा जंबू धरित की, रचना रची सुजान ।।१।। संवत अठारे बाच (व!) ने, श्रावण को है मास । शुकल तीज रविवार को, पूरो ग्रन्थ विलास ॥१॥ वंग देश गंगा निकट, गंज अजीम पवित्र । श्री चिन्तामणि पासको, देवल रचा विचित्र ।। २० ॥ सतरै शिखर सुहावनौ, गुम्टी घ्यार सुचंग । शोभै कलश सुवर्ण के, इकइ सरुप अभंग ।। २१ ॥ ऊपर चौमुख राजते, श्री सीमंधर देव । भाव भगति चित लायके, सब जन करते सेव ॥ २२ ॥
(जयचन्द्रजी भंडार)
(६) जम्बू स्वामी की कथा भादि
अथ जंबूस्वामी की कथा लिख्यते एक समै श्री महावीर स्वामी राजगृही नगरे समवसर्या । राजा श्रेणिक वाणी सुर्णे छै । एता महं एक देवता आयो महाऋद्धवंत। श्री भगवंत से पूछ स्वामा मेरी थिति केती है । भगवंतजी ने कहा सात दिन आऊखा तेरा है । देवता सुण के आपणे स्थानक पहुँचा । तद श्रणिक पूछ स्वामी ए देवता कौन है कहां उपजैगा । तद श्री भगवान कहयो ए देवता वूस्वामी का जीव छै हला केवली होयगा।
अंत
हे श्रेणिक एह जंवुना पांच भवना दृष्टांत संक्षेपें जाणिवा । अनेरा ग्रन्थनि विषइ विस्तार प्रचुर घणो होसी । इहां संक्षेप छई। ए जंबुनु चरित्र सांभली ने सद्दहसी ते आराधक जीव कहया । ए जंवूना अध्ययन ने विपै एकविंशमो उद्देसम् ।
इति श्री जंबूस्वामी की कथा सम्पूर्णम् । लेखनकाल–१९ वी शताब्दी । प्रतिगुटकाकार । पत्र ५७ से ७७ । पंक्ति ११ । अक्षर २७ । साईज ८४५।।।।
(अभय जैन ग्रन्थालय)
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(७) दसकुमार प्रबन्ध । शिवराम पुरोहित । सं० १७५४ मार्गशीर्ष शुक्ल १३ मंगलवार।
आदि
श्री मन्मेघाभिधानाय मत्प्रशास्त्रे नमाम्यहं ।
गणेशाय सरस्वत्यै - कथा-बोधः प्रदीयतां ॥ दूहा-नाम लियै नव निधि सधै, वः ज्ञान गुन भेव ।
खल खडन मंडन सुरिधि, विघन विहडंन देव ।। १ ।। संकट परे सदा मजे, हरिहर ब्रह्म सुरेस । विधन हरन सब सुख करन, चंदू हैं गनेस ।। २ ॥ मेघ नाम गुरु के चरण, शरण गहुँ सुख दैन । कविता दाता भजन तै, ध्यान धरै चित चैन ॥ ३ ॥
९ वें पद से ६१ पद्य तक बीकानेर के राजाओ की ऐतिहासिक वंशावली एवं वर्णन है। उनमें से कुछ पद्य जो ग्रन्थ और ग्रन्थकर्ता के सम्बन्ध मे है, नीचे दिये जाते है।
अथ श्रीमतां राठौराभिधानजातीनां महन्महीपालानां वंशवर्णनं ।
धरा न भूप अनूप सम, सब विधि जाण सुजाण । दीन्हो कवि सिवराम कुँ, सदन घसन धन धान ।। ५० ॥ वास वसायो नूप नृप, अपने दे सुभ धाम ! घासी महिपुर नगर को, प्रोहित कवि सिवराम ॥ ५१ ।। सनि सनेह सिवराम सौं, मरुधरेस महा भूप । देख निदेस इहै दयो, अद्भुत कथा अनूप ।। ५२ ।। बुधि बल नीति सहास रस, सुनतं सुखद श्रुति होइ । दस कुमार भाषा कथा, यथा विरुष रुचि होइ ।। ५३ ।
घरस वेद सर सात भू', सित पख अगहन मास । मंगर चार त्रयोदसी, कथा जनम दिन जास । ६१ ।।
अन्त
इति श्री मन्महाराजधिराज महाराज] श्रीमदनूपसिह नृपानया प्रोहित सिंवराम विरचिते दसकुमारप्रबन्धे एकादस प्रभाव विश्रुतचरितम् संपूर्ण।
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__ श्लोक
श्रीमदनूपसिंहानामाज्ञया शर्मणे कथा । रचिता शिवरामेण शिवरामो व्यलीलिखत् ॥ १ ॥ अनूपसिंहनृपः श्रवणोत्सुफैः प्रवचनेपि तथैव विचक्षणः । दशकुमारकथा वितथा भवेन्नहि यथा तथा क्रियतां चिरं ॥ २ ॥ यपं मदनो वनौ गत मदो दृष्ट्वाभवत् साम्प्रतम् । यस्पादाब्जमवेक्ष्य कच्छपकुलं नीरेंगमल्लजितम् । बुद्धि यस्य कुशाग्रभागसदृशी खेचागमद्गीप्यतिः सोयं श्रीमदनूपसिह नृपति र्जी व्याचिरं भूतले ॥ ३ ॥ सुयशोनूपसिहानाम् तेजो भूति सुखानि च ।
सन्तु भूपाधिपानां च दान-विज्ञान-सालिनाम् ॥ शुभमस्तु श्रीमतां । लेखनकाल–१८ वीं शताब्दी । प्रति-पत्र १७६ । 'क्ति १० । अक्षर १२ । साईज ११४५।।। विशेष-दशकुमारचारित नामक संस्कृत ग्रंथ का भाषा पद्यानुवाद ।
(अनूप संस्कृत लायब्रेरी)
(९) प्रेमविलास चौपई। जटमल । सं० १६९३ भाद्र सुदि ५ रविवार जलालपुर । आदि
, दोहा प्रथम प्रणमि सरसती, गणपति गुण भंडार । सुगुर चरण अंभोज नमि, करूं 'कथा विसतार n. ॥ पोतनपुर नामा नगर, इन्द्रपुरी अवतार । कोट नदी उत्तंग गृह, वनवारी सुखकार ॥ २ ॥
अंत
प्रेम विलास सु प्रेमलत, सौप सर (2) नवहयो नेह । प्रीत खरी यह जानीये, दीनों 'किनूं न छेह. ॥ ७ ॥
चौपाई
.
प्रेम रता की वरनी प्रीता, जटमल जुगत सकल रस रीता। सुमति सुरसती सद्गुरु दीनी, सब रस लता ६था मुहि कीनी ।। ७६ ॥
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.. [७७ ]
सोरठा सब रस लता सुनाउं, मधि सिंगार अरु प्रेम रस । विरह अधिक फुनि ताम, सुनति अधिक सुख ऊपजै ॥ ७७ ॥
चौपाई
संघत सोलह सै श्रेयानु भाद्रमात सुकल पख जानु । पंचमि चौथ तिथें संलगना दिन रविवार परम रस मगना ॥७९॥
दोहा सिंध नदी के कंठ पइ मेवासी चो फेर । राना बली पराक्रमी कोऊ न सके घेर ॥ ७९ ॥
चौपाई पूरा कोट कटक फुनि पूरा, पर सिरदार गाठ का सूरा । मसलत मंत्र बहुत सु जाने, मिले खांन सुलताण पिछाने ॥८॥
दोहा
सइदा को सहिबाजखां यहरी सिर कलपत्र । जानत नाही जेहली, सब अचान को छत्र ॥८॥
चौपाई
रईयत बहुत रहत सुंराजी, मुसलमान सुखा सनि माजी। चोर जार देख्या न सुहावै, बहुत दिलासा लोक वसावै ॥४२॥
.
दोहा
वसै अढोल जल्लालपुर, राजा थिरु सहिबाज । रईयत सकल वसै सुखी, जव लगि थिर न राज ॥८३॥
चौपाई यहाँ वसत जटमल लाहौरी, करनै कथा सुमति तसु दोरी । नाहर वंश न कुछ सो जाने, जो सरसति कहै सो आने ।।८४॥
सोरठा
धतुर पढो चित लाय, सभ रसलता कथा रसिक । सुनस परम सुख दाय, श्रोता सुन इह श्रवण दे ॥८५।।
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[ ७८ )
___ दोहा सुनहि कथा दुर्जन सजन दुर्जन भवगुन लेह ।
सूकर पायस छाढ कै मुख पृष्टा कुं देहि ॥८६॥ इति श्री प्रेमविलास प्रेमलता की सवरस लता नाम कथा नाहर जटमल कृता संपूणे।
लिपिकाल -संवत् १८०९ रा वर्षे मिती वैशाख वदी ७ दिने गुरु वा सरे श्री मरोट नगर मध्ये चतर्मासी कृते पं० प्र० श्री १०५ श्री सुखहेमजी गणि शिष्य सरूपचन्द्रेण लिपिचक्र शुभं भवतु।
प्रति-(१) पत्र ८ । पं० १६ । अक्षर ५४ । साईज १०॥४५॥ . प्रति-(२) पत्र ११ । पंक्ति १४ से १६ । अक्षर ३५ । साईज १०x४॥।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (९) वहलिमां की वार्ताआदि
हो बलिहारी ताजियां जिन्द जाति कही। तुरीया खेटत ताटजमरदा सट मही ।। १ ।। बहलो म उपति जेथी काविल गजनी । पहिली बहिली मसरि जिये पीछे टोट उमत्ति ॥
वात
पांच पैगम्बर उरस से उतरे। वनवास के विषै तपस्या करते थे। सवा पांच मण भांग । पचास मण दूध का । गैव का पेला पक्के । चार पैगम्बर लैटे लैटे दो पहरे उठे।
अम्त- .
ये लखु असवार फोज ले करि कावा गजनी गया। सो वहाँ जाई पातस्याही करी। ये दोनो ही पातसाही जबर हुई । खूब अमल जमाया। वहोत वरस पातस्याही करी । पीछे वीसती कुं गये। जदी पछे कहाणी तमाम हुई ।
दोहा. राणी पला राणी सोर धनी राहिय भाई । घात घणाई ख्याती करी चारण घनी चितरंग ॥ कौड़ी घरस रहसी वातदी कहसी चित मांहे उमंग । साल १३३१ की हुआ बलीम पठाण ।
धारण को चित उमगीयो कही बात वखाण ॥ इती श्री वहलीमां की राहिव साहिव की वाती संपूर्ण हुवी ।
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[ ७९ ] लेखन संवत्-१९०५ का मिती जेठ सुदी ६ वार बुधवार लिखते नगर सीकरी माहि। राज महाराजाधिराज श्री रामप्रतापसिघजी कौड़ी वरस करौ । प्रति-(१) गुटकाकार । पत्र १२ से ५६ । पंक्ति १९ । अक्षर १२ । साईज ७४९।
(अनूप संस्कृत लायब्रेरी) (१०) बुध सागर । जान सं० १६९५ भादिअथ बुधसागर प्रन्थ लिख्यते ।
चौपाई ली भादि भगोचर नाम, तो सब पूजे मनसा काम । अभिगति गति सुर असुर न जानत, मानस वपुरौ कहा वखांनत ॥ ६॥ येक जीभ ताको क्छु वस नां, हार्यो सेस सहस द्वै रसनां । है भभिगति को जलधि अपार, ताको कोई न पैरन हार । २॥ काहू वाको भेद न पायो, निगम अगम निगमै में पायो । भळख भेद में मन दोरावै, सो आपुन को निबंध पावै ॥३ ।
ये जु कथा तुम सौं कही सकल करहु इक ठांव । ताको ग्रंथ वनाइक धरि बुधिसागर नांव ॥चौ० ४५५|| जब अन्य ही पदि तुम सुख पावहु, तब मोको चित ते न भुलावहु । ज्यों ज्यों लाभ ग्रन्थ ते रहिये, मेरी सुरति किये हि रहिये । घुधिसागर पर जो तुम चलिहौ नीके मान अरनि को मलिहों ।। बुधिसागर में जो मन धरिहै, तात कबहू चूक न परिहैं ।।२।। दाव सलेम तवहि सिर नायो, सो करिहौ जो तुम फरमायो । विदा होय अपने घर आये, कवि पंडित तव निक्ट बुलाये ॥३॥ सब मिल दीनों ग्रन्थ बनाई, रीझ बहुत दीनों कछु राई । मग में उपज्यो ग्रंथ उजागर, माला रत्न नांव वधिसागर ।।४।। चल्यो ग्रन्थ उपरि करि भाइ तवहि भयो गइन को राइ । पाछे जिते भये जगु राइ पठ्यो प्रथ यह हितु चित लाइ ।।५।।
दोहा सोरह से पंच्यानुवै संवत हौ दिन मांन ।
भगहन सुदि तेरस हुती ग्रथ कियो कवि जान ।। इति ग्रन्थ बुधिसागर सपू सम्प्त (माप्त)।
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[८० ] लेखन काल-अथ संवत् १७१६ मिती आसोज सुदी १४ वार सोमवार ता० ११ मास मुहरमु सं० १०७० पोथी लिखाइतं पठनार्थ फतंहचन्द लिखतं भीख देवें। श्रीमाल टाक गोत्र सुभं भवत । श्री
लिखीया बहु रहै, जे रखि जाने कोइ ।
... . ....... ..."गलमल मीटी होइ ।। प्रति-पत्र १८३ । पंक्ति १८ । अक्षर २१ । साईज ४॥४८॥।
(अभय जैन पुस्तकालय) विशेष-इस ग्रन्थ की अन्य एक प्रति दिल्ली के दिगंबर जैन ज्ञानभंडार में है। उसमें अन्त की प्रशस्ति भिन्न प्रकार की है, अतः वह भी नीचे दी जाती है
दोहा हांसी ऐसी ठौर है, उत जो रोवती जाई । इच्छा पूजे सुखित है हसत खिलत घर जाई ।।
चौपाई पातिसाह को करौ बखांन, साहिजहां ढिलो सुलतान । दुहु जगत में भयो कबूल, - गह्यौ पंथ विजसरा रसूल ।।१।। ऐसो दोनो ग्यांन इसाह, दोनों जुग जीते पतिसाह । इन के वडे जिते ह गये, ते सब पातिसाह ही भये ॥२॥ चिगंज तिमर उमर बघर, बहुरि हिमायूं साहि अकब्बर । पाछे जहांगीर सुलतान, ताकै उपजे साहिजहांन ।।३।। जहाँगीर कीनी तप कौन, साहिजहाँ उपजै जिन भौन । साहिजहाँ की सब जग आंन, सप्त दीप पर ज्यों तप भान ॥४॥ थहरत सप्त दीप के लोह, ज्यों लगि पवन दीप की लोई । राना में नर हीरा नाई, राइ निरहीन राई राई ॥५।
दोहा पातिसाह सौ नेकु वर, काह को न बसाय । ठंड पर सेवा करें, राजा राहा राह ।। १ ।। शान कियौ नव नव कथन मूल शास्त्र मर्याद । वृद्धि वदाई पाइये जुगन रहे अपवाद ।। २ ॥ कियौ शास्त्र कवि जान यह, साहजहाँ की भेट । देस देस में विसतरयौ छानी रह्यौ न नेट ॥ ३ ॥ जो लो तारा चन्द्र रवि, मेरु नदी जल राज । अन्य येह तो लौं रहे, स्वहित पर हित काज ।। १ ।।
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- [ ८१ प्रभुताई या ग्रन्थ की, जानत चतुर सुजान ।
खोर होइ सो देखि कै, दूरि करो सुग्यांन ॥ ५ ॥ श्री क्यामखानी न्यामत खां कृत ग्रन्थ बुधिसागर समाप्तं ।
सम्वत १८०४ वर्षे चेत्र द्वितीय सुदि ९ बुधिवारे पांडे हरिनारायण लिखापितं वाच (न) ार्था । काष्टा सिघे माथुर गछे पुहुकर गणे हिसार पट्टे भट्टारक श्री क्षेमकीर्तिजी तत्पट्टे भट्टारक श्री महसकीर्तिजी तत्पट्टे भट्टारक श्री महीचन्दजी तत्पट्टे भट्टारक श्री देवेन्द्रकीर्तिजी तत्पट्टे भट्टारक श्री जगतकीर्तिजी विराजमानै। पांडे हरिनारायण वासी फतेपुर का वांसल गोत्र स्वामीजी श्री देवेन्द्रकीर्तिजी का शिष्य पोथी लिखाई श्री जहन्नावाद मध्ये ॥ इति ॥
(११) मैना का सत्त। आदि
प्रथमहि विनऊं सिरजनहारु । अलख अगोचर मया भंडारु ॥ आस तोरी मम बहुत गोसाई। तोरे डर कांपों करर की नाई ॥ शत्रु मित्र सबे काहू संभारे । भुगत देई काहू न विसारै ॥ फूलि ज रही जगत फुलवारी । जो राता सो चला संभारी ॥ अपने रंग आपु रंग राता । बूझे कौन तुमारी बाता ॥
दोहा
बंधन आंखि हमारियां एको चरित न सूझि ।
सोवत सपनो देखियो कोठ करे कछु बूझ ॥ अंत
मैना मालिन नियर बुलाई । धरि झांटा कुटनी निहुराई ॥ मुंड मुंडाई कैसे दुर दीने । कारे पोरे मुख टीका कीने ॥ गदह पलानी के भान चडाई। हाट हाट सब नगर फिराई ॥ जो जैसा करे सु तैसा पावे । इनि बातनि का अनखु न भावे ॥ भागे दिये जो जो रहवाना । को दो बोयें कि लूनिय धाना ॥
दोहा सत मैना का साधन, थिर राखा करतार ।
कुटनि देस निकारि, कीन्ही गंगा के पार ॥ इति मैना का सत्त समाप्त । लेखनकाल–१८ वीं शताब्दी
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प्रति-गुटकाकार । पत्र ५०॥ से ६७ । पंक्ति १३ । अक्षर १२ ।
(अभय जैन ग्रन्थालय वि० गुटका ) विशेष—मालिन ने मैना को सत ( शील ) से च्युत करने का प्रयत्न किया पर वह अटल रही। बीच में १२ मास का वर्णन है ।
(१२) मोजदीन महताव की वात । पद्य ९४ । भादि
सेहर इरानी पातिस्या खुदादीन तसु नाम । साहिजादा सिर मोजदीन मीनकेत के धाम ।। १ ।। भया अठारह वर्ष का लगा इश्क के राह ।
सहिजादा सिर उपरै संक न मानें साह ॥ २ ॥ अंत
मोजदीन के खास में हुरम तीनसौ साठ । ता उपर महिताब का बडा अमेरा घाट ||९३॥ मरदो कबहु न कीजीये पर महिरी से प्रीत ।
जो कोइ करो तो कीजीयो मोनदीन की रीत ॥१४॥ इति मोजदीन महताब की वात संपूर्ण । लेखन काल-१९ वी शताब्दी । प्रति-पत्र ३।
(लच्छीराम यति संग्रह)
(प्रतिलिपि हमारे संग्रह में) (१३) राधा मिलनआदिश्री राधा मिलन लिख्यते ।
श्री किसन लीला। श्री वृन्दावन विहार जानि उजैनि को वास छोड़ि सुवा दीपन रसीस्वर की माता श्री पूरणमासि जु वृन्दावन में वास करन कुं आई । पोतो एक साथ लै आई । ताको नाम मधु मंगल है। सो श्री किसनजी को गुवाल भयो है । सो श्री किसनजी के संग फिरे।
अंत
तव उनकी मा (ता) कीरति ने पुचकारि छाती सौं लगाइ लई । अरु कहन लागी घेटी तोकौं अवार बोहत भई है। तु रसोई जीमि लैं भोजन सी होइ गयो हैं । तब
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भोजन करी वीरी खाई सखिनी मिलि खेलनि लागि। और मुखरा अपनैं घर गई। अरु श्री किसनजी वन विहार करते (करते ) सखा व गउवन सहित अापने घरकुं सिधारे। __इति श्री वृन्दावन माधव की कथा श्री माधौ श्री राधा विलास रास क्रीडा विनोद सहित चतुर्थ अंक समाप्तं शुभं । श्री राधा किसन प्रीति से चारि बारि मिल्या।
प्रति-गुटकाकार । पत्र ३२ । पंक्ति २० । अक्षर १८ । ६।४९।।। विशेष-इसकी चार प्रतियें हैं। रूपावती वाले गुटके मे भी यह ग्रन्थ है। उसके आदि में ५ दोहे है व अन्त भिन्न प्रकार का है ।
(अनूप संस्कृत लायब्रेरी) (१४) रूपावती।
सं० १६५७ । भादि
जंबुदीप देग तहां वागर, नगर फतेपुर नगरां नागर । भासि पासि तहां सोरठ मारू भाषा भल्ली भाव फुनि रू। राजा तहां भलफखां जनाहु चहवान हठी का पहिचानह । ताकर कटक न आवै पारा समद हिलोरनि स्यों अधिकारा । तुरक त मंकि चढ़े केकाना नगर गर नगर मू परे भगाना । राजपूत भसि चढ़ि करि कौपह रविरथ थकै गिमनि कौं लोपह ॥ १॥
दोहा ता घरि पूत सुलछनां, मन मोहन सुर ज्ञान । चिरंजीघ दिनपति उदो दूलह दौलति खांन ।
चौपाई भलपखांन चहुवान की सरभरी कौं करि सके न देख्यों कर भरी । इह विधि कीयो आप वखार करम जोति स्यौ दिपै लिलार । इन्द्र की सभा सुनी हम कांनि परतकि देखी इन्ह पहचानि । जास्यों रस शो नो निधि पावै जहिस्यों रिशि सो मूल गवावै । दीनदार दया असि कीनो हजरति कहयो सुशिर धरि लीनु । ता दिगि सेरखांन नित्य सोहे दीनदार अर सभात विमोहै। सारदुल भर संघ विराजै गुजै साल शिवाली भाजै ।
दोहा
ताहि उजीर साहिवखां और दखांन उकील । एक ही एक समगल वैठे करह सवील ।। २ ॥
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[ ८४ ] तहिका राज महि कथा ठतारी, जहां लो बुधि परईश हमारी । जे है गये अवह के कविजन, तिन्ह गुन चुर कहै मै सब जन । उन स्यौं कछु अधिक नहीं आई, जहां तुरै तहाँ लेहु बनाई ।
चोरि चोरि अछर सब जोरे काठो खोर जै सवे विखोरे । शास्त्र भक्षिर वेह भानी में दीसत हे पासि लगीनी ।
दोहा सन हजार निवोतरै रबील आखरि मास ।
संवत सोलह सतपनै हम कीनी बुधि परकास । अंत
कुंडलियां जो वह चाहै सो करै श्रादि पुरस करता व दोस नु किसही दीजिये । कुरे कहन कहाव कुंडल ।। कुरे कहन कहाव, पाव अन्तर गुन ज्यान्ह ।
लेखन काल-सं० १७५४ वर्षे फागुण मासे वृख्य तिथौ तृतीया बुधवासरे शुभं भवतु । पद्य १९५ । प्रति-पन्न ५२ । पंक्ति २१ । अक्षर १६ । साइज ६४१० ।
(अनूप संस्कृत लायब्रेरी) (१५) लैला मजनूं की वात । पद्य ६५९ । कवि जान । मादि
प्रथम चित्त सों लीजिये, अलख अगोचर नाम । सुमिरत ही कवि नांन कहि, पूजै मनसा काम ।। १ ॥ साहिजहां जुग जुग जीवो, जिह हजरत सौं हेत।
जोई ईच्छा जीव की, सोइ करता दोन ॥२६॥ भंत
पेम नेम जान्यौं नहीं, ते निहचे पसु आहि । सो मानस कवि जान कहि, जिह करता की चाहि ॥५४॥
लैले मजनूं वांचिफै पैमु वढयो मन जान ।
__ थोरे दिन में ग्रन्थ यह, बांध्यौ वधि परवीन ||५६॥ इति लेले मजनूं ग्रन्थ कवि जान कृत संपूर्ण । लेखन काल-१८ वीं शताब्दी प्रति-गुटकाकार । पत्र ५७ । पंक्ति २१ । अक्षर १४ । साईज ६४१० ।
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय)
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[८५ ] (१६) लैलै मजनू री वात आदि
श्री गणेशायनमः । अथ लैलै मजनूरी वात लिख्यते । ____ संवरकन्द विलायत । तहां साहि जुलम पातसाही करै । तहां विलायत ऐसी, जिसकी कौन तारीफ करै। बहुत ही जो इसकी विलाइत ये तीसू बिम । जो कहां ताई तारीफ करिये।
देख्या समर सुहावनो, अधिक सुरंगा लोग ।
नारी नैण सुहावणी, पान फूलदा भोग ॥ १ ॥ अंत--
ऐसा प्यार दोनों का निवह्या है । जैमा सबही का निवहो । जिसकी आसकी लगै । जिसकी ऐसी निबहियो । तिस बीच बहुतही निवाहीयो ।
दोहा लैले मजनूं नेह था, तैसा सब का होय ।
अंखिया की अंखिया लगी, निरवरही नहि कोय ॥१॥ इति लैलै-मजनूरी वात समाप्ता।
लेखन-सं १९२० मासानुमासे माघ मासे कृष्ण मासे कृष्ण पक्षे तिथौ अमावस्यां सूर्यवासरे। लिपिकृत्वा आत्मारामेण । प्रति-गुटकाकार । पत्र ४६ । पंक्ति १३ । अक्षर १६ । साईज ७४७ । एक अन्य प्रति भी है। '
(अनूप संस्कृत लायब्रेरी) (१७) विक्रम पंच दण्ड चौपाई । मुनिमाल। १७ वी शती । आदि
शान्ति जिनेसर पद नभी, विक्रम चरित उदार । पंच दण्ड छत्रह, तणी, कथा कहूँ शुभकार ॥ १ ॥
आगति थोडी खरच बहु, जिस धरि दीसे एम । तिस कुटुम्ब का माल कहि, महिमा रहसी केम ।। २६ ।।
अन्त
रिण अन्धारेठ मेटि दांनि प्रगट जगि जायउ । ताते विक्रमादित्य, सांचउ नाम कहायउ ।।
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[८६ ] देई सर्व आशीस, जगति जिके नरनारी।
शशि रवि लगु थिर त (र) हो, श्री विक्रम उपगारी ॥ लेखन काल-सं १७४८ । प्रति-पत्र ३० । पंक्ति १६ । अक्षर ४० ।
(गोविद पुस्तकालय) (१८) बीरवल पातसाह की वात । मध्य
पातसाह तेंमूर समरकन्द की फतह करी तहां एक अन्धी लुगाई कैद में आई। पातसाह पूछी तेरा नाम क्या है। लुगाई कही मेरा नाम धौलति है । पातसाह कही धौलति भी आन्धी होती है । लुगाई कही धौलति अन्धी न होती तो तुम सरीखे लंगड़े की घर में क्यूं आवति । प्रति-गुटकाकार । पत्र १० से ४५ । पंक्ति १२ । अक्षर २० । साईज ८१४६।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (१९) वैताल पचीसी । भगत दास । आदि--
गुरू गनेश के चरन मनायौ। देवी सरस्वती के ध्यावौ । भकवर पातीसाह होत जहि । कथा अनुसार किन्ह मैं तहिमा । सुरा पानी न सुनीए काना । परबत अमन सीन्धु सव माना । अचल इन्द्र सम भुजै राजा । तख्त आगरा मोकाम भल छाजा ॥१॥
अस्थल अकवरपुर वासा । बहुत सन्त ताही करै निवास।।
तेही पुर है कवि जन के वासा । हरि की कथा सदा परगासा ।। वरन काहू नाहा राघौ दास । तीन्ह के पुत्र कथा परगासा ।
अंत
दाशन्ह को दास भगत मोही नाउं, हरिके चरन सदा गीत भाउं । वरना काहु है लघुता गोती; हरि जस कथा कीन्ह बहु भाती ।
दुनौ वीर तव नाट कराहे, देवी वीर तब आह । देई वर नृप वीक्रम कह, अस्तुती करत पुनि आह ।
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[ ८७ इति वैतालपचीसी विक्रमचरित्रे भगतदास विरचिते । कथा पचीस समाप्त । लेखन काल-१८ वी शताब्दी । प्रति- पत्र ४८ । पंक्ति २ । अक्षर ४२ से ४५ । साईज १०४५। विशेष-प्रति बहुत अशुद्ध है।
(अनूप संस्कृत लायनेरी ) (२०) शनिसरजी री कथा । विजयराम । आदि
श्री गुरु श(च)रण सरोज नमो, गणपत गुण नायक । नमो शारदा सगत विगत, वाणी सुख दायक ॥ नमो राधका रचन, नमो पारवती प्यारा । नमो वीर बजरंग, लाल लंगोट वारा ॥ सुर गुरु मुनि अरु संत जन, सब के प्रणसु पाय । रचं कथा रविपुत्र की, मोय सुध खुध देहो सहाय ॥ १॥ व्यास पुन शुखदेव नमो, सद ग्रन्थ सुणायो । घालमीक मुनि नमो, बड़ो हरि चरित्र वणायो । नमो सूरदा संत, कृष्ण की कीरत गाई। सुलछी जिनकुं नमो, वनै पुत्रका वणाई ॥ केशव नरहर और कवि, जा घर प्रभु की जोत । विजैराम चरणन किया, मन बुध निर्मल होत ॥ २॥
कुंडलियाआशायत दुर्गेश को गादी बैठक गाम । लूणी कोठे वसत है, समदरड़ी सो नाम
" स्याम रो स्याम विराजै । चरण कमल की सेवा सदा विजैराम साजै कविजन किरपा करी, सुख सोनग अरु व्यासा बालमीक जे देव, सूर तुलसी विसवासा सवै संत सिरपर वस्या, उरें विराजो श्याम कथा रसक रवि पुत्र की वरण करी विजैराम ॥१५॥ भाद अत दोहु अंक, बाहु पर बिंदु आई जोम घड़ी कुं जोड, समत के वरष गिणाई रवि चढयो तुलरास रवि सुतवार विराजै सौ पोदस उस कला संयुक्त राकापति ऊपर राजै
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[ ८८ ] तिण दिवस कथा तीजै पहुर प्रीत जुगत पूरण करी
बात विक्रमादीत की, विध विध कीरत बिस्तरी ।। १५९॥
प्रति-गुटकाकार ( राव गोपालसिहजी वैद के संग्रह में ) (२१) श्रीमाल रास । सं० १९२४ काती वदि १३ भृगु । भादि
ॐ ह्रीं नमः सिद्धेभ्यः । अथ श्रीपाल रासो लिख्यते । श्री जिन गुरु परनाम करि हिय थापि जिन वान सिरी पाल मैना तनौं कछुयक करौ वखान ॥ १ ॥
जंवू भारत खेत नगर चंपापुर माहि, नृप भरदमन कुमार नाम श्रीपाल कहाहि । अति उदार अति सूर कोट वलभर भुज सजे, बहु गुन कला निवास देन रिपु भय गहि भज्जे ।
अंत
वेद नयन निधि चंद राय विक्रम संवत्सर कार्तिक पक्ष असेत त्रयोदश भृगु वासर वर । उत्तरा फाल्गुण नखत अर्क तुल लग्न वृछी को। मध्य समापति कियौ पढी पढावी सुनो नित
भावौ वारंवार नर सुर के सुख भोग के छिप होउ भवपार ॥ २९ ॥ इति श्रीपाल रासौ समाप्तं । शुभ संमतसर मिती मार्गशिर्ष वदि १२ ।
लेखन-संवत १९२५ शुभवंत । लिख्यतं पडतं कालीचरन ब्राह्मन कान (कुब्ज) जैनी नैकोलमध्ये मोहल्ला छिपैटी लिखाइ भरपाइ लिखवाई लाला गोकलचंद नै हाथरस के वासी नै पठनार्थे शुभ भवतु कल्याण मस्तु । प्रति-गुटकाकार । पत्र ४७ । पंक्ति ७ । अक्षर २१ । साईज ७IX४।।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (२२) सनि कथा । पद्य २७७ । गणपति । सं० १८२६ वसंत पंचमी बुध वागौर । आदि
, अथ सनि चरित्र लिख्यते ।
दूहा-- श्री वृन्दावन चंद को ध्यान गणपति धार । पीछे श्री सनिदेव की कहिहु कथा विस्तार ॥ १ ॥ बल्लभ सुत वीठल विरुद्ध करे वर्णन नो कोय । तिह गणपति गुण मथन ते नवग्रह सम्मुख होय ॥
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अंत
[ ८९
प्रन्थ उत्पत कथन राध श्री जसवन्त, तासु सुभगां भन्तेघर कला सिन्धु करणोत, नाम तिहि सरस कुंवरि घर ।। ३२ ।। विक्रम रवि सुत भ्रात, दिव्य पुस्तक लिख दीनी । ता पर कवि गणपत्य, वित्ति सद्मति सु चिन्ही ॥ ३३ ॥ ग्रज पध्यति भाषा विमल, भापे छंद घर ठकित की। विविध मांति सेटण व्यथा, कथा कथी सनी चरित्र की ।। ३४ ॥
छप्पय सांगावत जसवन्त, भवन भन्तेवर भारिय । राजावस कुल रूप, भोप ईसरदा पारिय ।। अमरि कुंवरि गुण अवधि, प्रेम मति भगति परायण | सत गुरु गणपति दास, पास से भरज सुभायण ।। भांबेर नाथ भरधंग घर, कुंदण बाई बत कही। ता ऊपरि सनि चरित की, भूरि कथा सुंदर भई ॥ ३५ ।।
दूहा
संघत अष्टादस जु सत छावीसा घरसानि । घसंत पंचमी पार वुध, पूरण ग्रंथ प्रमाण ॥ ३९ ॥
कवित्त संमत सत नव दून, घरस छावीस पखानं । बुधि सुदि माल घसंत पंचमि तिथि परमानं । मेदपाट घर मांहि नम्र वागोर नघे निधि । मंदिर भी गिरिधरन रीति कुल बल्लभ की विधि गुजरा गौर सुग निति दुज, सुरतांन देव सुत सुरत की कवि गणपति लीला कथी, कथा सुभग सनि चरित्र की ।। ३७ ।।
दूहा भमर नगर घर उदयपुर भटल कृपा इगलिंग । पति हिन्दू चित्रकोटि पति राण तपे भसिंघ ॥ १८ ॥
कवित्त . श्रवण सुनि हि सनि चरित, प्रेम धारिय निज पाणी को । पढहि कण्ठ निति पाठ, सरन दुख हरहि सदन को । नृप दारथ कृति तवन बहुरि विक्रम घर दायक । धीर विदुश चिति धरहि दिध्य रिधि सिधि के दायक ।।
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[ ९० ]
कहि गणपति हरिजस कथन, प्रगट पुण्य बल पाजकी।
हहै ता उमर सदी विधू , कृपा ब्रजराज की ॥ ३९ ॥ इति श्री सनिचरित लीलायां विक्रमादित्य अवन्तिका पुरी प्रवेश निज स्थान प्राप्ति राज्य प्राप्ति वर्णनम् पंचमो उल्लास संपूर्णम् ।
लेखन काल-१९ वीं शताब्दी। प्रति-(१) गुटकाकार । पत्र २६ । पंक्ति २१ । अक्षर १३ । साइज ६॥xau
चिपकने से कुछ पाठ नष्ट हो गया है । प्रति-(२) गुटकाकार । पत्र १७ । पंक्ति १६ । अक्षर २९ । साइज ७llx५|| विशेष-ग्रन्थ में ५ उल्लास हैं पद्य ४६-४४-१०७-४१-३९%२७७ हैं।
(अभय जैन ग्रन्थालय) ( २३ ) ज्ञान दीप । पद्य ८६० । कवि जान । सं० १६८६ वैशाख कृष्णा १२ । आदि
अथ ज्ञान दीप ग्रथ कवि जान कृत लिख्यते प्रथम जपवै नांव जगदीस, ज्यों प्रगटै बुधि विसथा बीस । कर्ता भेद न बरने नाहि, ना कछु आवतु है बुधि माहि ॥१॥ जो कछु है धरनी आकास, रचनहार सबको अविनास । मानस आपहिं ना परिचानत, करता की गति कैसे जानत ।। १॥
+ साहिजहां साहन मन प्रह, जगपर साहिब कीयो इलाह। जंदीप दीपनि में दीप, छहु मुगता रलवे पट सीप ॥ मानत है दूरी लों ऑन, जस प्रगट्यो जग साहि जहांन । साहिमहां सम भाज न कोह, पाछे भयो न भागें होह॥ जहांगीर छत्रपति है दाता, तो ऐसौ सुत दयौ विधाता । नाको दादौ साहि अकम्बर, कोन जु जासों करै तकबर ।। खुरासॉन कों पठवे माल, रोम सांम के देहि रसाल । मानत हैं सांतों हकलीम, कर जोरे करिहैं तसलीम ॥ रही चिरंजीव कहि जान, कोटि बरस लौं साहिजहांन । कक्ष मोहि वधि को परोन, साहिजहां नस करों बखान ॥ सुनहुं कॉन दे सब ससार, ज्ञान दीप कौ करों विचार । जामें ज्ञान होइ सो मानत, दीप ज्ञान याकों परि जानत ।। पढ़े याहि भावतु है ज्ञान, तात भाख्यों दीपग ज्ञान । यामें तो यान वह राम, सष काहू के आवै काम । सुनि सुनि जगत सपानों होइ, सीख्यौई जनमत ना कोइ ।
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। ९१ ]
ज्ञान दीप कवि नान कहि, कीने हित चित लाइ । सीखजु ग्रंथन में हुती, कथो सकल सुखदाइ ।
भंत
संवत सोलह से जु छयासी, जान कवी यह बुधि परकासी । तिथि बारस बदिहिं बैसाख, दस दिन मांहि सुनाई भास्त्र ।। बुधि परवान सुनाई गाइ, खोर दूर करि लेहु बनाइ ।।
सिधि निधि घर में बहु भई, भाप सम्हारे काम । राज कियौ तेसठ बरस, सुख रस सों बहराम ।। सुख रस सौ बहराम, जाम आठों बीतत है ।
रूम चीन अरू मारली, बहु विष बादी रिधि ।
आप संभारे ते भई, घर में यों नौ निध सिधि ॥१॥ इति श्री कवि जान कृत ज्ञानदीप संपूर्ण ।
लेखन-काल-संवत् १८९२ मिति चैत्र सुदि १३ दिने लिखितं प्रतिरियं लक्ष्मीचंद पतिना नवहर मध्य चिरं सखतसिध पठनार्थ न करे।
प्रति-(१) पत्र २३ । पंक्ति १५ । अक्षर २४०। (जिन चरित्र सूरिज्ञान भंडार )
(२) पत्र १६।
(जयचन्द्रजी भंडार)
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(झ) ऐतिहासिक काव्य ग्रन्थ (१) अमर वतीसी । पद्य ३९ । हरीदास । सं० १७०१ श्रासू सुदि १५ । आदिप्रथम मनाइ देवी सारदा की सैव करूं, दूसरै गणेस देव पाइ नाइ सीसजू । हरीदास मान कविराइ फै पासाइ बंधि, अखिर उकति जैसी वदतु कवीसजू । साहि दरबारि महाराजा गजसाहि तने, कीयौ गज गाहु कमजन के ईसजू । ताको जस जोरि कछु मेरी मति सारू कहुं, अमर बत्तीसी के सवईया बतीसजू । ।।
अंत
सत्र से इकोतरा, आसू पूरन मासि । सखी अखी सरसती, कथा कवि हरदासी । ३७ । अमर बत्तीसी अमर की, कही सुकवि हरदास ।। कूरिन को न सुहाइ है, सूरनि के मन हास । ३८ । च्यारी ढहथ कवित इक, सवईये प्रथम वत्तीस । अमर बत्तीसी के कहे, कवि रूपक सँतीस । ३९ ।
इति श्री कधि हरदास विरचिते अमर बत्तीसी संपूर्ण । लेखन-काल-रवत् १७०४ वर्षे फागुण वदि ५ दिने लिखित पं० मानहर्षमुनिना दहीरवास मध्ये। प्रति-पत्र २ । पंक्ति १: । अक्षर ६६ । साईज १० ४५।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (२) कवीन्द्र चन्द्रिका । सुखदेव आदि अनेक कवि । आदि
श्री गनपति गुरु सारदा, तीम्यौं मानि मनाइ । मनसा वाचा करमणा, लिखौं कवित्त वनाइ ॥ १ ॥
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[ ९३ ]
कासी और प्रयाग की, कर की पकर, मिटाइ । सबहि को सब सुख दिये, श्री कवीन्द्र जग आइ ॥ २ ॥ सकल देस के कविनि मिलि, कीन्हें कवित्त अपार । श्री कवीद्र कीरति करन तिनमें लीने सार ॥ ३ ॥ श्री कवीन्द्र द्विज राज की लखहु चन्द्रिका ज्योति । दुनी गुनी के दुख दहति दिन दिन दूनी होति ॥ ४ ॥ पहिले गोदा तीर निवासी, पाछे भाइ बसे श्री कासी । ऋग्वेदी असुलायन साखा तिनको ग्रन्थु भयो है भाषा ॥ ५ ॥ स विषयनि सो भयो उदास, बालपना में लयो सन्यास ॥ उनि सब विद्या पढी पढाई, विद्यानिधि सुकवीन्द्र गुसाई । ६ ।।
9
सवैया
तीरथ सबै अन्हाइ गाइ नसताई, जाइ कीन्हों काजु भजु देखो कैसौ सुरसरी को । है सुखदेव सुर नर मुनि दस नाम धन्य धन्य कहैं जैत वार बाजी भरीको । नवो खडं दसौं दिसि दीप दीप मैं सुजसु सोरभयो जग मैं गर्दै याकोनु छरी को । कवि इन्द्र सरस्वती विद्या बुद्धि महावर करद्यौ छुड़ायौ ज्यौं छुडायो कर करीको ||
अंत
जगत सरभयो धर्म, जलपूरी रह्यो, तामें कमल कवि इन्द्र सोहे | भक्ति पत्र ज्ञान बीच कोस जय किंजलक सील रस मोहे | सब को बंधन तीरथ में, तीरथ को बधन काट्यो सोहू सुवास उपमा को को है । श्याम राम बानी वर कहें निसि दिन प्रफुल्लित यातें जु हरि रवि जोहे || शुभ भूयात् । श्लोक संख्या ४२५१ ।
विशेष – इसमे निम्नोक्त कवियों की कविताओं का संग्रह है- सुखदेव रचित पद्य ४, नन्दलाल १, भीख २, पंडितराम २, रामचन्द्र १, कविराज ४, धर्मेश्वर २+१, कस्यापि १, हीराराम २, रघुनाथ कवि १, विश्वंभर मैथिल १, धर्मेश्वर १, शंकरो पाध्याय १, रघुनाथ की स्त्री ३, भैरव २, सीतापति त्रिपाठी पुत्र मणिकंठ २, मंगराय १, कस्यापि १२, गोपाल त्रिपाठी पुत्र मणिकंठ १, विश्वनाथ जीवन १, नाना कवि १०, चिन्तामणि १७, देवराम २, कुलमणि १, त्वरित कविराज २, गोविद भट्ट २, जयराम ५, गोविद २, वंशीधर १, गोपीनाथ १, यादवराम १, जगतराय १, राम कवि की स्त्री ३ ।
लेखन - काल - १८ वीं शताब्दी ।
प्रति- पत्र १९ । पंक्ति ८ । अक्षर ४५ से ५० | साईज १२९५ ॥ ।
(अनूप संस्कृत लायब्रेरी )
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[ ९४ । (२) इसकी एक अपूर्ण प्रति महिमा भक्ति जैन ज्ञान भंडार में है जिसकी प्रतिलिपि अभय जैन ग्रन्थालय में है।
(३) कायम रासा ( दीवान अलिफखान रासा)। जान । आदि
रासा श्री दीवान अलिफखां का दोहा ।। सिरजन हार वखानिहै, जिन सिरज्या संसार । खंभू गिरतर जल पवन, नर पस पंछी अपार ।। एक जात ते जात बहु, कीनी है जग मांहि । अनंत गोत कवि जान करि, गनति आवत नाहि । २। दोम महमंद उचरौं, जाके हित के काज । कहत जान करतार यहु, साज्यो है सब साज ।। कहत जान अब घरनिहैं, अलिफखांन की जात । पिता जान बढि ना कहों, भाखौं साची बात । ४ । अलिफखानु दीवान कौं, बहुत बढ़ी है गोत । चाहुवान की जोड़ी कों, और न जगमें होत । ५। अलिफखांन के धंस में, भये बडे राजान ।
कहत जान कछु ये कहे, सब को करौं बखान । ६ । अंत
पूत पिता को देखिफै, वाढत है अनुराग । कहत खान सरदारखां, कोट वरप की आग ।
इति रासा संपूर्ण। लेखन.काल-१८ वीं शताब्दी । प्रति-पत्र ७० । पंक्ति १५ से १७ । अक्षर १८ । साइज ५॥ x । विशेप-ग्रन्थ का नाम कवि ने लेखक के लेखानुसार "रासा दिवान अलिफखां का" रखा होगा । इसमे अलिफखां की पूर्व परम्परा प्रासंगिक रूप से देकर अलिफखां का विस्तार से वर्णन है। और जैसा कि ग्रन्थ के मध्य के निम्नोक्त दोहे से स्पष्ट है ग्रन्थ सं० १६९१ में समाप्त कर दिया गया था पर कवि उसके बाद भी लम्बे अरसे तक जीवित रहा अतः पीछे के वंशजो का भी हाल देना उचित समझ कर उसने पीछे का हिस्सा रच कर ग्रन्थ की पूर्ति की।
यथा
सोरह से इक्यानुवं, अन्य क्यो इहु जान । कवित पुरातन मे सुन्यो, तिह विध कयों वखान ।
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[ ९५ ] पूर्ति
दौलतखां दीवन कौं, अब हौं करौं घखांन ।
तेग त्याग निकलंक है, जानत सकल जिहान । जान कवि बहुत बड़ा कवि होगया है । इसके ७० ग्रन्थों का संग्रह हिन्दुस्तानी एकेडमी, प्रयाग, के संग्रहालय मे पहुंचा है।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (४) जसवन्त उद्योत ( जसवन्त विलास) पद्य ७२० । दलपति मिश्र ।
सं० १७०५ आषाढ सुदी ३ । जहांनाबाद । आदि
अथ महाराजाधिराज महाराजा श्री जसवन्तसिंहजी को ग्रन्थ मिश्र दलपति को कयौ लिख्यते।
दोहा प्रथम मंगला चरन, देव चरन चित्त लाइ । गनपति गिरा गिरीस की, विनती कही बनाइ ॥१॥
अथ कवि वंसं वर्णनं
अकबरपुर अनुपम सहरु, वसे सुरसरी तीर । चारों वर्ण हैं जहां,. धर्म धुरंधर धीर ॥ ५॥ दीप मिश्र माथुर तिहां, सदा कम यट लीन । साधु सिरोमणि शील निधि, पंडित परम प्रधीन ॥ ६ ॥ तिन पुनि राम नरेस ढिग, कियो कछु दिन पासु । पाठे नृप कौविद धरनि, जगमगातु जसु आसु ॥ ७ ॥ सदाचार गुन गन निपुन, तासु तनय सिवराम ।। तिनके सुत तुलसी भए, सकल धरम के धाम ॥ ८ ॥ तुलसी सुत दलपति सु कवि, सकल देव द्विज दासु । तिन वरन्यो बल बुद्धि सौं, श्री जसवन्त विलासु ॥ ९ ॥ पांच अधिक सत्रह सई, संबत को परिमांनु । प्रीम रीति भाषाढ़ सुदि, तीज वारु हिम भानु ।।१०॥ नगर जहांनाबाद जहां, रच्चै चकतां भूप । तहां दलपति जसवन्त की, पोथी रची अनूप ॥११॥ नगर जहांनाबाद को, वरनन को बनाइ । जहां नृपति जसवन्त कह, मिल्पी कवीसुर भाइ ॥१२॥
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[ ९६ ]
जो असवन्त उदोत कह, सुनै श्रवन चितु लाइ । तिहि मानौं हरिवंश की, पोथी सुनी बनाइ ॥१८॥ कछुक वंस वरण्यो प्रथ (म) विन्नु पुरानहि मांनि । करनि साठि नरिन्द की, वरनी लोक कथांनि ।।१९।। लोक वेद बुधि जन सकल, कहत एकही रीति ।
यह विचारि या अन्य महँ, मानहु परम प्रतीति ॥२०॥ इति श्री तुलसीरांम सुत दलपति कवि विरचते जसवन्त उदोते वंसावली प्रकरनो संपूर्ण । शुभं भवतु । श्री।
लेखनकाल-सं० १७४१ रा मागिसिर व० १४ वार भोम दिने लिखंत मेड़ता नगर मध्ये लिखतं चूरा महीधर पोथी ब्रा० चूरा महीधर छै शुंभ भवतु ।
प्रति-पत्र ४० । पक्ति २७ से २९ । अक्षर २४ । साईज ७४९।। विशेष-ग्रन्थ ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्त्व का है।
(अनूप संस्कृत लायब्रेरी) (५) दिल्ली-राज वंशावलि । पद्य ११९ । कल्ह । (जहांगीर के राज्य में ) भावि
इकवार होइ प्रसूत नारी, कृपा राखी ईस । पाप को नाम न जाणीयइ, तह पुन्य विश्वे वीस । राजान ब्राह्मण अवर कोइ, करइ नाही रीस । राजान हूवइ सूरवंसी, पृथ्वी मांहि पृथीस ।
तोरे गगण अखरत चंद सरस संघच्छर जायो । आदित पार कहैं कलह कातिक चदि प्रतिपदा । सधर ध्रुव जोग जाणि धुअ पंजाब को मुगर । नगर लाहोर कोट थिर नृप जाहगीर साह अकबर सुतन ।
साह हमाऊ वंस वर जहांगीर महमद को सुजस आणंद कर ।। १९ ॥ इति वंसावली संपूर्ण।
लेखन-काल-पं० दानचंद्र लिखितं श्री नवलखी ग्रामे सं० १७३९ व० कार्तिक वदि ३ दिने।
(बृहद् ज्ञान भण्डार, प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय )
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[ ९७ ]
(६) दिल्ली राज-वंशावली । किशनदास । औरंगजेब के राज्य में ।
आदि
अंत -
ॐ नम । अथ राजावली लिख्यते ॥
ॐकार का ध्यान लगाओ, शिव सुत चरन आनि मन लावौ । समरे आदि भवानी भाई, गुरु किरपा तैया बुद्धि पाई । दिल्ली पति जो राजा भए, तिन भूपति के नामु गिनए । प्रथमे कृत युग हरि प्रगटीया, चारि अवतारि वपु धरि आया ।।
भन्त
औरंग जेब साह आलमगीर सम जग सिरताज । निस वज्या डंका धर्म का, त्रय लोक में अवाज । कवि महाराजा जु भनै, किशनदास करै आसीस । तुम राज सुथिर करौ जुग जुग लाख वीस पचीस । यथा जुगतै बुद्धि भाही, तथा भछर कीन । जहाँ दीन होइ सो सवारि पजो दोष मुझे न दीन ।
विशेष—– इस ग्रन्थ मे द्वापुर युग सोमवंश वर्णन से लगाकर अकबर तक का वर्णन उपरोक्त कल्ह रचित वंशावली से ज्यो का त्यो उठाकर रख दिया गया है । (बृहद् ज्ञान भंडार, प्रतिलिपि - अभय जैन ग्रन्थालय )
(७) दीवान अलिफखां की पैड़ी । जान कवि ।
आदि
श्री अलिक खां' कीपैड़ी लिखते ।
पहले अल्लाह सुमिरिये, जिन्ह वौल जिलांवण कारणें, रक्खै मानस दे सारे नहीं, सो सोई जिन्ते जांन कहि, जिस
सुभर उपाया ।
नहीं काया ।
कर
वोढ
सुभाया ।
खुदाया ।
सोलह से
की
इकईस मैं जनमे उजले क्यामखां ara संवत हुवा तिपासिया लेखे वैकुंठ पहुंचे भलिफ खां छह दीया जांण ।
परवाण ।
दीवाणा |
चौहाणा |
इति श्री दीवांन अलिखां जी की पैड़ी संपूर्णा । समाप्ता ।
१३
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[ ९८ ] लेखन-अथ सं (व) त १७१६ मिती कातिक वदि ११ सनीसर वार ता० २३ महुरंम सं० १०७० लिखिइतं पठनार्थ फतैहचंद लिखतं भीखा । प्रति-पत्र १४ । पंक्ति १५-१६ । अक्षर १५ । साइन ५||lxani
(अभय जैन ग्रन्थालय) (९) पंवार वंश दर्पण । पद्य ३० । दयालदास सिंढाय । भादि
वीणा धारद कर विमल, भव नारद सुरभाय । हंसारुढ दारद हरो, शारद करो सहाय ॥१॥ धार उजयनी के अधिप, जिनह वीर वर जान । कहूँ सार आचार कृत, वंश पंवार घखान ॥२॥
मन्त
भनल कुंड उत्पन्न कोप सत्रिय पशिष्ट किय । - भरवुद धार उजीय देव मुरथान राज दिया पिंड शत्रुन किष प्रलय, कोम परमार कहाये । पुनि घाराह पुराण गिरा श्रति व्यास जु गाये । जिण कुल अजीत लोभी, सुनस सुभर सिद्ध भवसारो ।
अनकल विरद परियां हना खाटण सुजस खुमाण रो ।२५। । लेखन-इति श्री परमार वंश दर्पण सि (ढा) पच दयालुदास खेतसीयोत गांव कुविये के निवासी ने वनाय संपूर्ण हुआ। ठाकुरा राज श्री अजीतसिहजी खुमाणसिंहोत गांव नारसैर ठाकुरों की आना से बनाया। पंवारों की पीड़िया एक सौ वतीस की उदारता वीरता का वर्णन कीया मिति पोष कृष्ण ३ संवत् १९२१ का (इसके बाद विस्तृत नामावलि है) विशेष—इसमें २५ छप्पय और ५० दोहे हैं।
(भांडारकर रिसर्च इन्स्टीट्यट, पूना, प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय)
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() नगर-वर्णन
(१) आगरा गजल । पद्य ९४ । लक्ष्मीचंद । सं० १७८० आषाढ़ शुक्ला १३ । आदि
सरसती मात सुभाषनी क, देहो दास कुंजानी क । अकबराबाद की टुक आज, उतपति कहत है कविराज ॥१॥ अकबर साहजी गुणधाम, रमते निकले इह ठाम । इहाइ एक देख्या खासा क, अकबर साह तमासा क ॥२। गीदर सेर कुं झीले क, ढाढे पातिसाह भाले क । इजरत लोक कुं ऐसी क, पूछे बात ऐसे की क ॥३॥
अन्त -
अकबराबाद है ऐसा क, लखियै इन्द्रपुर तैसा क । सब गुन सहर है भरपूर, देखत जात है दुख दूर ।।९।। जबलग गगन अरु इंदाक, पृथवी सूर गन चंदाक । सुवसो तब सगै पुर एह, सहर आगरा गुन गेह ॥१२॥ सवत सतरै सै असी क्या क, आषाढ़ मास चित वसियाक । सुदि पख तेरमी तारीख, कीनी गजल धुए बारीक ॥३॥ अपनी बुद्धि के सारुक, कीनी गजल ए पाक । लखमी करत है अरदास, नित प्रति कीजिये सुविलास ॥९॥
(प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय) (२) आबू शैल री गजल । पद्य ६५ । पनजीसुत चेलो। सं० १९०९ वैसाख वदी तीज। ___ भादि
ब्रह्म सुता पर धीनवु, भन गणराज भनाय । शोभा भावू शैल की, घर' उकि बणाय || ॥
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अंत-
(३) इन्दौर वर्णन |
आदि
अंत
[ 2001
सीधो करण नाइ सत उगणीस नौ की राजी रहै सारा निलीयो गाम रतनूं
अंत
सकल गुण करि अति इंदोर टघोत
साथ, भैरो जगू दोनुं भ्रात | साख, वदि पख लाग तौ वैसाख ॥ ६३ ॥ रीझ, तापर करी आखा तीज । जात, पनजी सुतन चेलो पात ।। ६३ ।। ( प्रतिलिपि - अभ यजैन ग्रन्थालय )
सोहतो, सकल देश सिरदार | है, सब नाणत
छंद पड़ी
सव सिरै सहर इंदौर साच, वर्णयुं गुनह तिनके जुवाच ।
जिण नगर मांहि धनवान जाण, वलि बुद्धि सुद्धि बलवंत वखाण ॥ १ ॥
नगर सांध वरण्या सहु, चितधर अतिही चूंप
अब वर्णन हासी करूं मानव री सुख दाय ||
संसार || १ |
( प्रतिलिपि~अभय जैन ग्रन्थालय )
(४) उदयपुर गजल । पद्य ८० । यति खेतल । सं० १७५७ मार्गशीर्ष
आदि-
जपुं
गुण
आदि इकलिंगजी, नाथ उदयापुर गावांत सघन अंब गिरिवर सघन, सिरवर राठ सेन सुप्रसन रही, प्रथम आंबेरी उमया रमन, भुवाण रतन पुर हणमंत रिधु, सो
दुवारे
करो
रमै
नमंता
नाथ ।
सनाथ ॥ १ ॥
सुर राय ।
पाय || २ ||
भोलानाथ ।
सुप्रसन्न सनाथ ॥ ३ ॥
खर तर जती कवि खेताक, भाखै मौज सुं एताक ।
राणा अमर कायम राज, लायक सुन जस मुखलाज ॥ ७८ ॥
लायक जस मुख लाज, मुनहु तारीफ सहर की । गुनियन सुन के गजल, निजर कर नेक मेहर की ।
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[ १०१ ] फतै जु गरुर फजर, रिधु अमरसिह जू · राना उदयापुर जु अनूप, अजब कायम कमटाना वाडी तलाव गिर बाग वन, चक्रवर्ति ढलते चमर मन भंग जंग कीरत अमर, अमरसिंह जुग जुग अमर ॥ ७९ ॥ संवत सतरै सतावन, मिगसर मास धुर पख धन्न ।
कीन्ही गजल कौतुक काज, लायक सुणतसु मुख लाज) ८० ॥ लेखनकाल–१८ वी शताब्दी। प्रति-पत्र ३ । पंक्ति १६ । अक्षर ४७ । साईज ९॥४४॥।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (५) कापरड़ा गजल- पद्य ३१ । यति गुलाबविजय । संवत १८७२ चैत्र कृष्णा ३।
आदि
सरस्वती पाय प्रणमुं सदा, रिद्धि सिद्धि नित देय । दुख विनाशन सुख करण, अविरल वाणी देय ॥ १ ॥ देश चिहु दिसि दीपतो, सदा सुरंगो देश । तिह कापरडों वर्णवु , भैरु वली विशेष ॥ २ ॥ गजल करुं गोरातणी, सुणता उपजै स्नेह । बालक बुद्धि वधारबा, भकल उपजै एह ।। ३ ।। ज्ञानी ध्यानी बहु गुणी, पाखड रहै न कोय ।। इण खंडे जन पुर अधिक, रग रली घर होय ॥४॥
अंत
संवत अठारह जाणुंक, बरस बहुंतर आणुक । चन्न मास है चगा, वद पख तीज दिन रंगा ।। २९ ॥ सपा गच्छ यति है गुलाब, किया इस गजल का जाय । जिसने कहिये कैसीक, भांखियो देखी ऐसीक ।। ३० ॥
निजरी
बावन वीर सधीर धार चामुंड माई, राज कली रस मंद भाटी घर सुभ सवाई । माम नृपति महाराज आज अधिक यश गाजै, कापरड़े कमवज खुशालसिंह नित राजै ॥
(प्रतिलिपि--अभय जैन ग्रन्थालय)
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[ १०२ ] (६) गिरनार गजल । यति कल्याण । सं० १८३८ माह वदि २ । भादि
दोहा
घर दे मात वागेसरी, गजल कहुं गुण खाण । जबर जंग है जीण गढ, वाचा तास चखाण ॥ १ ॥ महवत खान महीपति, रघु विराजै राज गय थट्ट हय थट्ट गाजता, सब ही सारै साज ॥ २ ॥ सकल लोक आगे खड़ा, वाबी के दरवार ।। सत विराजै अमर छच, दिन दिन दे देकार ।। ३ ।।
॥ गजल । दिन दिन होत है देकार, गिरवर गाजते गिरनार दामोदर कुंड है सुख दाय, करतां स्नान पातक जाय ॥१॥ देवल ऊच है धज दंड, नीचे खूब खेती कुंड । भवेसर नाथ सचू देव, सारत लोक जाकी सेव ॥१॥
असी नारियां अलेख, उपमा कही ऐसी देख । संवत अढार अदतीसैक, महा वदि बीज के दिवसैक ।। ५१ ॥ कीनी यात्रा गढ गिरनार, कहताग जल अति सुखकार। घर के अखर भेज सौधार, गड पुरण गिरनार ॥ ५३ ।। खरतर जती है सुप्रमाण, कवि यु कहत है कल्याण
(प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय ) (७) गिरनार जूनागढ वर्णन । मनरूप विजय । आदि- घर भबहि सोरठ चखान, रीझै जु सुनहि सब राव रान ।
गिरनार जिहां तीरथ गजेन्द्र, वंदै जु सूरहि इंद्राणी इंद्र ।। १ ॥
अंत
जूनोगढ जग येष्ट, श्रेष्ट वानी तिहां सोहै । दल सम्बल दईवान, मन्त्र जन देखत मोहै ।। श्रावक जिहां सुखकार पार जिनका कुन पावै । धरम करत धनवंत, गुणह षढ़ बड़े जु गावै ।
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[ १०३ ]
तिण देश तोर्थ शत्रुंज शिखर, बले गिरनार बखाणिये ।
मनरूपविजय कवि कहै मरद, अवस सोरठ चित आणिये ॥ १ ॥ ( प्रतिलिपि ~भय जैन ग्रन्थालय )
( ८ ) चितौड़ गजल । पद्य ५६ । यति खेतल । सं० १७४८ श्रावण वदि १२ ।
आदि
अंत-
दोहा
चरण चतुरभुज धारि चित, भरु ठीक करो मन ठौर चौरासी गढ चक्क वह चावो
गजल
गढ चितौ है बंका कि, मानु समंद में विइ पूरत हलवती, अरु गंभीर तीर भला दैति अल्लावदिन, बंधी पुल बड़ी पदवीन गैबी पीर है गाजी कि, अकबर भवलियौ राजी कि ।। ३ ।।
चितौ ॥ १ ॥
कलश
पंडिताने जिन्हां रीत चावा जिहां चंडिका
लंका कि ।
रहति कि ।। २ ।।
खरतर जती कवि खेताक, आखै मौज सुं एताक । संवत सतरैसे भड़ताल, सावण मास ऋतु वरसाठ : दि पख वाखी तेरी कि, कीनी गजल पढियो ठीक ।। ५५ ।।
पढ़ो ठीक बारीक सुं चारुं कूट मालुम चित्तौ झीली वावसै झीकतें झरणारे झीगरी झीठ
सगीत की ठीक पाई पीठ चामुण्ड माई | दरखत जोइ भीडं
afa खेत युं कवितारे गजल चित्तौड की खूब बनाई ||
लेखनकाल -- १८ वी शताब्दी |
प्रति- पत्र २ । पंक्ति १७ । अक्षर ४७ | साईज १०x८ ।
(अभय जैन ग्रन्थालय )
( ९ ) जोधपुर वर्णन गजल | गुलाब विजय | सं० १९०१ पौष कृष्ण १० ।
भादि---
समरूं मन शुद्ध शारदा, प्रणमुं श्री गुरू पाय । महिपल में महिमा निलो, मरुधर है सुम्प्रदाय ॥ १ ॥ तिण देसै जोधाणपुर, दिन दिन चढते व सकल लोक सुखिया वसै, राज करत हिन्दु राव ॥ २ ॥
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[१०४]
गजल
जोधहि नगर । कैसाक, मानु इन्द्रपुर जैसा । कहियै सोम तिन केतीक, अपनी बुध है जेतीक ॥
॥
पोसह मास घलि वदि पक्ष, दसमी तिथा भृगु परतक्ष ।
खमजो सुकवि चित्त हि लाय, बालक रीत कीनी धाय ॥ १०२ ॥ लेखन-सं १९०१ रीगजल जोधपुररी है पं० नान विजय पं० गुलाव विजयजी कृत।
(प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय ) (१०) जोधपुर नगर वर्णन गजल । पद्य ४९ । हेम । सं० १८६६ कार्तिक सुद १५ ।
आदि
दोहा
समरूं गणपत सारदा, धरूं ध्यान चित्त धार । ज' गजल जोधाण की, निपट सुणो नर नार || १ ||
x
मुरधर देश है मोटाक, तिहां नहीं काहे का तोटाक ।। जिसमें शहर है जोधान, वणूं ताहि मिष्ट हो धान । २॥
धली अठार छासठ वर्ष, हिकमत करी काती हर्ष । निपट ही पूर्णिमा तिय नीक, ठावी गजल कीनी ठीक ॥ ४६॥ तप गच्छ गच्छ में सिरताज, रिधु जिणंद सूरही राज । मुनि वरनेम मही में मौत, कई कवि शिष्य हेम कर जोड़॥४७॥
कवित्त योधनयर जगजाण इन्द्रपुर ही सम ओपत । वाजत वन्ज छत्तीस नित्य उच्छव कर नरपति । राज ऋद्ध बढ़ रीत प्रीत नर नार रु पेखो । अही सूर चंद अडिग दुनी चाड नर थे देखो । घाह जी वाह भोपम घडिम मनुष्य घणा सुख माण री। कवि दिए जिसढ़ी कही जग शोभा जोधाण री ॥ ४७ ॥
(प्रतिलिपि-अभयजैन ग्रन्थालय)
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[ १०५ ] (११) जोधपुर वर्णन गजल भादि
सार, गणपति शिर नगु, निश्चै इक वित्त होय । गढ जोधाणो वर्णवु, मोटो बुद्धि यो मोय ॥ १॥ सबही गढ शिरोमणि, भतिही ऊँघो जाण । अनद पहादी ऊपरै, जालम गढ जोधाण ॥ २॥
राज करै राठौड़ घर, श्री मानसिंह महाराज।
अदल माण धरतै भखंड, इसहो भवर न भाज ॥४॥ गढ जोधाण भति मारीक, जाणं धरा जुग सारीक । जब्बर कोठ पका जोर, जाके जोड़ नावै और ॥ १॥
(श्रुटित प्रति-अभय जैन ग्रन्थालय) (१२) झींगोर गजल । जटमल नाहर । आदि
झोगोर कोटी खूब देखी नारी एक सुनार की । मन लाइ साहिब भाप सिरजी पत सिरजण हार की । मुख चद मुंह निसाण चाटे नैन घामी सार की । भलि मस्ति माछो नाजि.नखरा कली जान भनार की।
अन्त -
कर भोट गूंघट को विराजै, सबल फोज पिठार की । बहु खूप खूवाँ खूप सोमा खूब छवि गुलजार की। बनी अजब महिमा, अजब सोमा नौंस सिंघार की। मुख जटमल सिपत कीनी, कामनी किरतार की।
(प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय) (१३) डीसा गजल । पद्य १२१ । देवप। आदि
चरग कमल गुरु लाय चित्त, गजल फलं सुखदाय । के प्रति बोधी किया, विपुल सुज्ञान वताय ॥ १॥ बीन ठादेश कथीर जु, पहिर खुशी नहीं होय । हीरा मणि माणक सही, लीला कवि जन लोय ॥ २ ॥ घ (ध !)र नीली पाणधार में, गुणीयल नर शुभ गाम । नग फण रस कस नीपजे, धवल नवल सुख धाम ॥३॥
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[१०६ ] ज' सिद्ध दीसा धणी गोला सुजस गढ सूर । धानेरा गढ सम श्रण जैथी जालिम नूर ।। ४ ।। सकल लोक सेवा करे, प्रवन विहार पठाण । रीधू विराजे राज ऋद्ध, दिली पत दीबाण ॥ ५।
कलश छप्पय कवित्त
सुणता मंगल माल देव कुशल गुरु घाँछित दाता । चुगली चोर मचूर सदा सुख आपै साता । चन्द्र गच्छ सिरचंद गुरु जिणहर्ष सूरीसर गाजे। प्रतपी द्रूप जिम पुर भव्या सब दालिद्र भाज। १२० ।। पुण्य सुजस कीधो प्रगट, जिहा सिद्ध अंबा माता धणी कवि देवहर्ष मुख थी कहे, दीय सुजस लीला धणी ।। १ ।।
(प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय ) (१४) नागौर वर्णन गजल । ८३ पद्य । मनरूप । सं० १८६२ । आदि
मरु धर देश है मोटा क, अनधन का जु नहीं तोटा क । जिस में शहर के तै जोर, निपट ही अधिक है नागोर ॥ १ ॥ महीपति मानसिंह महाराज, सबही भूप का सिरताज । खग वल प्रबल अरियण खेस, डंड ही भरै दसही देस ।। २ ॥
अंत:
गुम है अधिक करो कुन गाय, पंडित पढे पार न पाय । मविजन सुण रीझे भूप महिमा कही कवि मनरूप ॥ ८२ ॥
कवित्त
गजल सुणौ जे गुणी भली तिनके मन भावै सुणे राव राजान, उमंग तिनके चित्त आवै । पंडित सुणे प्रवीण हरख उपजे हिय उल्हस । अवर सुणं नर नार, बड़े चित्त माया पिलसै । नग रतन सहर नागौर है कहो कीरत केती करों। कूड नहीं जाण तिलमात कथ,निरख दाद देश्यो नरा ।। ८३ ।।
(प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय)
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[ १०७ ] (१५) पाटण गजल । पद्य १४५ । कर्त्ता देवहर्ष । सं० १८५९ फागुन । मादि
सरस वचन यो सरसती, पामी सु गुरु पसाय । विघन व्याधि भवभय हरण, विकल ज्ञान वर दाय ॥ १ ॥ परम बुध परगट कवि, अर्णव जिम गंभीर । मेरी बुध अति मद है, ज्यूं छीलर सरनीर ॥२॥ खरी धरा नव खंड में, सतर सहस्स गुजरात । संखलपुर राणीश्वरी, मोटी वेथ मात ॥ ३ ॥ धर नीली मंदिर धवल, अक्षय लाछि अलक्ष्य । सर्व लोक सुखिया बसै, खूबी कहै खलख्य ॥ ४ ॥ रथ पायक हय गय घणा, दिन दिन चढते दाव । गायक वाल गाजै गुहिर, राज करै हिन्दू राव ॥ ५ ॥
सखी मिल करत बयणं रसाल, ज घर केन हाय नीहाल संवत अठार उणसठ परस, फागण वाणी सु दिखी सरस ।। १४४ ।। गाइ गजल गुणमालाक, खोल्या सुजस का तालाक धरके भक्षर मन सुभ ध्यान, सुनता होष नित कल्याण ॥ १४५ ॥
कलश कवित्त छप्पय सुणता नित कल्याण, दरे दुख दालिद दूरे । प्रणमो सद्गुरु पाय, सदा मन वांच्छित परै ।। खरतर गच्च सिर ताज, श्री जिन हर्ष सूरि गुरू राजे । सेवै पवन छत्तीस, गच्छ सगलां सिर गाजै ।। पाटण जस कीधौ प्रगट, जिहाँ पंचासर त्रिभुवन धणी ।
कवि देवहर्ष मुखथी रटै, कुशल रग लीछा घणी ॥ १ ॥ लेखनकाल–१९ वीं शताब्दी। प्रति-पत्र ६ । पंक्ति १४ । अक्षर ४५ । साइज १०।४४
. (अभय जैन ग्रन्थालय ) (१६) पाली नगर वर्णन ( कवित्त ढालादि में) मादि
पाली नगर सुहामणों, देख्याँ आवै दोय । वर्णन ताको अब घदूं, सामण करत सहाय ।। १ ॥
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[ १०८ ]
* आण चहै जिननी सदा रे, प्रमुदित मन ससनेह । नाम जपे श्री पूज्या मो रे, ज्यूं बावैया मेह ॥ २॥
(प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय ) (१७) पूरब देश वर्णन । पद्य १३३ । ज्ञानसागर (नारण)। आदि
कोई मैं देख्या देश विशेषा, नतिरे अब का सब ही में । जिह रूप न रेखा नारी पुरूषा, फिर फिर देख्या नगरी में ॥ जिहाँ काणीचुचरी अधरी वधरी, लगुरी पंगुरी हवै काई । पूरय मति जाज्यो, पच्छि जाज्यो, दक्षिण उत्तर हे भाई ॥१॥
अन्त
धणु धणुं क्या कहूं, कयौ मैं किंधित कोई। सब दीठो सब लहै, देश दीठो नही जोई ।। जाणी जेती बान, तिती मैं प्रगट कहाणी। भूठी कथ नहीं कथी, कही है साच कहाणी ।। पिण रहित हूँ इक वात रौ, तन सुख चाहै देहधर । नारण घरी अरू क्या पहर, रहे नहीं सो सुघड़ नर ।। १३३ ।।
(प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय )
(१८) पोरवन्दर ( सोरठ देश ) वर्णन । पद्य २६ । मनरूप
आदि
तिण देश पुरहविंदर प्रसिद्ध, वर्ण यूं ताहि गुन सुन विवुद्ध । कीरति ताहि की सुनहुँ कान, अलका पुरी जू ओपम झुं भान ।।।।
पुरविदर है प्रसिद्ध, सारी विंदर में सिर हर । जिन प्रसाद निन विभ, नित्य पूजै तिहां वड नर ॥ गच्छ पति महिमा घणी, करै नरनारी उमंग कर । सुण सूत्र सिद्धान्त, धरम मग अथग हिय धर ।। शज भेंट गिरनार सह, रीत ध्रम खरचै शु रिस् । कब सनरूप महिमा उरै, पुर विंदर दोठी प्रसिद्ध ॥ २६ ॥
(प्रतिलिपि-अभय जैनग्रन्थालय )
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[ १cs i
( १९ ) वीकानेर गजल । उदयचन्द्र यति । सं० १७६५
1
आदि---
अन्त
अन्त
शाद मन समरूं सदा, प्रणमुं सद्गुरु महियल में महिमानिलो, सन जन कुं इसधा मांहे घीकपुर, दिन दिन सर्व लोक सुखिया वसै, राज करे पर दुख भंजनरिपु दलन, सकल शास्त्र विध जाण ।
अभिनव इन्द्र अनूपसुत, श्री
महाराज
दल
बांकी धर गढ चावो प्यारे चर्क
Die
बंकड़े, रिपु में, निरख्यों
चैत्र 1
पाय |
सुखदाय ॥ १ ॥ दाव |
चढते
हिन्दु राव | २ ॥
सुजाण ॥ ३ ॥
कीना जेर ।
लेखनकाल -- १९ वीं शताब्दी ।
प्रति–पत्र ६ । पंक्ति १३ | अक्षर २५ | साईज ५४३॥
वीकानेर || ४ ||
भूलगा
पूरी कीनी ।
संवत सतर पैंसठ रे मास, चैत्र में गजल माना शारदा के सुसाइ सु रे, मुझे खूब करण की मति दीनी ॥ कानेर सहिर अजब है व्यारूं चक में ताकी प्रसिद्ध दोनी । उदैचन्द भानन्द सु युं कहै रे, चतुर माणस के चितमाहिलीनी ॥ चावो च्यारे चक में नवखण्ड मेरे, प्रसिद्ध बधो वीकानेर बाइ | छत्रपति सुजाण सा जुग जुग जीवो, ताके राज्य में बाजते नौबत थाइ ॥ मनसुं खूब वणाई कै रे सू सुनाइ के लोक कविन्द आणंद सु यु कहै रे गृधू धू धूं धूं खूब
सुवास पाइ । गजल गाइ ॥
(अभय जैन ग्रन्थालय ) (२०) बड़ोदरा गजल | दीप विजय । सं० १८५२ मार्ग शीर्ष शुक्ल १ शनिवार सादि
घटप्रद ( पत्र ) क्षेत्र है वीराक, लटणी बहत है नीक । फिरती गिरद दो कोशांक, क्यों रहें शत्रु की हौंसक || आगुं राष दामाजीक, जैसा व्याय रामादिक । गोला म्याल से सन्ध्याक, किल्ला सेतना
वंभ्याक
कलश सवैया
पूरण किन्तु मजल अवल अठार से बावन चिस श्रावर वार मृगशिर तिथि प्रतिपक्ष पक्ष
उल्लासें ।
राजासें ॥
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[ ११० ] उदपो तले थाट उदय सूरि पादह लक्ष्मी सूरि जिम भान भाकाशें। प्रमेय रत्न समान वरनन सेवक दीपविजय इम भासे ॥
(प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय) (२१) वंगाला की गजल । यति निहाल । आदि
दोहा श्री सदगुरू शारद प्रगमी, गवरी पुत्र मनाय । गजल बंगाल देश की, कहूं सरस बनाय ॥
गजल अवल देश वंगाला कि, नदियां बहुत है नालाकि । संकदी गली है वहां जोर, जंगल खूब घिरे चहुं ओर ॥ नवलख कामरू इक द्वार, दस्तक बिना नहीं पैसार । बांए हाथ बहनी गंग, दक्षिण भोर परवत तुंग ॥
रेखती यारो देश वंगाला खूब है रै जिहां पहत भागीरथी भाप गंगा । जिहां सिखरसमेत पर नाथ पारस प्रभु झाखंडी महादेव चंगा ।। नगर पचेट में रघुनाथ का बड़ा न्हाण है गंगा सागर सुसंगा। देश 8ढीसा जननाथ अरू वा कुंड के न्हात सुध होत अंगा ॥
- दोहा गजल वंगाला देश की भाषित जती निहाल । मूरख के मन मां बसै, पंडित होत खुश्याल ||
(प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय) (२२) भावनगर वर्णन गजल । पद्य ३२ । भक्ति विजय । सं० १८६६ कार्तिक पूर्णिमा ।
आदि
आश्वनाथ प्रणमी करी, धरूं ध्यान शुभ ध्याय । भावनगर भेदह भणं, सहु नर नारी सुहाय ।। १ ।।
भन्त
गंजल गुञ्जर धरह गुण केसाक, जो ज्यो सकर पय जैसाक् । तिनकी सिफल कवि का है ताम, नव खण्ड महे तिन का नाम ||१॥ ।
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[ १११ ]
अन्त
संवत् भठार छासह साच बलि तिहाँ मास कातक वाच । पूनम सकल को दिन देख, बदी है गजल भाव विशेष ।।३१॥ तप गच्छ धणी तालात, विजैजि न्द्रसूरि शोभत ।। सेवक भक्तिविजय कर सेव, पढी है गजल पुज पंच देव ॥३२॥
(प्रतिलिपि अभय जैन ग्रन्थालय (२३) भावनगर वर्णन । पद्य २५ । हेम । सं० १८६६ कातिक पूणिमा । आदि
पंच देव प्रणमुं प्रथम, ऋषम सत वड रोत । नेम पाश्वं बर्द्धमान नित, परम धरू चित प्रीत ॥१॥ गुण गाऊँ गुजर धरा भावनगर भल मंत । राजे सुण गुण राजघी, सुण रीक्षे सुण सत ॥२॥
छन्द त्रोटक गहिरो अत देश गुजारयं निजध्रम ब्रह्मांजु नारी नरंय । घणी ऋद्धि वृद्धि जिये घर में, धरे चित्त सुवत्त दया धरमे ॥१॥ परित नेम गुरु के पसाव, मन शिण्य हेम जल सुभाव । सुन के जु रीक्षहै नर सयान, वाह जू वाह वदह महीवान ।।२४॥
दोहा
संपत भठारह छास, पूनम कार्तिक पेख । भावनगर का गुण भला, वरण्या वि विशेष ॥
(प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय ) (२४) मंगलोर ( सोरठ) वर्णन। मादि
नाभि नन्द कुं नमन कर, संत नेम सुखकार । पार्श्ववीर पाय प्रणमता, प्राणी उत्तरै पार ।।
छन्द पद्धरी मंगर सहर मोटे मंडाण, ज्यात जगह माहि कैलास जाण । पहलो जु कोट अतही प्रचंड, नहीं इसी अधरन वही जु खंड ।।३॥
मन्त
तरुण तेज गच्छ तपे, विजय जिनेन्द्र सूरीश्वर । ज्ञानवंत गम्भीर, नमै सहू को नारी नर ।।
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[ ११२ ] योग भष्ठ विध जाण. वाण अमृत सत पदियत । संग सकल मिल सदा, निज उच्छव करते नित ।। देश परदेश माहे दीपत, जीपत अष्ट कम्ह अरी । कीरत सत गच्छ पति तणो, कव जोद्धण सैह रह करी ।।१४ ।
(प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय ) (२५) मरोट गजल । यति दुर्गादास । सं० १७६५ पौष कृष्ण ५ । आदि--
सम्मत सतरै पैस, पोह यदि पांचम्म । मी गुर सरसती सानिधे गजल करी गुण रम्य ॥१॥ गुणीयल प्राहक हुसी, खलह हुसी कोई खोट । दुरस कही दुरगेस मुनि, किले कोट मरोट ॥२॥
जब जग भाग माही करी, तब लग कोट नींघ खरी । मौसा कोट बरणाव, चित में चूप धरता चाय ।। भाग्रह दीपचन्द उल्हास कहता नती यूँ दुर्गादास । सुण है दीजियो स्यावास गजल खूब कीनी रास ॥
(प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय) (२६) मेड़ता वर्णन गजल । पद्य ४८ । मनरूप । सं० १८६५ का सु० १५ । मादि
मरूधर देश अति मोटाक, नित नित फबै नव कोटाक। .
विनही देश की सुन ताम, निज ही कीर्ति नव खण्ट नाम ॥ अंत
सम्बत अठारह पैंसट* साच, वलि सुद मास कार्तिक वाच । पखही सुकल पुनम पेख, दाखी गजल कषि नन देख ॥४६॥ सब ही गच्छ में सिरताज, राजत भरल तप गच्छ राज । भकि ही विजय गुण भारीक, नाकुं खबर धर सारीक ॥४॥ तिनके शिश्य मनरूप ताह, वदी है गजल वाह जी चाह ।
वांचे सुनै नर वहरीत, पामै अचल मन बहु प्रीत ।।४८॥ अन्य प्रति में
संवत अठारह तयासी साच, धलि कार्तिक मास हो वाच । पख ही सकळ पूनम पेख, दाखी गजल कधिजन देख ॥४६॥
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[ ११३]
कवित्त सब ही में सहर जु सिरह, पुरह मेदनी पिछानौ । इमका गुन मनपार, जाहि में रहस म जानौ ॥ भाव भक्ति जिन भेड, जठे श्रावक सुखकारी । दयावंत दातार निपुण भ्रम में नर नारी ॥ जिन धर्म मरम जाणण जिके, हित कर मानव हेरतो। सुरपुरी मांहि इन्द्र पुर सरस पिण मरूधर माहि मेड़तो ॥१॥
(प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय) (२७) मेदनीपुर (मेड़ता) महिमा छन्द । पद्य ३९ । भक्ति विजय । सं० १८६६ का० शु० १५ । भादि
नामि नन्द नित नित नमुं, शन्त नेम सुख कार । पारस श्री वर्द्धमान प्रति, धरूं ध्यान चित्त धार ॥
. छन्द पद्धरी दिग दिट्ठ मिट्ठ मरुधरा देश, वलि शहर मेढता है विशेष । बड़ कवि करत तिन के बखान, मानव जू" त यह सतमान ॥१॥
संघत अठार छासष्ट वर्ष, हद मास कार्तिक भान हर्ष । पूनम जु प्रथम कुमवार पेख, बड तप गग्छ दिपत विशेष ।। ३७ ॥ बिजिनेन्द्रसूरि भरपूरि राज, कर तेज धर्म के ईई काज । कवि कहत भक्त कर पिन्हु जोढ, मेड़तो सदा मुरधरा मौढ़ ॥ ३८ ॥
(प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय) ( २८ ) लाहोर गजल । पद्य ५६ । जटमल नाहर । आदि
देख्पा सहिर जब लाहौर, विसरे सहिर सगळे भौर । राधी नदी नीचे बहे, नावा खुव डाली रहे ॥॥ बोले वत्तकां बग सीर, निरमल को भाठा नीर । वसती सहिर है चौरास, वारह कोश गिरदी घास । २॥
है जिहां जाइ गुल रंग, लाल गुलाब बहुत सुरंग । पिपल राइवेळ चंयेल, मरूभा मोगरा गुल केल ॥ ५५ ॥
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[ ११४ ] कितेहक नागणी के फूल, कणेयर कवल मालति मूल । शोभानगर की अनेक, जटमल कहै केती एक ॥ ५५ ॥
लहानूर सुहावना देख्या होत भनन्द कवि जटमल वर्णन करि होत सुखकन्दा५५ लेखन-सं० १७६५ गेहरसर मध्ये पद्मा ।
प्रति-पत्र ६ (अन्य कृतियों के साथ) जिसमें पहले पन में यह गजल है । कुल पंत्तियाँ ३४ । अक्षर प्रति पंक्ति ६७ । साइज १०॥४४॥ विशेष-अन्य प्रति में पद्य संख्या ६० है।
(अभय जैन ग्रन्थालय) ( २९ ) सांडेरा छन्द । पद्य २५ । अपूर्ण। भादि:
समरत सरसति सामणी गणपति के गही पाय । सुगुण सुगुरू के नाम जप, करत है सुन्द घणाय ॥ १ ॥
छन्द हाटकी साल देश मां सिर देश, अनोपम गुणवंत गोठाण । पस है भल्ला सहिर अवल्ला -साडेरा शुम ठाम ॥ प्रबल प्रतापी दिनकर सरिखो पाले राज प्रमाण । एसौ सारा नगर सवाई परगट पुण्य प्रमाण ॥१॥
अन्त:
पोसाठा परगट विहु, अति शोमित मभिराम | बहुले होल पढे निहां, ज्ञान रसिक हुई ताम ॥ ३ ।।
(प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय ) (३०) सिद्धाचल गजल । पद्य ६९ । यति कल्याण । (सं० १८६४ भा० सु १४) । भादिः
चरण नमुं चक्केसरी, प्रणमुं सद्गुरु पाय । विमाधक गुण वर्णवू, श्री सिद्धगिरि सुप(स) य ॥१॥
गजल छंद हिरणफाल . गुणयंत पाहु के गहगीर, पूरत हरत तन की पीर । भूषण वाव है भल्लीक, पर धन पटा है पल्लीक ॥
संघत अठार चौसक माद सुद चउदसी ठेक । कीनी गजल दौलत हेत, चित में पार भखर समेत ।। १८॥
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[ ११५ ) जै भभै गुणे तस हर्ष हुष, सदा सुख होई सुख लहस । खरतर जती है सुप्रमाण, कवि यु कहत । कल्याण ।। ६६ ।।
इति श्री सिद्धाचल गजल संपुरण । लेखनकाल–१९ वीं शताब्दी। .. प्रति-टिप्पणाकार पत्र १ । पंक्ति ५४ । अक्षर २४ । साईज ९।४१७ ।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (३१) सूरत गजल । यति दीपविजय । सं० १८७७ मार्गशीर्ष २। भादि
दोहा परसत पद प्रणामुं सदा, प्रणमुं गुरु के पाय । गजल सूरत की गाऊंगा, श्री गुरु देव सहाय ।।
- गजल
सूरत शहर है सुथानाक, विएर दीपता दानाक । अलका भूमि पै आईक, कोट कोट सै पड़ खाईक ॥१॥ पूरे लोक से पूरेक, अमर वास कुं धुरेक शोभा देत है कमठाण, भट्टा पहुंचती भसमान ॥२॥
करके कृपा तप गच्छ भान, आना शेहर अपनो जाम । जाणी संघ अपनो आश, आना पूज्य जी चौमास ॥ ८१ ॥ सतोतर सतवा अठार, मिगसर मास द्वितीथासार । परण्या दीप श्री कविराज, सुरत सेहर को साम्राज ॥ २ ॥
कलश छप्पयःबंदिर सूरत सेहेर, ता बरनन इह कीनो । सब सेहरी सिरताज, सूरत सेहर नगीमो ॥ नीको सूरत सेहर लख कोशां लख चायो । देखम की नस होस सौं देखन मैं भावो ॥ श्रीगच्छ पति महाराज कुं, चित लेख लिखनै लिहा दीपविजय कविराज ने, इह सूरत सेहेर घरनन कीठ ।। ८३ ।।
(प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय)
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[ ११६ ] (३२ ) सोजत वर्णन गजल । पद्य ६३ । मनरूप (संवत १८६३ काती सुद १५) भादि
चाल गजल भुरधर देश देशो मौड़, राजहि करत है राठौड़। वरणू ताहि का घाखांन, जग जन सब सचा जान ।। भनु जिहां मानसिंह भूपत्ति, राग छत्तीस सुण है रस । वाका तेज का वाखान, रटते सदा राव ही रान ।।
संवत भठार तेसह यात्र, वलि सुद मास कार्तिक वाच । पूनम तिथ के दिन पेख, दरस ही जल कीनी देख ॥ ११ ॥ तप गच्छ सदा मोटा नाम, पंडित भक्तिविजय है नाम । सहि तिन देव सूरह साख, भल शिष कवि मनरूप भाख ॥ १२ ॥
कवित:गजल कही गुणवंत भला, कवि तिण मन भावै । रीझ राव ही राण सुणे, नर अवर सरावै ॥ भावन वल अबहु बेद भेद, वांचे सु वखाण । चारण भाट ही चतुर जिके, गुण बोहोला जाणे । सोझाली नयर करनी सुकव, जे जे ठौड़ हुँती जीती। कवि सनरूप अरजह करै, गुन सव रीझौ गहा पती ॥ ६३ ।।
(प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय)
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(ट) शकुन, सामुद्रिक, ज्योतिष, स्वरोदय, .
रमन और इन्द्रंगाल। (१) अवयदी शकुनावली। रायचन्द । सं० (१८) १७ द्वितीय ज्येष्ठ वदि ५ नागपुर। भादि
महावीर को ध्याइक, प्रणम सरसति मात । गणपति नितप्रति जै करै, देवै बुधि विख्यात ॥१॥ गुरु चरणन को वंदणा, कीजै दीजै दान । इस विधि सेती जातां, पाइजै सनमान ॥२॥ रीले हाथ न जाइये, गुरु देवों के पास।।
अरु विशेष पच्छा विषै, मुदा श्रीफल तास ॥२३॥ गद्य
अहो पृच्छक सुणहु तुम तौ गुणवन्त बुधिवन्त हो परं तेरी बुधि अरु गुण लोक रहण देते नाही तुम्ह तो सब ही लोगु सेती भलाई करते हो सो (लो) गु तुम्हारी भलाई जाणते नांही। लोग बड़े दुष्ट है इस वास्ते स्थिर चित्र हुइ करिकै अब एक वार्ता करहु ज्यो अपणे मित्र भाई बंध है तिस मिलिज्यौ सभही कार्य तेरे भला होइगा।
संवत सतर दुतीय ज्येष्ठ वदि पंचमी सती नागपुर वणिक सरम । श्रीपाट गजीगे प्रगट भति सुजाण सिघ गुण गेह । अती रायन लिखी सुकनोती ससनेह ॥२॥ अले जतन सौं राखियौ यह अब याको सारा । कल्प वृक्ष यौ देत है वंछित फल श्री कारा ॥३॥
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[ ११८ ] लेखन-संवत १८९६ रा मिती ज्येष्ठ वदि ५ इति श्री अवयदी शुक्ला (कना) पली संपूर्णम् ।
कर दुख बिगरी नेयन दुख, तन दुख समज समान ।
लिण्यो जात है कठनसुं सठ जानस आसान ॥१॥ प्रति-(१) पत्र २० । पंक्ति १० । अक्षर २६ से ५० । साइज १०४४||
(२) गुटकाकार । पत्र ११ । पंक्ति १५ । अक्षर ३४१ । साइज ८||४|| सं. १८९१ वि.
(अभय जैन ग्रन्थालय)
(२) केशवी भाषा । जोशी त्रिलोकचन्द्र ।
अन्त
कालचन्द कवेतम्बरो, पुन उन ही को ज्यान ।
भिन्न भिन्न समझाय के, दियो भमय पद दान ॥ लेखन-संवत् १८७० माधव सुदि ३ भावहर्षीय कस्तूरचन्द लिखित । प्रति-पत्र ४। विशेष केशव रचित संस्कृत ज्योतिष ग्रन्थ की भाषा टीका है।
(श्रीचन्द्रजी गधैया भंडार, सरदारशहर) (३) चंपू समुद्र ( सामुद्रिक ) । भूप । सं० १७२५ वि०। भादि
पीता धीता नहिन सो गङ्गा गीता काय । रोता होही तान कोई सीनानाथ सहाय ॥१॥ सुंदार दंड अखंडित बलए, अलिगण मण्डित गंड स्थले । वर दस्पति सुअवर६ अमीचं बन्दे गण नायव भवपुत्रं । वागी . भूषण कण्ठ कवि भूपहि दीने पानि । अन मग लछमन सवै कहो समुह बखानि । पत्तिस लक्ष्मन पुरुप को प्रथमहि कहौ विचारि । बहुरि वही सब अह्न को, जो घर देइ मुरारि ॥ -
अन्त अङ्गुरि मध्या जब भनी भूर भमूप । हो हि पुरुष ते उत्तम सामुद्री यह करव ।
भूपा परति अलंपटहि सिद्धि वद्य है सच ॥ इति भूप भाषित चंपू समुद्रे तृतीय सर्ग शुभमस्तु ।
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[ ११९ ] लेखन-संवत् १७२५ मिति सावन वदी अमसा १५, पोथी लिखा जानसाही। प्रति-पत्र ४३ । पंक्ति ७ । अक्षर २४ । साईज ९४४।
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय )
(४) ज्योतिष सार भाषा-कवि विनोद । कृष्णदत्रा । भदि
अथ गणेस स्तुति रिद्धि सिद्धि गणाधिपति नर महेश सुत का धर ध्याने । हृदय काल में कितेरे हृदय कमल में दे ज्याने ॥ टेक ।। अरुण कुसुम की माल कण्ठ और परशु कमल है मिनके कर । अरुण माल में लाल सिंदर दिदा अरुण अधर । सर्व भङ्ग है मनुधर का गज सीस विराजे अति सुन्दर । मुख मुखधाहन कि तुम तो मुषक वाहन लम्बोदर । बन्धु मित्र सुत दार गेह में क्यों होता हे अग्याना । कृष्ण दत्त श्री कृष्ण भक्ति बीन कभी नही होती गुजराने । भूत भविष्यत वर्तमान जो तिन काल बतलाता है। जौति शास्त्र सब शास्त्रशिरोमणि, बिना भाग्य नहीं आता है ।। टेर ।।
अन्त
शिखरि स्युगमा तुम्ह से, पाद मैन में रोग। .
राज पोडित कृश तनु में भया मिला देव संयोग ।।१२।। । इति केतु फलं । इति श्री कृष्णदत्त विप्र विरचित जोतिसार भापा कवि विनोद नवग्रह फलं समाप्तं ।
लेखन काल-२० वीं शती । प्रति-पत्र ८ से २६ । पंक्ति ११ । अक्षर २८ से ३२ । साइज १०४५।
(अभय जैन ग्रंथालय) (५) तुरकी सुकनावली। आदि
हमल १ सुणि हो पृच्छक इण काल के श्रावणे पाणंद खुशी, नेक वखत है दुस अरु चाड दफै होइगा, विरहा तेरा मन चित्या होइगा, इच्छा पूजैगी मन ||१||
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अन्त-
सुण हो पृच्छक यः फाल युं कहत है तुझे साहिब चिताथी छुड़ावैगा सर्व सिद्ध होइगी अच्छा फक है तेरा काम होइगा खुदाइ का हुकम है फतै होइगी || १५ | इति तुरकी सकुनावली संपूर्ण ।
लेखन काल - १९ वीं शती, पाली मध्ये ॥
प्रति - पत्र २ । पंक्ति ९ । अक्षर २४ । साइज ८|| ४ |
(६) पासा केवली -
[ १२० ]
आदि पत्र खो गया है
NXXCO
( आभय जैन ग्रंथालय )
अन्त
जिस कारज की चिंता तू वार वार करता है सो कारज दर हाल सिद्ध होगा किसी थांनक सु लाभ कै वासतै अपणा पुत्र भेजता है अथवा तू जाणौ की करता है सो दर हाल लाभ सेती आवैगा । जो तेरी गई वसत होइगी सो भी आवेगी, एक दिन में अथवा दो दिन में तेरे हाथ कछु लख भी आवैगा ॥१॥
इति पासा केवली समाप्त ॥ १॥
दूसरी प्रति में पाठ भिन्न प्रकार का है यथा
सुनि हो पृछक इस पासे का नाम विलक्षण है जा चित्त में वाता चीतवत हो सो सफल होइगी । पुत्र धरती सौं प्राप्ति होगा, राजा के घर सौं तथा किसी बड़ी जागा सौ प्राप्त हुवैगा ।
इति पासा केवली सम्पूर्णम् ॥
लेखन–संवत् १८३२ रा मिति आसू वदी ८ दिनै लेखि विक्रम मध्यै ।
प्रति - ( नं० १ ) पत्र २ से ७ । पंक्ति ४ । अक्षर ३५ | साइज ७॥ ४४ ॥ ( नं० २ ) पत्र २ से ७ । पंक्ति १२ । अक्षर ४२
।
साइज १०x४
( अभय जैन ग्रन्थालय )
(७) बारह भुवन (९ ग्रह ) विचार । सार (?) । आदि
स्यु विचार ज्योतिष को, कहत न आवै पार । भव फल बारह भवन के, वरणत है कवि सार ॥ १ ॥
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[ १२१ ] तन भुवनै सरज करें, नर कुरूप बहु केस
विनै रहित क्रोधी सहज, सार विन्त सविवेस ॥२॥ अंत
एसे बारह भुवन पर ज्योतिस सास्त्र विचार । फल नवगृह को वर्ण क्यो सार बुद्धि अनुसार ॥१॥
इति नवग्नह फलं लेखन काल-१९ वीं शती । १८ वी शती की कई प्रतियां भी संग्रह मे है । प्रति-(१) पत्र ३ । पंक्ति १५ । अक्षर ४८ से ५२ । साइज १०४४॥
(२) पत्र ५ । पंक्ति ११ । अक्षर ३० । साइज १०४४। (३) पत्र २ । पंक्ति १८ । अक्षर ४८ । साइज ९४४ (४) पत्र ४ । पंक्ति १५ से १८ । अक्षर ३६ से ४० । साइज ९llx४| (५) पत्र ३ । पंक्ति १६ । अक्षर ४० । साइज ९x४।। अपूर्ण । (६) तीन प्रतियो के फुटकर पत्र ३। सं० १८३८ आसू वद । लिहिमता लूणसर ।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (८) मेघमाल मेघ । सं० १८ १७ कार्तिक शुक्ला ३ गुरुवार । फगवाड़ा।
- भादि
परम पुरुष घट-घट रम्यौ ज्योति रूप भगवान । सकल रिद्ध सुख दैन प्रभु, नमति मेघ घर ध्यान ||१|| ज्योतिक ग्रन्थ समुद्र है, जांकी ले इक विन्दु । मेघमाल मेघे रची, प्रगटे जिय जग चन्दु ।।८।। मेघ विचार प्रथम ए थाई, जैसे वक्कै कही बनाई। काल सुकाल तणी यहि बात, गुरु किरपा कर कह्यो विख्यात ।।३।।
दटपटा छन्द श्री जटुमल मुनिसजी सब साधन राना, परमानन्द सुसीस है ग्रन्थ विगुनि साजा । रिव्य भयो सदानन्द तिसत उपमा भारी, चौदा विद्या युक सोई आज्ञा गुरु कारी ॥१॥
चौपाई ताहि शिष्य नारायण नाम, गुण सोभा को दीसे ठाम । तांको शिष्य भयो नरोत्तम, विनयवंत आज्ञा नभगोत्तम ॥ १६॥
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. [ १२२ ] ता सेवा मैं मयाजु राम, कृपावंत विया अमिराम । तिनकी दया भई मुझ कार, उपज्यो ज्ञान सही मोही पर ॥ १०॥
अडिल्ल
तौते मेघ माल इहु कीनी, जो गुरु के मुख ते सुम लीनी । इसको पढ़े सौ शोभा पावै, सो जग में पंडित कहलावै ।। १८ ॥
रसावल छन्द मुनि शशि घसु को जान महि, संवत ए खत । कातिक सुदि गुरुवार मान पत्र मिति तिथि भाखत ॥ उम्राषाढ नक्षत्र दिवस, मही एक विकीजत । जो घट अक्षर होइ, ताहि कवि सुध करि लीजत ॥ १९ ॥
लीलावती छन्द एक देस जलंधर सोभे सुन्दर नाम दुपा था और कह्यो । शुभ दान पुन्य की ठौर इही है मानों सुर पुर भान रह्यो । पण्डित नर सोभे कषि ते भारी गीत बजत रसयो। ग्रह ग्रह मङ्गलचार जु होवे तामे पुर इक एह घसयो ॥ २० ॥
दोहा सकल रिद्धि करि सोभए, फगवाडा शुम थांम । तहां मेघ कता कर, भाछी विध मन भान ।। २१ ॥ चूहडमल्ल जु चौधरी, फगवारे को राउ । चतुर सैनका सोम हैं, जिष्ट उद्धगण शशि था।। २२ ।।
गीया छन्द कर सर्व छन्द मिलाइ इकठा कही संख्या यास की । द्वात्रिंश अक्षर के हिसाब अठसै अनचासकी। इहु छन्द सत अरू उनीसै कही कवि इहु भास की ।
सजानु संख्या दौड जाने, मेघमाल विलास की ।। २३ ।। लेखनकाल–२० वीं शताब्दी । प्रति-पत्र १७ । पंक्ति १९ । अक्षर ४५ | साइज १०x४॥
(श्री जिनचरित्रसूरि संग्रह) (९) रमल शकुन विचार । फाल फते की। भादिफाल फते की-अरे यार बहुत दिन चिंता की है अब तेरी फिकर चिंता मटेंगी रोजी तेरी फणक होगी, अव तू अचित रहणा । जो कहांई
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[ १२३ ]
देश परदेश जाण होई, अथ सौदा करण होईं बेचण होई x सगाई करणी होई सौ कीर्जे, वैगी एक आदमी तेरा वही करता है तो रद्द होगा ।
अन्त
भवतु ।
राजा प्रजा सुखी बैमार कुं कुसल दर हाल सुं छुटेगा x सर्व भला हो ॥ सर्व कांम प्रमांण चढ़ेगा । रमल शकुन विचार समाप्तम् शुभं लेखनकाल - १८ वी शताब्दी । पं० सरूपा लिखतं । प्रति- पत्र ३ | पंक्ति १५ । अक्षर ४८ | साइज १०x४ । विशेष- इस प्रकार की अन्य कई शकुनावलियें पाई जाती हैं ।
(१०) शीघ्रबोध वचनिका
भादि
बिघन कदन बारन करहु कृपा गिरिजा
लेखनकाल - सं० १९१९ ।
अन्त
बदन, सिद्ध सुतन, दीजै
प्रति- गुटकाकार
विशेष - शीघ्रबोध ज्योतिष ग्रन्थ की भाषा टीका है ।
सदन
बानी
शकुन
श्री
(यति ऋद्धिकरणजी भण्डार, चूरू )
(११) सकुन प्रदीप | जयधर्म । सं० १७६२ आश्विन ५ | पानीपत मे रचित |
1
आदि
शास
जयधरम
( अभय जैन ग्रन्थालय )
गुण एन ।
बेन ॥
स्वस्ति श्री जिन राज मुक्ति मन्दिर वर नायक ।
दायक ॥।
गुणधारक ।
विधारक ||
सकल जगत सुखकार सरस मङ्गल बहु
सजल जलद सम अङ्ग, विमल छिन छिन मन कमठ शठ मान, इति भय पाप सर्पादि राज पद्मावती, जाके घंछित युग कर जेरी चहुं नति करत, नित पार्श्वनाथ भव भय हरण ||
चरण ।
मंझार, निरखे लोक जु अति कठिन ।
विचार, संस्कृत ते भाषा करी ॥। १९१ ॥
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[ १२४ संवत सतरे से बीते, वासठ उपरि जान ।। आश्विन मित तिथि पंचमी, शशि सुत वार बखान । १९२ ।। श्री पानीपंथ नगर मंझार, जिन धर्मी श्रावक सखकार ।। पुण्यवंत महा धनवन्त, दयावन्त अतिहि गुणवन्त ।। १९३ ॥ आचरहि नित प्रति पट कर्म, श्री मुख भावत पालहि धर्म । नन्दलाल नन्दन सभ कार, श्री गोवरधनदास उदार ।। १६४ ।। ताके हेत रची यह भाषा, शकुन श्रुत के लेकर शाखा । शकुन प्रदीप सु याको नाम, महा निर्मल ज्ञान को धाम ।। १९५ ।। पण्डित लक्ष्मी चन्द गुरू, ता. प्रसाद ते एह । छन्द रच्यो यह ग्रन्थ शुभ, गोवरधन दास सनेह ॥ १९६ ।। पढ़त सुनत उपजै मती, मगलीक सखकार ।
सकुन प्रदीप तन्त्र यह, कविजन लेहु सुधार ॥ १९ ॥ प्रति-(१)जयसलमेर भंडार (अपूर्ण)।
(२) पंजाव भंडार (पूण)। (१२) सामुद्रिक । पद्य २११ । रामचन्द्र । सं० १७२२ माघ कृष्णपक्ष ६ । भेहरा।
आदि--
अथ सामु (द्रि) क भाषा लिख्यते । दोहरासरसति समरूं चित्त धरि, सरस पचन दातार । नरनारी लक्षन कहुं, सामुद्रक अनुसार ॥ १ ॥ सामुद्रक ग्रन्थ मे कहे, अगम निगम की वात । इसह जांण जो नर हुवइ, ते होई जग विख्यात ।। २ ॥ आदि अन्त नर नार की, सुख दुःख वात सरूप ।। कुहं अनेक प्रकार विध, सुणो एकंत अनूप ॥ ३ ॥ प्रथम पुरूप लक्षण सुणों, मस्तक पद पर्यंत । छत्र कुंभ सम सीस जसु, ते हुवै अवनी-कंत ॥ ४ ॥
वनवारी बहु बाग प्रधान, बहै वितस्था नदी सुथान । च्यार वण तिहां चतुर सुजान, नगर भेहरा .श्री गुग प्रधान ।। पढ़े बड़े पाति साह नरिदा, जाकी सेव कर जन कंदा । पातिसाह श्री ओरन गाजी, गये गनीम दसो दिस भाजी ॥ ८९ ।। आके राज अन्य ए कीन, संस्कृत शास्त्र सुगम करि दीनै । संवत् सनर से वावीसा, माघ कृष्ण पक्ष छठि जगीस' । २० ।।
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[ १२५ ] गिरवर माहे सुमेर विराजै, ज्योति चक्र जिम सूरज छाजै । गच्छ माहे खरतर गच्छ राजा, जाकै दिन दिन भधिक दिवाजा ॥ ९१ ॥ श्री जिनसिंह सूरि सुखकारी, नाम जपै सब सुर नर नारी । जाकै शिण्य सिरोमण कहिये, पद्मकीर्ति गुरु वर जसु लहियै ।। ९२ । विद्या च्यार दस कंठ बखाणे, वेद च्यार को अरथ पिछाने । पदमरस मुनिवर सुख दाई, महिमा जाकी कही न जाई ॥ ९३ ॥ रामचन्द मुनि इन परि भाख्यौ, सामुद्रिक भाषा करि दाख्यो ।
जां लगि रहि ज्यो सूरिजी चन्दा, पढहु पंडित लहु आणन्दा ॥ ९४ ।। प्रति-१९ वी शताव्दी। पत्र २ अपूर्ण । हमारे संग्रह मे है । अंत भाग बीकानेर के जिनहपसूरि भण्डार के बंडल नं० १६ की प्रति से लिखा गया है। यह प्रति सं० १७९९ की लिखित १३ पत्रो की है।
विशेष-ग्रन्थ मे दो प्रकाश है, प्रथम मे नर लक्षण मे ११७ पद्य एवं द्वितीय नारीलक्षण मे ९४ पद्य, कुल २११ पद्य है ।
( जिनहर्षसूरि भंडार) (१३) सामुद्रिक शास्त्र भाषाबद्ध । पद्य १८८ । नगराज । अजयराज के लिये रचित ।
अथ सामुद्रिक शास्त्र भाषावद्ध लिख्यते । आदि
एक बालक सब लक्षण परे, देखत जाई दोष सब दूरे । भागम अगम आदि मुनि साखी, ज्युं सामुद्रिक प्रथे भ खी ।। १॥ आगम लछन अग जणावै, सबे ऊपध पूरे फल पावै। ताका अब कहूँ विचारा, समझत कहत सुनत सुखकारा ॥ २ ॥
अन्त
सुगुन सुलछन समति सुभ, सज्जन को सुख देत । भाषा सामुद्रिक रचों, भजेराज के हैत ॥ ६ ॥ जो जानइ सो जान, दाता दोहि अजान फुनि ।
जानवनो अरू दान, अजेराज दुहु विधि निएंन ॥ ६७ ॥ इति श्री सामुद्रिक शास्त्रभाषा बद्ध पुरुष स्त्री सुभाशुभ लक्षण सम्पूर्ण । लेखनकाल- संवत् १७७४ ना वैशाख सु० १ दिनै । प्रति-(१) पत्र ८ । पंक्ति १३ से १५ । अक्षर ४० से ४८ । साइज ९॥४४
(२) पत्र १० । पंक्ति ११ । अक्षर ४० । साइज १०४४।
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[ १२६ ] (३) पत्र २ से ७ । आदि अन्त के पत्र नहीं। (४) पत्र ४ा पंक्ति २१ । अक्षर ६०। साइज १२५ x ५ | सं० १७५१ ।
____ उदेई-भक्षित। विशेष-६२ ३ पत्र की अन्त की पंक्ति से कर्ता का नाम नगराज जान पड़ता है।
'नगराज सुगुन लछन अजैराज बूझई सही ॥ ६२ ॥ प्रस्तुत ग्रन्थ में नर लक्षण के पद्य १२१, नारी लक्षण के ६७, कुल १८८ पद्य है । प्रति नं० २ मे आदि के २ पद्य नहीं एवं ३ अन्य कम होने से १८३ पद्य ही हैं।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (१४) इन्द्रजाल चातुरी नाटकी। सं० १९११ लिखित । आदि
अथ इन्द्रजाल लिख्यते ।
चातुरी भेद विधान में कहो जु तुम से जे सुनियो दे कान रे । अव चातुरी भेद उपदेस बतायो, पति राखो कुछ छाने रे ।। गोप्य सौ गोप्य चातुरी करणी, जाणे नहिं कोय । प्रगट करी बात सब बिगड़ी, कछु न तमासो होय ।।
अन्त
हरि सरना जो इन्द्रीजीत जो होय, इन्द्रीजीत जो होय के रेणा । गोप्य जो सोई उडण जो जन, १२ के जाणी जुग में जे सारा ।। इति युक्ति सुं रहिके जांणा जु खि सोही ।
इति इन्द्रजाल चातुरी नाटकी सम्पूर्ण । लेखन-संमत् १९११ मार्गशीपं कृष्ण ७ रविवासरे । प्रति-पत्र २४ । पंक्ति १९ । अक्षर २० । साइज ६॥४८॥
( अभय जैन ग्रन्थालय ) (१५) इन्द्रजाल ( नाटक चेटक ) आदिअथ तालक लोह हरताल अनुक्रम लिख्यते ।
नागर बैल का पान के मध्य काथो मासो १ हरताल मासा ३ छाल चाबीजे पीक वासण में थूकता जाय निगलै नहीं।
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[ १२७ ! अथ नाटक भेद लिख्यते ।
करता करतार जुग साचे सांई, मूरख अपनी लोक जानत नाई। कहेता हूँ बात तू सुनरे प्यारे, सब घट व्यापिक सौ तौ सबसौ न्यारे ॥ ॥ मन्त्र यन्त्र तन्त्र तं सनले सारे, नाटक को भेद भव कहूँगा रे । टूटे भग्यांन अरु खूटे तारे, दिल की जो संसै सब दूर ढारै ।।२।।
अथ चेटके भेद लिख्यते
दोहा
तुम फू कहि सरवन सुनी, सरचे नाटक भेद । अब चेटक उपदेश कर, मिटे जीव को खेद ।।१।।
मुख सुं बोलो बात यह, जो गहलौ हुय जाय ।
तब कपड़ा फाडत फिरे, कछु न लागे उपाय ।।८।। अथ दीपावतार लिख्यते इन्द्रजाल प्रियोग । लेखन काल-२० वीं शताब्दी । प्रति-गुटकाकार | पत्र ३५ । पंक्ति १० । अक्षर १५। साइज ४॥४३॥
(अभय जैन ग्रन्थालय) (१६) इन्द्रजालभादिअथ इन्द्रजाल लिख्यते।
गुरु विन ज्ञान नहीं ध्यान नहीं हर विनु नर बिन मोक्ष न मुक्ति रे । धरनी करनी सार सकल में, इस विध भाखे उक्ति रे ।।१।। इन्द्रजाल माल इह गुन की, गुरु गम नहीं पावे रे । वेद पुर न कुरान में नाहीं, व्यास न जानी बातें रे ॥२॥ प्रथम भेद वेद को सारो, सोह मन्त्र लेखे रे । आसन पदम सदन महिं बैठे, सूर चन्द्र घर ल्यावे रे ॥३॥ भासन सयम यतन विध, साध वाद विवाद कहू नधि वाद । मन्तर जन्तर तन्तर सारे, नाटिक चेटिक कहायं रे॥ विधि विधान चातुरी वेदक, कोक निरन्तर कहस्यां रे । सांदा चांदा तस्कार विद्या, जोति रूप क सारे रे ॥ कहत छम तुम सुणे महेश्वर, यही घरद तुम पालो रे ।
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[ १२८ ]
अन्त
छटांक खस-खस, सबा तोले खल सुस, साढ़े सात मासे वंस लोचन, पांच मासे गऊ रोचन, पांच मासे सुहागा, चार मासे नर कचुर, चार मासे नौसादर, चार मासे शहद स्वसपी बारीक सवकु पीस मिलाय सहद मिलाय पीस गोली चण प्रमाण की करे । मसाण की दवा पानी में घाल प्यावे। .
लेखनकाल–१९११ के आसपास । प्रति-पत्र ६९ । पंक्ति १९ । अक्षर १९ । साइज ६॥४८॥ विशेष-इसमें मंत्र जंत्र तंत्र वैद्यक का समावेश है।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (१७) इन्द्रजाल-- आदि
कौतिक या संसार के, वरणि जाय नहि एक ।
जितने सुने न देखिये देखे सुने अनेक ॥ प्रति-गुटकाकार।
( यति रिद्धिकरणजी भंडार, चूरू) (१८) योग प्रदीपिका (स्वरोदय) । पद्य ६९० । जयतराम । सं० १७९४ आश्विन शुक्ला १०॥ अन्त
संवत सतरा से असी अधिक चतुर्दश जान ।
आश्विन सुदी दशमी विजै, पूरण ग्रन्थ समान ॥९०॥ लेखनकाल–सं० १९४४ फागुण सुदी १३। फलोदी । प्रति-पत्र २८ ।
(श्रीचन्दजी गधैया संग्रह, सरदार शहर) (१९) रमल प्रश्नआदि
अथ रमल प्रश्नसाधु चंद्रमा उगै तिण दिन थी दिन गिणीजै शुभ दिने रमल का जायचा देखणा १६ ही घर में देखिये लहीयान किसै घर किसी पड़ी है उस घर से विचार होय तैसी
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[१२९ ) षात कहणी पहली सकल कुं देखीये ऐही ऐसी सकल कहां पड़ी है जैसा घर मै होय तैसी हुक्म करणा प्रथम चोर प्रश्न चोर की बात पूछे चोर किस तरफ गया है।
मन्य
सातमै घर में जैसी सकल होय तैसी और जैती जायगा होय तितरे चोर, चोर सकल १ चोर घर मै आय पड़ी तो आदमी लम्बा खूबसूरत मुसलमान है दादी बढ़ी है कान बडै हैं नाक ऊँचा है जवां साफ है मुह सिर ऊपर तिलसमां की सहि. नांणी है लाल सफेद रंग है इति प्रथम ॥१॥
नेस खारज है तो पाछा देती वखत माड़ा सै दैगा। सावत दाखल है तो उधारा देणा नहि दिया तो जावैगा नेक मुनकलवा होय तो घणा मांगे तो थोड़ा दीजै ॥५२॥
लेखनकाल–१९ वीं शताब्दी ।
प्रति-(१) पत्र १९ । पंक्ति १२-१३ । अक्षर २९ से ३४। साइज पत्र ९ १०४४।। पत्र १० से १९ इंच clix४॥
(अभय जैन ग्रंथालय) (२०) स्वरोदय-चिदानन्द । सं० १९०५ आश्विन शुक्ला १० शुक्रवार । भादि
नमो आदि अरिहंत, देव देवन पतिराया, जास चरण अवलम्व गणाधिप गुण निज पाया। धनुष पंच संत मान, सप्त कर परिमित काया, वृषभ आदि अरु अन्त, मृगाधिप चरण सुहाया । मादि अन्त युत मध्य, जिन चौधीश इम ध्याइये, चिदानन्द तस ध्यान थी, अविचल लीला पाइए ॥१॥
कन्त
कयो एह संक्षेप थी, ग्रन्थ स्वरोदय सार । भाणे गुणे जे जीव कुँ, चिदानन्द सुखकार ।।४५२॥ कृष्ण साड़ी दशमी दिन, शुक्रवार सुखकार । निधि इन्दु सर परणता, चिदानन्द चित पार ॥४५३॥
((प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रंथालय )
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[ १३.] (२१) स्वरोदय । पद्य १३० । मयाराम (बाहू पंथी)। जहांनाबाद ।
भादि
अथ ग्रंथ सरोदो लिख्यते।
दोहा सस चित आनन्द रूप है, भवप अवघल जोय । नमसकार ताकू करूँ, कारज सिद्ध जु होत ॥१॥ गुरु दादूं कुं सुमर नित धनधारी सिर नाय । कव अख्यर धर साध सब, हूँ जो सल सिहाय ॥२॥ भचारज सिव जानीय, प्रगट किया जग सोय । नाम सरोदै प्रन्थ को, मैं वरन्यों भय सोय ॥३॥
दादू पन्थी सुन्द्ध उपासी, जहानाबाद जू दिली वासी ।
जिन जो जुगत भली यहुं आनी, मयाराम " " जानी ॥३०॥ लेखनकाल-२० वीं शताब्दी । प्रति-गुटकाकार । पत्र १९ । पंक्ति १० । अक्षर १७ । साइज ४॥४३॥
(अभय जैन ग्रंथालय) (२२)स्वरोदय- । पद्य २७ । बल्लभ । भादि:--
बुद्धि विमल दीजै कविहि, स्यो सुगुन सुभ छन्द । कयौँ सुरोदय ज्ञान कछु, गुरु गणपति पग बंदि ।। ।
X
जैसे दपि ते माखन लीजै, छांडि हल हल अमृत पीजै । मथि के सकल सुरोदय ग्रंथ, रच्यो सुलभ स्यों भाषा पन्य ॥ २६ ॥
दोहासंस्कृत वानी कठिन, समझत पंडित राज ।
सुगम प्रन्थ बल्लम रच्ची, हृदयराम के राज ॥ २७ ॥ इति सुरोदय नक्षत्रमाला। लेखनकाल–१९ वी शताब्दी । प्रति- पत्र १। पंक्ति १६ । ऋक्षर ५० । साइज १०x४
(अभय जैन प्रन्थालय)
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[ १३१ ] (२३) स्वरोदय । बैकुण्ठदास । भादि
दोहाज्योतिष दीपक जगत मे, जो प्रापत किह होय । जाके पढ़े मनुष्य को, गुह्य सुगम सब लोय ।। १ ॥ मूक प्रश्न गर्भ त्रय, मेघ धमाधम जानि । लाभालाम सुख दुःस्त्र जो, बैकुंठ सत करे मानि ॥ २ ॥
भन्त
ससि स्वर ससि बुध सुक्र है, प्रान करे जु कोय ।
भसुम मास सुभ होयगी, स्वर परीच्छा सच होय ॥ ५९ ॥ इति स्वर प्रिच्छा बैकुण्ठदास कृत स्वरोदय । लेखनकाल-सं० १९१७ मि० वि० १ ।
(वृहद् ज्ञानभंडार) (२४ )स्वरोदयः - । दोहा ६४ । भादि
सिघधरण करि घन्दना, ज्ञान सुरोक्ष्य देह । प्राण पाय इला पिगला, असुभ फल नेह ॥ १ ॥
दाहिनी नाड़ जब ही बहे । कय तत्व भागिनी तस्वकहे ।। जामे जो चाले भरू आवे । निहाचे सो नर नासही पावै॥ ६४ ।।
(वृहद् ज्ञान भंडार) (२५) स्वरोदय भाषा (गद्य) भादि
अथ सरोदो लिखते भाषाकृत
दोहापउन बीज पुसतग तहां, पिठ ब्रह्मंड बखानो ।
तत्व ज्ञान सुरदसौ निवर्ति प्रवरती जानो । पिंडे सो ब्रह्म हे प्रथधी तत्व फेरि दोठ सूर पंच पंच तस्वन के पंच पंच भेद ।
मध्य
सो सर जामतो नहीं होय तौ नेत्रम की कोर सौ भारसी मैं जानिये ।
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[ १३२ j तस्य कान नाक नेत्र मूदे। अंगुरीया तो पाछे खास मारे। मैत्रन की कोर सोलि दिखाय । सस्व पहिचाने मंडल परे सो जानिये ।
भन्त
विश्वासी होय ज्ञाति स्वमन होइ बात सत्य कहे दुष्ट की संगति न करे निन्दक की संगति न कर ताकुं यह स्वरोदय ज्ञान दीजे । इति श्री शिव शास्त्र स्वरोदय संपूर्ण ।
लेखन-काल-लिखित जीवण सं० १९५७ मी आसोज वदि ११ वार बुधवासरे सहर करोली मध्ये संपूर्ण ॥ प्रति-पत्र ४ । पंक्ति १६ से २३ । अक्षर ४३ से ५५ । साइज १०४४॥
( अभय जैन-प्रन्थालय) (२६) स्वरोदय भाषाटीका । मादि
शिव कुं नमस्कार करिफै देहस्थ ज्ञान कहतु- और इडा-पिंगला माडी तिनके योग थे भावी शुभाशुभ फल-ऐसो स्वरोदय कहत है।
भन्स
अर्थनिश्चद वैठि के अंजलि मध्ये हे मोर भागे उंचो डारियो सब . जिनको इफल गिरे सो पूर्ण मग बूझिवै । बाथे शुभाशुभ
विचार करणा । इति स्वरोदय विचार लिखितं ॥ ६ ॥ विशेष--६६ संस्कृत श्लोको का अर्थ लेखनकाल–१८ वीं शताब्दी। प्रति-पत्र ११ । पंक्ति १३ । अक्षर २६ । साइज ८४४॥
(अभय जैन-प्रन्थालय) (२७) स्वरोदय भाषाटीका । लालचन्द । सं० १७५३ भा० सुदि । अक्षयरान के लिये रचित मादि
अथान्यत् संप्रवक्ष्यामि शरीरस्थ स्वरोक्ष्य । इंसचार स्वरूपेण येन ज्ञानं त्रिकालज ॥१॥
.
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[ १३३ )
. टीकाअब मैं स्वरोदय विचार कहूँगा आपुनै शरीर मैं जो ग्याप रखा है। स्वरोदय का नाम हंसाचार कहीये जिण हंस चार जाणये ते भूत ,
भविष्यात २, पर्तमान ३, त्रिकाल ज्ञान नाणिये ॥१॥ • अन्त
पीत वर्ण बिन्दु की चमत्कार दीसै तौ सावेर पृथ्वी तस्व घहै है। स्वेत वर्ण बिंदु दीसे तो पानी तत्व वहै है, कृष्ण बिन्दु दीसै तौ पवन तस्व वहै है,रक्त विंदु दोसै तो अमि तस्त्र वहै है । इति स्वरोषय शास्त्री भाषा समाप्त।
दोहानाम स्वरोक्ष्य शास्त्र की, ....... विचित्र । याकी भर्व विचारणा, नीफै करियो मित्र ॥ ५ ॥ संवत् सतरै पनै, भादव को पख सेख । लालचन्द भाषा करी, श्री अखयराज के हेव ।। २ ।। सहज रूप सुन्दर सुगण, कवित्त चासुरी शक्ति। जाकै हिरदै नित वसै, देव सुगुरु की भक्ति ॥ ३ ॥ अखगराजजी अति निपुण, बहु विधि विद्यावत ।
अक्षयराज प्रताप जसु, सदा करो भगवन्त ॥ ४ ॥ लेखनकाल–१९ वी शताब्दी ।। प्रति-पत्र ६ (अंतिम पृष्ठ खाली)। पंक्ति १४ । अक्षर ५० । साइज ८॥x ||
(महिमाभक्ति भंडार) (२९ ) स्वरोदय विचार (गद्य) आदि
अथ स्वरोदयरो विचार लिख्यते ॥ ईश्वरौवाचं ॥ है पारवती ! अब मैं सरोदय को विचार कहूंगा जिस सरोदय से भूत भवक्ष (भविष्य) तथा वर्तमान तीनों काल की खबर पडे फेर आपणे शरीर मे जो कुछ व्यापार होवे है, तिस का नाम हंसाचार कहिये ।।
विशेष प्रस्तुत प्रति २ पत्रों की अंपूर्ण है । १९ वीं शताब्दी की लिखित है। इसी प्रकारअन्य एक अपूर्ण प्रति है, उसमें पाठ भिन्न प्रकार का है ।
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[१३४ ] यथा-श्री महादेव पारवतीरो सिरोधो लिख्यते
"महादेव पारवती नै सुणावै छै अथ वारता है सो कहत हुँ । हंस रूपी देह में है सो तोतुं कहुं छू तूं सुण सीख ज्यु कालरूपी होय ज्युं । हेपारवती ए गुप्त वारता है गुज्य वारता है तंत सार है सो तो ने कहुं छु । प्रति-इस प्रति के ५ पत्र हैं, अन्त के पत्र प्राप्त न होने से अपूर्ण है।
(अभय जैन-प्रन्थालय)
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(ठ) हिन्दी ग्रन्थों की टीकाएं (१) विद्यापति कृत कीर्तिलता की संस्कृत टीका। भारि
भी गोपाल गिरा पंगुरपि शैलं पिलंपते ।
तदारेशवशादेषा क्रियते मंगलैरसम् । । तिहुमणेत्यादि भिभुवन क्षेत्रे किमिति तस्य कीर्निवल्लो प्रसारिता । भक्षर सभारस्तं यदि मंचेन बंधामि सतोहं भणामि निश्रितं ।
कृत्वा यारशं ताश काग्यम् ।
श्रोतञ्जन पदाम्यस्य कीतिसिंह महीपते । करोतु कवितः काम्यं भव्य विद्यापतिः कषिः ॥ ५॥
"शुभ मुहुः अभेपेकः कृतः बान्धव जनेम उत्साहकृतः
तीरभुक्त्या प्रतो रूपः पातिसाहेन य". कृतं कीर्तिसिषो । भवद्भपः। इति चतुर्मपल्लवः इति कीर्तिलता समाता ।
श्री श्रीमद्गोपालभष्टानुजेन भी सूरभट्टन स्तम्भतीर्थे लिखापितमिदम् ।
लेखन-काल-नेत्र (२) नग (७) रसो (६) रभीभी (१ ) मितेचे विक्रमा धु" ..."ये असिते स्वष्टद्यां विखितं भ्रगुवासरे।
प्रति-पत्र २२ । पंक्ति १२ । अक्षर ६० । साइज १४४६ विशेष-मूल ग्रन्थ का श्राद्य पद इस प्रकार है।
तिहुमण खेत्तहि का सु, किति पल्लि पसरे। । । भाखर खम्भारम जठ मंचा घिन देह ॥1॥
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय)
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[ १३६ ]
(२) बिहारी सतसई की संस्कृत टीका । वीरचन्द्र शिष्य परमानंद । २२०
१८६० माघ | बीकानेर |
भादि
--
मरवा
श्रीशं जिनाधीशं, वक्ष्ये
श्री पार्श्व व्याक्षा (स्यां ) नागरी
पार्श्वसेवितं ।
विहारीकृतग्रन्थस्य,
मेरी भव बाधा हरौ, राधा या तन की झांई परई, स्याम
व्याख्या
सा राधा नाम्नी नागरी मम भव बाधा हरतु यस्य राधायाः तनोद्युतिः पतति कृष्णा काये तदा श्यामवर्णः हरित दुनिर्भवति कृष्ण शरीर कान्ति । कृष्णा राधाया गौर वर्ण तथा मिश्रिता हरित द्युतिर्भवति गौरवर्णं । मिश्रिता श्यामवर्णों हरिद्भवतीति प्रसिद्ध द्वितीयोर्थः -- स राधा नागरिः नामकः कृष्णो मम भव बाधा हरतु यस्य कृष्णस्य तनु दद्युतियंत्र नरे पतति तदा श्यामं पापं हरि दूरीस्थात् तदुति तत् द्युतिः स्यात् ॥ तृतीयार्थस्तु - वैयं प्रति रोगिण उक्ति:- हे वैद्य मम भववार्धा रोगं वा हरतु तदा वैद्यनोकं राधां नागरि सोई गधा शुंठि नागरि मोथ सोई सिन्धु सो घा यात नै । कृष्ण झांई पतति सा हरि सतै भैषजैः दूरी स्यात् तदुति होप सा सद्युति स्यात् तुर्यार्थस्तु कृष्णशरीर घुतिनाश्रित्य हरित
पूर्वोक्ता श्रुतिः धुतिरूपमेव ॥ १ ॥
भन्त
सुबोधिकां ॥ १ ॥ सोइ । होइ ॥ २ ॥
हरित दुति
o
जयपि है सोभा घनी मुक्ता हल में लेख । गुहौ ठौर की ठौर तें उरमें होत विलेख | ७११ ॥ इति विहारीलाल कृत सप्त सतिका सम्पूर्णम् ॥ देखो प्यारी कठकै, वर अत्थो हे द्वार । चन्द्रवदनी सुणिकै ऊठी हरसन हर्ष अपार ॥ इत्यादक्षरः ॥ ब्यौमस्कन्धमुखेभकास्य तिमिते संवत्सरे ace रे माघे मास शुक्लदले धनंजयतिथौ दैरयेजवारे वरे ।' हव्यूह विभूषते जित कुवेराधिष्ठित स्थानके 1 श्रीमत्सूरतसिंह भूप विहितैश्वर्ये पुरे विक्रमे ॥ १ ॥ श्रीमनागपुरीय लुंप गणे राकाब्जवनिर्मले । श्रीलक्ष्मीन्द्र गणाधिपै सुविदिते गच्छे सतां विभ्रति । श्रीमच्छीमुनि राजसिंह गुरवः सम्नामनामानुगाः । तष्टिस्या गुणरश्न रत्न सरणाः विद्वद्वाटंतपाः । १ । श्रीमतीर्थ कर प्रणीत समय श्रद्धालवः सूरताः । कार्याकार्य, विचार सारनिपुणाः श्री धीरचंद्रायाः ।
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[ १३७ ] तस्पाइघुमरेणु राप्तमनुज प्रामोदकाराय वै । नाना स्वादुभृतां व्यवत्त परमानंदः परा मोदतः । ३ । माथुरीय हिकुले विहारी ब्राह्मणो भवेत्
तद्विनिर्मितम न्यस्य पथ्यां तया रसान्वितं । ४ । इति बिहारीसप्तसतिकावृत्तिः समाप्ताः ॥
लेखन काल-सं० १८८७ मिती फागुण वदि ७ तिथौ शुक्रवारे श्रीमद्विक्रमपुरे श्रीकीर्तिरत्नसूरिशां (सं) तानीय वा श्री मयाप्रमोदजिद् गणिः तच्छिष्य पं० लब्धि बिलाश लिखितं ॥ श्री ॥ प्रति-पत्र ५३ । पंक्ति १७-१८ । अक्षर ५० । साइज ९॥४४॥
(वर्द्धमान भंडार) (३) (केशवदास कृत ) रसिक प्रिया की टीका । समर्थ । सं० १७५५ श्रावण सुदि ५ सोमवार । जालिपुर । मादि:
अथ रसिकप्रियायाः वर्तिलिख्यतेगीवाणनाथ गिनतोद्भुत मौलिमाला, माणिक्य कांति सुविशिष्ट नखांशुजाला । कल्याणकंदमतुलं नवनीरदाभं स्तौमि प्रभु सुफलपद्धिपुरस्थ पार्वम् ।। कुँदेन्दुहार निकरोज्वलचारुवर्णा वीणा सु पुस्तकधरा कमला सवर्णा । यास्तेतनीर जबरासन संशिता च ज्ञानप्रदा भवतु मोखलु सारदा सा ।। राधा सनुच्छवि भरा पलितो मुरारिः संराजते हरितवर्ण तनुहतारिः । ध्यायन्मुदा ललितकांति धरां च राधां सो मे प्रभुहरतु भूरि भवस्य बाधा । ३ । श्रीमद्गुरुः सुमतिरत्न गणि प्रधानः कारुण्यपुण्यनिलयो महिमा निधानाः । तस्पादयुग्म सरसीरुहलीन,गः शिष्यः समर्थ विबुधो परवाक् तरङ्गः । ४ । गुरोः प्रसादादधिगम्य भावं कुर्वे सुवृत्ति रसिकप्रिपायाः । विशिष्ट भावामृतरितायाः प्रमो दनी नाम मनः प्रमोदात् । ५। सो सुभाषा सुविशेष रम्या ब्रजस्य भाषा ललिता सुवाणी । मुखेरमुखे मिन्नतरार्थं सादह प्रवक्ष्ये खलु संप्रदायात् । ६ ।
प्रायशो ब्रजभापायाः केनापि न कृता पुरा ।।
सुसंस्कृत मयी टीका सुगमार्थ प्रयोधिनी ।७। इह खलु ग्रंथारंभे कविः श्री केशवदासः शिष्ट समय परिपालनाय स्वाभिमत फलसिद्ध्यर्थं प्राप्तिरिप्सित ग्रन्थ प्रतिबंधक विघ्नविघातकं विशिष्ट शिष्टाचारानुमिति अतिवो. धात्मकं समुचितेष्टदेवता श्री गणेशस्तुति कथन द्वारा मंगलमाचरति । एकरदनेति-तथा च ग्रन्थादौ विषयप्रयोजन सम्बन्धाधिकार चतुष्टयमवश्यं वाच्यं तत्र श्रृंगारादिरसवरा
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[१३८ ] विपय प्रयोजनं च रसिक जनमनःप्रमोदापत्तिः वाच्यवाचकभावःसम्वन्धःजिज्ञासुरधिकारी चेति अपि च अपारसंसारपारावार बहुल भवभ्रमणावर्त पतित प्राप्तातर्कितेपस्थितमनुष्यावतारस्य लब्ध घुणाक्षरप्रकारस्य प्राणिनः फलं द्वयं भोगो योगश्च तत्राद्यः भुज्यते शब्दादिभिरिति भोगः सुखं यदमरः भोगः सुखेनयादि भृतावतेश्च फणिकाययोरिति । अन्त
सुर भापा ते अधिक है, व्रज भाषा सौं हेत । ब्रज भूषण जाकौं सदा, मुख भूषण करि लेत ॥१७॥
व्याख्यासुर भाषा संस्कृत भाषायाः सकाशात् ब्रजभाषा अधिकास्ति व्रजभूषणः कृष्णस्त स्वमुखं भूषयति यस्याः पठनात् मुख शोभा भवतीत्यर्थः ॥१७॥
इति श्री सकल वाचक चूड़ामणि वाचक श्रीमति रत्नगणि शिष्य पण्डित समर्थाह्वेन विरचितायां रसिकप्रिया टीकायां अनरस वर्णनो नाम पोडशः प्रभावः ॥१६॥ समाप्तोयं रसिकप्रिया भाषाग्रन्थ-ग्रन्थाग्रन्थ १६००
श्री वीर तीर्थेश जिनाग्रणीतः तुर्यार कांते गणवो बभूव । स्वामी सुधा कृत साधु का चतुष्टय ज्ञानधरो धराया ॥१॥ तस्यैव सरसाधु परम्परायामशीनि चत्व रिगणाः बभूवुः । तेपु प्रधानः खलु चन्द्र गच्छः राका शशांकादधिकोहि स्वच्छ ॥२॥ राज्ये शुभं श्री जिनचन्द्रसूरेः सौभाग्य भाग्योदित रत्न मौलेः। सदामुदाशं ददतो मुनीनां महीक्षितानामपि पूजितस्य ॥४॥ श्वीमत्सागरचन्द्र सूरिरवत् तस्मिन् गणे शुद्ध धीः । स्फूतिर्यस्य जिनागमे च महती घारानिधि ज्योतिषः । साध्वाचार रतो विशुद्ध हृदयो लब्ध प्रतिष्टो महान् । यस्मै क्षेत्र पति बभूव सततं वीर सहायी सदा ॥५॥ तन्नाम शाखा प्रभृता गरिष्टा न्यग्रोधशाखे घरसेर्वरिष्टा । तस्याद राजीव प्रकाशनोद्यत् प्रद्योतनो निर्जित मोहमल्लः ॥६॥ भुवन रत्न मुनीश्वर सुन्दरः प्रवर साधु गुणोरकर बंधुरः । सम जनिष्ट ततो मुनि पुंगवो विमल कीर्ति समुज्जवल वैभः ॥७॥ . सूरि स्ततो भूप्प सुधमरखो विशुद्ध बुद्धि कृत धर्म यतः। रत्नाकरो निर्मल सद्गुणानां मह्यां च मान्योखिल सजानानां ॥४॥ श्रीमानुपाध्याय पदाभिरामो पुण्यादिमो बल्लम पूर्ण कामः । धर्म पियो हर्घ सुधाभितृप्तिः सरवानुकंपा शुभ चित्र वृत्तिः ॥९॥ तत्पाद पर ह संस्पृहालुः व्यादि धर्मो विबुधो दयालुः। तान्छित्य मुख्यो निल शास्त्र पद्मा पर्यो मुनीनां स्वधर्म समा ॥१०॥ .
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[ १३९ ] तदीय शिष्यो मुनिरत्न धीरो गुणैः समुद्रादभि यो गभीरः । ततो बभौ वाचक वयं धुर्यो ज्ञानप्रमोदो मंत्र वीर्य ॥११॥ षट तौद्भुत बोध युक्ति कुशलो वाचा गुरोः सन्निगः । घर्हिष्णु प्रतिमाभिमान विलसद्वादीभ पंचाननः । निष्णातो निखिलागमेपु विमलै मंने गंज स्तंभकृत् । विख्याती भुवने गरिष्ट महिमा ज्ञानप्रमोददो गुरुः ॥१२॥ तेषां हि शिष्यो गुणनंदनारथः सच्छ्रील मुक्तो नव नीरजाक्षः । वैराग्यतस्त्पक्त गृहस्थमार श्रीवाचको ऽभूत् विदितार्थ सारः ॥१३॥ तदीय परकैरव पार्वणेदुः सद्वाक्य धारामृत तुल्य विदुः । गुप्त न्द्रियो यो महिमा गरिष्टः श्रेष्टः सुधी साधु गणे वरिष्टः ॥१४॥ समय मूर्ति गुरुजित मेनाथः सकल नागर रंजित सत्कथः । परम धर्मरतः करुणालयः सुपद वाचकतां जगृहे भयः ॥१५॥ तच्छिस्यौ दधतः श्रेष्टो बाचकस्य पदोत्तमं । मुख्यो हि नेमहर्षश मतिरस्नो महामुनिः ॥१६॥ गुरुर्मदीयो मतिरस्न नामा .शीतांशु बिबादपि योटि सौम्पः । स्वार्थस्य बुद्धिः परमार्थ सिहौ गुह्येन्द्रियो जागृत हस्त सिदि ॥१७॥ तदीय शिक्षगुरुभक्ति दक्ष विद्वत् समर्थे विदितागमा । ग्यधायि वृत्ती रसिक प्रियायाः दक्षो चिता सभ्य मनोरमायाः ॥१८॥ एषा विशेषा द्विकरार्थ युक्ता ब्रजस्य भाषा सरसा सुरम्या । नव्यार्थ भावोद्घटनासु शताः तस्मात् विशोध्याः कविभिः पुराणैः । १९॥ संवद्वाण शराब्धि शीतगुमिते मासे शुभे श्रावणे । पंचम्यां शशिवासरे शुभ दिने पक्षे लसत्प्रोज्वले । श्री मजालिपुरे सदा सुख करे सिंधोस्तरे सुन्दरे । तत्रालेखि समर्थ साधुभिरियं वृत्ति मनोमोदिनी ॥२०॥ यावन्मेरु धरा पीठे यावर्त्तिष्टति मेदिनी । तावन्नंदतु टीकेयं . साधु शब्दार्थ सुंदरा ॥२१॥ भदृष्टदोषान्मतिविभ्रमाद्वायत्किंचिदूनं लिखितं मयात्र । तत्सर्व माः परिशोधनीयं संतोयतः सर्व हितैषिणो वै ॥२१॥ मंगलं लेखकस्यापि पाठकस्यापि मंगलं महलं सर्व लोकानां भूमि भूपति महलं ॥२३॥ तैलादशेजलाद्रक्षेत् रक्षेत्र शिथिल बंधनात् । परहस्त गां रक्षेदेवं पति पुस्तिका ।।२।। भग्न दृष्टि कटि प्रीवा चाधो दृष्टि रधो मुखं ।
कण्टेन लिखितं शास्त्रं यत्नेन परि पालयेत ॥२५॥ लेखन काल-संवत् १७९९ वर्षे आश्विन मासे शुक्ल पक्षे त्रयोदशी तिथौ भृगुवारे वाचनाचार्य श्री श्री १०४ श्री श्री देवधीरगणितत् शिष्य पं० प्रवर श्री हर्ष हेमजी शिष्य .
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[१४०] पं० चतुरहर्प लिखितं श्री बीकानेर मध्ये चतुम्मासी स्थितेन । श्रीरस्तु। म० श्री जोरावरसिहजी। प्रति-पत्र ८१ । पंक्ति १६ । अक्षर ५२ । साइल ४०४ १॥
(दानसागरभंडार) (४) (केशवदास कृत ) शिखनख की भाषा टीका । संवत् १७६२ से पूर्व । भादिअथ शिख नख वर्णन लिख्यते । काव्य ।
गीर्वाण वाणी पु विशेष बुद्धिः तथापि भाषा रस लोलुपोहं । यथा सुराणाममृतेषु सस्सु स्वर्गाङ्गनामधरासघे रुचिः ।।
अर्थ
केसवदास कहै छै जे माहरी मति संस्कृत वाणी,नै विषै बुद्धि । विशेष छै तो पिण हुँ भाषा रस ने विषै लोलपी छु ते केहमी परै जिम देवतां ने देव लोक माहे अमृत थकां पिण देवांगना ना अधर ना रस नी वांछा करै अधर रसनी घणी इच्छा तिमपिण संस्कृत भाषा जाणु हु तो पिण व्रज भाषा नी वांछा घणी हैं मुझनें।
अथ छूटा केश वर्णन सवैया ॥ अन्त
कमला जे लक्ष्मी तेहनुं स्थानक जाणीने के आणीय कामना जे पांच वाण तेहना जे जोतिवंत फल कहती भालोइ छै ते शोभै छै कै हूं जाणुं माहरे जाण पणे सुंदर सुंदरीना नखज छै। २८ ।
इति श्री केशवदास विरचित शिख नख संपूर्णः । श्रीरस्तु ।
लेखन काल-संवत १७६२ वर्षे मिगसर सुदि ८ भौमे लिखितं श्री भुज मध्ये पं० भागचंद मुनिना । श्री। प्रति गुटकाकार । पत्र ८ । पंक्ति ३३ । अक्षर २२ । साइज ४।४६
(अभय जैन ग्रन्थालय)
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परिशिष्ट १.
[ग्रन्थकार-परिचय ] (१) अभयराम सनाढय (१६) — जैसा कि आपने 'अनूप शृङ्गार' ग्रंथ में उल्लेख किया है आप भारद्वाज कुल, सनाढ्य जाति, करैया गोत्रीय केशवदास के पुत्र एवं रणथंभोर के समीपवर्ती वैहरन गाँव के निवासी थे। बीकानेर नरेश अनूपसिहजी आप पर बड़े प्रसन्न थे और 'कविराज' नामसे संबोधित किया करते थे । महाराजा अनूपसिहजी की आज्ञानुसार ही आपने सं० १७५४ के अगहन शुक्ला रविवार को 'अनूप शृङ्गार' ग्रन्थ की रचना की।
(२) आनन्दराम कायस्थ भटनागर (१४)-आप सुप्रसिद्ध कवि काशीवासी 'तुलसीदासजी के शिष्य थे। आपके रचित "वचन-विनोद" की प्रति सं० १६७९ की लिखित होने से उसका निर्माण इससे पहले का ही निश्चित होता है। प्रतिलेखक ने
आपका विशेषण "हिसारी" लिखा है अतः इनका मूल निवासस्थान हिसार ज्ञात होता है। मिश्रबन्धु विनोद पृ. ३४७ में कोकसार या कोकमंजरी के कर्ता को "आनन्द कायस्थ, कोट हिसार के' लिखा है। इस ग्रन्थ की प्रति अनूप संस्कृत लाइब्रेरी में सं० १६८२ लिखित उपलब्ध है । समय निवासस्थान और नाम पर विचार करते हुए कोकसार-रचयिता आनन्द वचन-विनोद के आनन्दराम कायस्थ ही प्रतीत होते हैं।
(३) उदयचंद ( १५, १०९)-ये खरतरगच्छीय जैन यति या मथेन थे। महाराजा अनूपसिहजी से आपका अच्छा सम्बन्ध था। उन्हीं के लिये सं० १७२८ के आश्विन शुक्ला १० कुजवार को इन्होने बीकानेर मे 'अनूपरसाल' ग्रन्थ बनाया । आपका पांडित्य दर्पण' नामक संस्कृत ग्रन्थ (सं० १७३४ के सावन सुदी में) पूर्वोक्त महाराजा की आज्ञा से रचित उपलब्ध है जिसकी आवश्यक जानकारी Adyar Library Bulletin मे पांडित्य दर्पण ऑफ श्वेताम्बर उदयचन्द्र नामक लेख मे प्रकाशित है। महाराजा सुजानसिंहजी के समय (सं० १७६५ चैत्र) में आपने 'बीकानेर गजल' बनायी। . . (४) उदयराज (३५)-आप के रचित 'वैद्यविरहिणी प्रबन्ध' मे कविपरिचय एवं ग्रंन्थरचना-काल का कुछ भी निर्देश नहीं है, पर विशेष संभव ये उदय.
* पृष्ठाक
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राज वे ही हैं जिनके रचित हिन्दी एवं राजस्थानी के लगभग ५०० दोहं उपलब्ध हैं। यदि यह अनुमान ठीक है तो आप खरतरगच्छीय (चंदन मलयागिरी चोपई के रचयिता ) भद्रसार के शिष्य थे। आप अच्छे कवि थे-आपकी निम्नोक्त अन्य रचनाएं हमारे संग्रह में हैं।
(१) गुणबावनी सं० १६७६ वै० सु० १५ बरई। (२) भजन छत्तीसी सं० १६६७ फा० ब० १३ शुक्रवार, मांडावइ ।
भजन छत्तीसी में कवि ने अपना परिचय देते हुए लिखा है कि यह ग्रन्थ ३६ वर्ष की उम्र में बनाया अतः इनका जन्म सं० १६३१ निश्चित होता है। आपने अपने पिता का नाम भद्रसार, माता का नाम हरषा, भ्राता सूरचंद्र, मित्र रत्नाकर, निवासस्थान जोधपुर, स्वामी उदयसिह, पत्नी पुरवणि, पुत्र सूदन का उल्लेख किया है। इन बातो को स्पष्ट करने वाले दो कवित्त नीचे दिये जा रहे है:
साम समपे उदयसिंह वास समपे योधपुर । समपि पिता भद्रसार जन्म समपे हरषा उर । समपि भ्रात सूरचंद्र मित्र समपे रयणायर । समपि कलित्र पूवणि समपि पुत्र सुदन दिवायर। रूप अने अवतार ओ मो समपे आपज रहण । उदैराज इह लधौ इतौ, भव भव समपे मह महण ॥ ३२ ॥
सौलहेसे सतसढ़, कीध जन भजन छत्तीसी । मोनुं वरस छत्रीस, हुव मनि आवइ ईसी । यदि फागुण शिवरात्रि, श्रवण शुक्रवार समूरत । मांडावाइ मझारि, प्रभु जगमाल पृथी पति । भद्रसार चरण प्रणाम करि, मैं अनुक्रमि मंड्या कवित ।
त्रैलोक छत्तीसी बांचता दुःख जा नासै दुरति ॥ ३७ ॥ उदयराज या उदयकृत चौवीसजिन सवैयादि का संग्रह भी उपलब्ध है वे सब हिन्दी मे हैं। प्रमाणाभाव से उनके रचयिता प्रस्तुत उदयराज ही हैं या उससे भिन्न अन्य कोई कवि है, नहीं कहा जा सकता:
मिश्र बन्धु विनोद भा० १ पृ० ३९६ में उदयराज जैन जति बीकानेर रचित फुटकर दोहे, गुणमासा तथा रंगेजदीन महताव, रचना १६६० के लगभग, आश्रयदाता महाराजा रामसिंहजी को लिखा है इनमें से फुटकर दोहे तो ठीक इन्ही के हैं बाकी
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[ १४३ ] की दोनों रचनाओं के नाम अशुद्ध प्रतीत होते हैं । संभव है गुणमासा गुणवावनी हो। रायसिंहजी के आश्रित होने की बात भी सही नहीं है। पूर्वोक्त पद्यों से ये यति होकर मथेन (गृहस्थ ) सिद्ध होते हैं।
(५) उस्तत पातशाह (६१)-इन्होंने सं० १७५८ के मिगसर सुदी १३ बुधवार को सिन्ध प्रान्तवर्ती भेहरा नामक स्थान में रागमाला ( राग चौरासी ) भरत के ग्रन्थानुसार और शाह के राज्य-काल में बनाई।
(६) कर्णभूपति ( १९)-इनके रचित कृष्णचरित्र सटीक के अतिरिक्त कुछ ज्ञात नहीं । संभव है ये बीकानेर नरेश कर्णसिंहजी हों। प्रति अपूर्ण प्राप्त है अत: अन्त का अंश मिलने पर संभव है इसके रचयिता के सम्बन्ध में विशेष जानकारी प्राप्त हो।
(७) कल्याण (१०२, ११४ )-ये खरतरगच्छीय यति थे। इन्होने सं० १८३८ के माघ बदी २ को गिरनार गजल एवं सं० १८६४ के भाद्रवा शुक्ला १४ को दौलत (रामजी) यति के लिये सिद्धाचल गजल बनाई।।
(८) कल्ह (९६)–इन्होने जहाँगीर के राज्यकाल मे लाहौर मे दिल्लीराज्य-वंशावलि बनाई। इसका रचनाकाल "तौरे गगण अखरत चंद" कातिक बदी १ रविवार बतलाया है । संवत् स्पष्ट नहीं हो सका, संभव है पाठ अशुद्ध हो ।
(९) किशनदास (९७ )-इन्होंने औरङ्गजेब के राज्यकाल में उपरोक्त कवि कल्हकृत दिल्ली राज्य वंशावलि को आदि अन्त का कुछ भाग अपनी ओर से जोड़कर अपने नाम से प्रसिद्ध करदिया है मध्य का भाग कल्ह की वंशावलि से ज्यों का त्यो ले लिया गया है। जो वास्तव में साहित्यिक चोरी है।
(१०) कुंवर कुशल (३४)-ये तपागच्छीय कनककुशल के शिष्य थे। कच्छ के राजा लखपत के आदेश से उन्ही के नाम का लखपतजससिन्धु नामक प्रन्थ बनाया। कच्छ के इतिहास में लखपत का समय सं० १७९८ से १८१७ लिखा है अतः कवि एवं ग्रन्थ का समय इसी के मध्यवर्ती है । कच्छ इतिहास के अनुसार कनककुशलजी ने राजा लखपत को ब्रजभाषा के ग्रन्थों का अभ्यास करवाया था । महाराजा ने इनके तत्वावधान में वहाँ एक विद्यालय स्थापित किया था जिसमे पढ़ने वाले विदेशी विद्यार्थियों को राज्य की ओर से पेटिया ( भोजन का समान ) दिये जाने की व्यवस्था की थी। सं० १९३२ में कनक कुशलजी की शिष्य परम्परा के भट्टारक जीवनफुशलजी की अध्यक्षता मे यह विद्यालय चलरहा था, पता नहीं वह अव चालू
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[ १४४ ] है या नहीं। कनककुशलजी के शिष्य कुंवर कुशलजी के रचित लखपतजससिन्धु ग्रन्थ का उल्लेख भी कच्छ के इतिहास में पाया जाता है। .
मिश्रबन्धु विनोद पृ० ६६७ में इनका एवं इनके रचित लखपतजससिन्धु का उल्लेख है पर इन्हें जोधपुर निवासी बताना सही नहीं है। विनोद में कुंवर कुशल को कनक कुशल का भाई. बतलाया गया है पर ये गुरु-शिष्य थे, यह हमें प्राप्त प्रति की प्रशस्ति से स्पष्ट है।
(११) कृष्णदत्त विप्र (११९)-इन्होंने 'ज्योतिषसार भाषा' या कविविनोद ग्रन्थ बनाया । विशेष वृत्त अज्ञात है।
(१२) कृष्णदास (५६)-इन्होंने बीकानेर निवासी जैन जोहरी बोथरा कृष्णचन्द्र जो कि दिल्ली में रहने लगे थे, के लिये रत्न परीक्षा ग्रन्थ सं० १९०४ के कार्तिक कृष्णा २ को बनाया।
(१३) कृष्णानन्द (४३)-गन्धककल्प आँवलासार ग्रन्थ के अतिरिक विशेष वृत्त ज्ञात नहीं है । मिश्रबन्धु विनोद के पृ० १०२८ मे कृष्णानन्द व्यास का उल्लेख है वे इनसे भिन्न ही सम्भव हैं।
(१४) केशरी कवि (३३)-इन्होंने सुजान के लिये रसिकविलास प्रन्थ बनाया।
(१५) खेतल (१००,१०३)-आप खरतरगच्छीय जिनराज सूरिजी के शिष्य दयावल्लभ के शिष्य थे। दीक्षानंदी सूची के अनुसार आपकी दीक्षा सं० १७४१ के फागुन वदी ७ रविवार को जिनचन्द्र सूरिजी के पास हुई थी। आपने अपना नाम पद्यों में खेतसी, खेता और कहीं खेतल दिया है । नन्दी सूचि के अनुसार इनका मूल नाप खेतसी और दीक्षित अवस्था का नाम दयासुन्दर था। आपने चित्तोड़गजल सं० १७४८ सावन वदी २ और उदयपुर गजल सं० १७५७ मिगसर वदी में बनायी थी। इनके अतिरिक्त आपकी रचित बावनी हमारे संग्रह में है जिसकी रचना सं० ७४३ मिगसर सुदी १५ शुक्रवार दहरवास गाँव में हुई थी। उसका अन्त-पद इस प्रकार है:
संवत् सत्तर त्याल, मास सुदी पक्ष मगस्सिर । तिथि पूनम शुक्रवार, थयी वावनी सुथिर । वारखरी रो बन्ध, कवित्त चौसठ कथन गति । दहरवास चौमास समय, तिणि भया सुखी अति ।
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[ १४५ ] श्री जैनराजसरिसघर, दयावल्लभ गणि तास सिखि।
सुप्रसाद तास खेतल, सुकवि लहि जोड़ि पुस्तक लिखि ॥ ६४ ॥ आपकी उदयपुरगजल भारतीय विद्या में एवं चित्तौड़गजल फार्वस सभा त्रैमासिक पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है ।
मिश्रबन्धुविनोद के पृ० ९६६ में खेतल कवि का नामोल्लेख है पर वहाँ इनके रचित ग्रन्थ का नाम व समय का र्निदेश कुछ भी नहीं है । अतः वे यही थे, या इनसे भिन्न, नहीं कहा जा सकता ।
(१६) खुसरो (४)-आप हिन्दी साहित्य संसार में सुप्रसिद्ध हैं। मिश्रबन्धु विनोद पृ० २६६ में इनका व इनके नाममाला ग्रन्थ का उल्लेख पाया जाता है। खोज रिपोर्टों में अभी तक इनकी ख्वालकबारी नाम माला की नागरी लिपि में लिखित प्राचीन प्रति का कहीं भी उल्लेख देखने में नहीं आया । इसलिये प्रस्तुत विवरणी में इसका आदि अन्त भाग दिया है।
(१७) गनपति (८८)-ये गुर्जर गौड़ सुरतान देव के पुत्र थे। इन्होने सांगावत जसवन्त की रानी अमर कंवरी और आम्बेरनाथ की पत्नी कुन्दन बाई के लिये सं० १८२६ बसन्त पंचमी को शनि कथा की रचना की । ये वल्लभ सम्प्रदाय के गिरधारीजी के मन्दिर के पुजारी थे।
__ श्रीयुत मोतीलालजी मेनारिया के सम्पादित खोज विवरण भाग १ में इनके सुदामाचरित्र का विवरण दिया गया है । वहाँ कवि का नाम गणेशदास लिखा है । 'गणेश और गनपति एकार्थवाचक नाम है अतः ये दोनों अभिन्न ही प्रतीत होते हैं।
(१८) गुलाबविजय (१०१, १०३)-आप तपागच्छीय यति थे । इन्होने 'कापरड़ा गजल' कम धज खुसालसिह के शासन काल में (सं० १८७२ चै० ब० ३ को बनाई ) और जोधपुर गजल की सं० १९०१ पौष बदी १० को रचना की।
जैन गुर्जर कवियो भा० ३ पृ० १७५ में रिद्धिविजय शिष्य गुलाबविजय के समेदशिखर रास सं० १८४६ में रचे जाने का उल्लेख है पर वे इनसे भिन्न ही संभव हैं।
(१९) गुलाबसिंह (३६)-ये प्रतापगढ़ राज्य के संचेइ गाँव के अधिकारी थे। ओमाजी के प्रतापगढ़ के इतिहास में वहाँ के राजा उदयसिह ने महडू गुलाबसिंह को पैर में स्वर्णाभूषण का सन्मान देकर प्रतिष्ठा बढ़ाई, लिखा है। आपके रचित साहित्य महोदधि की रचना इन्हीं उदयसिंहजी की आज्ञा से हुई थी मुझे उसका नृपवंश
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। १४६ ] निरूपण और कविवंश वर्णन नामक ऐतिहासिक अंश ही उपलब्ध हुआ है-सम्पूर्ण ग्रन्थ काफी बड़ा होना चाहिये और वह प्रतापगढ़ राज्य लाइब्रेरी या कवि के वंशजों के पास होना संभव है। संचेइ गाँव आज भी इनके वंशजों के अधिकार में है।
मिश्र बन्धु विनोद पृ० १०५५ में बूंदी के गुलाबसिंह कवि के अनेक प्रन्थों का उल्लेख है जो कि मुंशी देवीप्रसादजी के 'कविरत्नमाला' से लिया गया जान पड़ता है। इनका समय भी हमारे कवि गुलाबसिंह के समकालीन है पर ये दोनों भिन्न-भिन्न कवि प्रतीत होते हैं।
(२०) गोपाल लाहोरी ( २९)-इन्होंने मुसाहिबखान के तनुज सिरदारखाँ के पुत्र मिरजाखाँन की आज्ञा से 'रसविलास' ग्रंथ सं० १६४४ के वैसाख सुदि ३ को बनाया, इस ग्रन्थ का केवल अन्तिम पत्र ही हमारे संग्रह में है। अतः सम्पूर्ण प्रति कहीं उपलब्ध हो तो हमें सूचित करने का अनुरोध है ।
(२१ ) घनश्याम (२३)-प्रति लेखक के अनुसार ये पुरोहित थे। राधाजी के नखशिख वर्णन के अतिरिक्त इनकी अन्य रचना अज्ञात है। ये कवि वल्लभ कुल के वैष्णव थे। सं० १८०५ के कार्तिक शुक्ला बुद्धवार को नखशिख वर्णन की रचना हुई थी।
(२२) चतुरदास (२०)-आप अमृतराय भट्ट के शिष्य व जाति के क्षत्रिय थे। चित्रविलास की रचना अपने मित्रों के कथन से सं० १७३६ कार्तिक सुदि ९ लाहौर में आपने गुरु के नाम से की थी।
(२३) चिदानंद (१२९)-ये आत्मानुभवी जैन योगी थे। इनका मूल नाम कपूरचंद और साधकावस्था का नाम चिदानंद है । बनारस वाले खरतरगच्छीय यति चुन्नीजी के ये शिष्य थे । आपके प्राप्त ग्रन्थो के नाम इस प्रकार हैं।
(१) स्वरोदय सं० १९०७ पालीताना (२) पुद्गल गीता (३) दया छत्तीसी सं. १९०५ का.सु. १ भावनगर (४) प्रश्नोत्तरमाला (५) सवैया वावनी
(६) पद बहोतरी (७) फुटकर दोहे आदि
श्रापका स्वरोदय ग्रन्थ अपने विषय का अच्छा ग्रन्थ है। आपके पद बड़े ही सुन्दर एवं भावपूर्ण हैं । गम्भीर भावों को दृष्टांत देकर सरलता से समझाने में आप
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। १४७ बड़े सिद्धहस्त थे। इनके विषय में मेरा एक स्वतन्त्र लेख शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है।
(२४) चेतनविजय (३, १३, ७३)-ये तपागच्छीय रिद्धिविजयजी के शिष्य थे। लघुपिगल की अन्तप्रशस्ति के अनुसार इनका जन्म बंगाल में हुआ था। दीक्षा लेकर तीर्थयात्रा करते हुए पुनः बंगाल मे आने पर इन्होंने कई ग्रन्थो की रचना की जिनमें से 'आत्मबोध नाममाला' सं० १८४७ माघ सुदी १० और लघुपिंगल सं० १८४७ पौष बदी २ गुरुवार बंगदेश और जम्बूरास सं० १८५२ सावन सुदी ३ रविवार अजीमगंज में रचित ग्रन्थों के विवरण प्रस्तुत ग्रन्थ में दिये गये हैं। इनके अतिरिक्त श्रीपाल रास सं० १८५३ फागन सुदी २ अजीमगंज और सीता चौपाई सं० १८५१ वैसाख सु० १३ अजीमगंज, उल्लेखनीय हैं । स्वर्गीय बाबू पूरनचन्दजी नाहर कलकत्ता के गुलाबकुमारी लाइब्रेरी मे इनके रचित अनेक फुटकर रचनाओं का एक बड़ा गुटका है।
मिश्रबन्धु विनोद पृ० ८३६ में भी इनका उल्लेख आया है।
(२५ ) चेलो (९९) ये रतनु गोत्रीय पनजी के पुत्र एवं जिलिया गाँव के निवासी थे सं० १९०९ के वैसाख बदी मे उन्होंने आयू शैल की गजल बनाई।
(२६ ) चैनसुख (५४)-आप खरतरगच्छीय जिनदत्त सूरि शाखा के लाभ निधानजी के शिष्य थे। इनकी परम्परा मे यति रिद्धिकरणजी आज भी फतहपुर मे विद्यमान है। इन्ही के संग्रह मे आपकी शतश्लोकी भाषाटीका की प्रति उपलब्ध हुई है जिसकी रचना सं० १८२० भाद्रवा बदी १२ शनिवार को महेश की आज्ञा व रतनचन्द के लिये हुई है। अाफ्का अन्य ग्रन्थ 'वैद्य जीवन टवा' भी उपलब्ध है । सं० १८६८ मे फतहपुर मे इनकी छतरी शिष्य चिमनीरामजी ने बनाई थी।
आपकी परम्परा के सम्बन्ध में विशेष जानने के लिये हमारे लिखित युग प्रधान श्री जिनदत्त सूरि ग्रन्थ देखना चाहिये।
(२७ ) जगजीवन (७०)-इनके हनुमान नाटक की प्रति अपूर्ण मिलने से आपका समय व अन्य जानकारी अज्ञात है ।
(२८) जगन्नाथ (२६)-जैसलमेर के रावल अमरसिह के लिये इन्होने रतिभूषण नामक ग्रन्थ सं० १७१४ के जेठ सु० १० सोमवार को बनाया।
(२९) जटमल (७६-१०५-११३)-ये नाहरगोत्रीय जैन श्रावक थे। मूलतः वे लाहौर के निवासी थे पर पीछे से जलालपुर में रहने लगे थे। हिन्दी साहित्य में श्रापके रचित 'गोरा-बादल की यात' ने अच्छी प्रसिद्धि प्राप्त की, जिसका कारण एक
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[ १४८ साहित्यिक विद्वान् द्वारा इसकी सटीक प्रति के गद्य को इनका रचित मान लेना था। परवर्ती विद्वानों ने इस भूल को बहुत वर्षों तक चलाये रखा पर अन्त में स्वामी नरोत्तमदासजी', बाबू पूर्णचन्दजी नाहर और हमने अपने लेखों में इसका सुधार किया। हमारे अन्वेषण से जटमल के अन्य कई ग्रन्थ प्राप्त हुए उन सबका परिचय हमने हिन्दुस्तानी पत्रिका के वर्ष ८ अंक २ में 'कविवर जटमल नाहर और उनके ग्रन्थ शीर्षक लेख मे प्रकाशित किया था। प्रस्तुत ग्रन्थ में 'प्रेम विलास चौपाई, 'लाहोरगजल' और 'झिगोर गजल' के विवरण प्रकाशित हैं। इनमें से प्रेमविलास चौपाई के सम्बन्ध में स्वर्गीय सूर्यनारायणजी पारीक का एक लेख वीणा सन् १९३८ में प्रकाशित हो चुका है और 'लाहौरगजल' 'जैनविद्या' नामक पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है। मिंगोर गजल' अभी तक अप्रकाशित है। आपकी अन्य रचनाएं, बावनी, सुन्दरीगजल और फुटकर सवैये हमारे संग्रह में है । जंटमल-ग्रन्थावली का हमने संपादन किया है और वह प्रकाशन की प्रतीक्षा में है।
मिश्रबन्धुविनोद के पृ०४०७ में भी जटमल का उल्लेख है।
(३०) जयतराम ( १२८)-इन्होंने 'योग प्रदीपिका स्वरोदय' सं० १७९४ विजया दशमी को बनाया।
(३१) जयधर्म (१२३ )-ये जैनयति लक्ष्मीचन्दजी के शिष्य थे । इन्होने सं० १७६२ कातिक बदि ५ को पानीपत में नन्दलाल के पुत्र गोवर्धनदास के लिये 'शकुन प्रदीप' नामक ग्रन्थ वनाया।
(३२) जर्नादन गोस्वामी (२२)-इनके रचित 'दुर्गसिंह शृंगार' ग्रन्थ का विवरण प्रस्तुत ग्रन्थ में दिया गया है । इसकी प्रति प्रारम्भ में त्रुटित प्राप्त होने से । दुर्गसिह एवं कवि का विशेष परिचय ज्ञात नहीं हो सका। इस ग्रन्थ की रचना सं०१७३५ ज्येष्ठ सुदि ९ रविवार को हुई थी । आपके रचित व्यवहार निर्णय सं० १७३७ और लक्ष्मी नारायण पूजासार (बीकानेर के महाराजा अनूपसिहजी के लिये रचित) की प्रतिये अनूप संस्कृत लाइब्रेरी में विद्यमान है ।
___ खोज रिपोर्टों के आधार से हस्तलिखित हिन्दी पुस्तकों का संक्षिप्त विवरण भाग १ के पृ० ४९ में जनार्दन भट्ट के ( १ ) बालविवेक (२) वैद्यरत्न (३) हाथी का शालिहोत्र और मिश्रवन्धुविनोद के पृ० १०७८ में इन ग्रन्थों के अतिरिक्त कविरत्न नामका चौथा ग्रन्थ भी इन्हीं के द्वारा रचित होने का उल्लेख किया है।
१ प्र. नागरी प्रचारिणी व. १४ अ. ४ । २ प्र० विशाल भारत, दिसम्बर १९३३ ।
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[ १४९ ] इनमे से वैद्यरत्न की प्रतियें मेरे अवलोकन में आयी हैं उसमें रचना काल सं० १७४९ माघ सुदि ६ स्पष्ट लिखा हुआ है। अतः मिश्रबन्धुविनोद में इनका कविता काल सं० १९०० के प्रथम बतलाया है वह और भी आगे बढ़कर सं० १७४९ के लगभग का निश्चित होता है। पता नहीं इनके नाम से जिन तीन अन्य ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है उनमें रचनाकाल है या नहीं एवं कवि यही हैं या समनाम वाले अन्य कोई जनार्दन भट्ट हैं ?'
जनार्दन गोस्वामी के संस्कृत ग्रन्थों एवं वंशावलि के सम्बन्ध में डॉ. सी. कुन्हनराजा अभिनंदन ग्रन्थ में पं० माधव कृष्ण शर्मा का 'शिवानन्द गोस्वामी' लेख देखना चाहिये।
. (३३) जान (१८, २७, ३३, ४९, ५५,७१,७९, ८४, ९०, ९४, ९७) आप फतहपुर के नवाब अलिफखाँ के पुत्र न्यामतखाँ थे । कविता में इन्होंने अपना उपनाम जान ही लिखा है । सं० १६७१ से १७२१ तक पचास वर्ष आपकी साहित्य-साधना का समय है । इन वर्षों में आपने ७५ हिन्दी काव्य ग्रन्थों का निर्माण किया, जिसकी प्रतियाँ राजस्थान मे ही प्राप्त होने से अभी तक यह कवि हिन्दी साहित्य संसार से अज्ञात था । इनका ( इनके ४ ग्रन्थों का ) परिचय सर्व प्रथम हमारे सम्पादित राजस्थानी' और 'धूमकेतु' पत्र मे प्रकाशित हुआ था। श्रीयुत मोतीलालजी मेनारिया के खोज विवरण में आपकी रचित रसमंजरी का विवरण प्रकाशित हुआ है । प्रस्तुत ग्रन्थ मे आपके ११ ग्रन्थो का विवरण दिया गया है। इनके सम्बन्ध में हमारे निम्नोक्त चार लेख प्रकाशित हो चुके हैं अतः यहाँ अधिक न लिखकर पाठकों को उन लेखों को पढ़ने का सूचन किया जाता है। (१) कविवर जान और उनके ग्रन्थ (प्र० राजस्थान भारती व०१ अं०१) (२) कविवर जान और उनका कायम रासो (प्र० हिन्दुस्तानी व० १५ अं०२) (३) कविवर जान का सबसे बड़ा ग्रन्थ(बुद्धिसागर)(प्र०, व० १६ अं० १) (४) कविवर जान रचित अलिफखाँ की पेड़ी (प्र०, व० १६ अं० ४)
(३४) जोगीदास (५०)-ये बीकानेर के साहित्य प्रेमी नरेश अनूपसिंहजी के सम्मानित श्वेताम्बर (जैन ) लेखक जोसीराय मथेन के पुत्र थे । महाराजा सुजान
हिन्दी पुस्तक साहित्य के अनुसार यह मुहम्मदी प्रेस लखनऊ से छप भी चुका है। इस अन्ध के पृष्ठ ६३ मे सन् १८८२ लिखा है वह प्रकाशन का है। इसी प्रकार देवीदास की राजनीति को भी १९ वीं शताब्दी की मानी है पर वह १८ वीं की है।
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[ १५० ] सिहजी के वरसलपुर गढ़ विजय का वर्णन इन्होंने संवत् १७६७-६९ के लगभग सुजानसिंह रासो ( पद्य ६८ ) में किया था। उससे प्रसन्न होकर महाराजा ने कवि को वर्षाशन, सासणदान और शिरोपाव देकर सम्मानित किया था। इन्हीं महाराजा के समय कवि ने उनके पुत्र महाराज कुंवर जोरावरसिहजी के नाम से सं० १७६२ के आश्विन शुक्ल १० को "वैद्यकसार" नामक ग्रन्थ बनाया जिसका विवरण प्रस्तुत ग्रन्थ में दिया गया है।
(३५) टीकम (७३)-ये जैन कवि थे। सं० १७०८ जेठ वदि २ रविवार को इन्होंने 'चन्द्रहंस-कथा' बनाई।
(३६) तत्वकुमार (५७)-ये खरतरगच्छीय सागरचन्द्रसूरि शाखा के वाचक दर्शनलाभ के शिष्य थे । मिश्रबन्धुविनोद के पृ० ९७५ में अज्ञात कालिक प्रकरण में इनके रचित श्रीपालचरित्र का उल्लेख है । वह कलकत्ते से यति सूर्यमलजी ने प्रकाशित भी कर दिया है। आपके द्वितीय ग्रन्थ 'रत्नपरीक्षा का विवरण इस ग्रन्थ में दिया गया है जिसके अनुसार इसकी रचना सं० १८४५ सावन वदि १० सोमवार को बंगदेशीय राजगंज के चंडालिया आसकरण के लिये हुई थी।
(३७) दयालदास (९८)-आप कुबिये गाँव के सिढ़ायच खेतसी के पुत्र थे । राठौड़ों की ख्यात के सम्बन्ध में आपके तीन ग्रन्थ (१) आर्याख्यान कल्पद्रुम (२) देशदर्पण और (३) राठौड़ों की ख्यात बहुत ही महत्व के हैं । बीकानेर राज्य का इतिहास तो आपके इन ग्रन्थो के आधार से ही लिखा गया है । इनके अतिरिक्त जस-रत्नाकर', 'सुजस बावनी', 'अजस इक्कीसी', फुटकर गीत आदि की प्रतियाँ अनूप संस्कृत लाइब्रेरी में विद्यमान हैं । आपने नारसैर के ठाकुर अजीतसिहजी की आज्ञा से परमारों के इतिहास के सम्बन्ध में 'पंवारवंशदर्पण' सं० १९२१ में बनाया।
(३८) दरवेश हकीम (४५)-आपके रचित 'प्राणसुख' ग्रन्थ के अतिरिक्त कुछ भी वृत्त ज्ञात नहीं है । इस ग्रन्थ की प्रति सं० १८०६ की लिखी हुई होने से कवि का समय इससे पूर्ववर्ती सिद्ध ही है।
(३९) दलपति मिश्र (९५)-'जसवन्त उदोत' मे कवि ने अपना परिचय देते हुए लिखा है कि अकवरपुर में माथुरद्वीप मिश्र जिन्होंने कुछ दिन रामनरेश के यहाँ रहकर उन्हें पढ़ाया था उनके पुत्र शिवराम के पुत्र तुलसी का मैं पुत्र हूं । सं० १७०५ असाढ़ सुदी ३ को जहाँनावाद में इस ग्रन्थ की रचना हुई । जोधपुर के महाराजा जसवन्तसिहजी से इनका अच्छा सम्बन्ध था । इस ग्रन्थ का ऐतिहासिक
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[ १५१ ] सार मैंने 'हिन्दुस्तानी' वर्ष १६ अंक ३ मे प्रकाशित कर दिया है। 'जसवन्त उदोत' में कवि ने नायिकावर्णन के सम्बन्ध में विस्तार से जानने के लिये अपनी 'रस रत्नावली' ग्रन्थ का निर्देश किया है जो अद्यावधि अप्राप्त है ।
(४०) दीपचन्द (४५)-ये खरतरगच्छीय थे । इनके रचित 'लंघन-पथ्यनिर्णय' नामक संस्कृत ग्रन्थ की प्रति हमारे संग्रह मे है जो कि सं० १७९२ माघ सुदि १ जयपुर मे रचित है । प्रस्तुत ग्रन्थ मे इनके बाल तन्त्र भाषा वचनिका का विवरण दिया है।
(४१) दीपविजय ( १०९-११५ )-ये तपागच्छीय रत्नविजय के शिष्य थे। इनका विरुद “कविराज बहादुर" था। आपकी निम्नोक्त रचनाएँ ज्ञात हुई है।
(१) रोहिणी स्तवन सं० १८५९ भा० सु० खंभात (२) केसरियाजी लावणी-ऋषभ स्तवन सं० १८७५ (३) सोहम कुल पट्टावलि रास (ग्रन्थाग्रन्थ २०००) सं० १८७७ सूरत (४) पाश्वनाथ ५ बधावा सं० १८७९ (५) कवि तीर्थ स्तवन, सं० १८८६ (६) अड़सठ आगम अष्ट प्रकार री पूजा, सं० १८८६ जम्बूसर (७) नन्दीश्वर महोत्सव पूजा सं० १८८९ सूरत (८) सूरत गजल (९) खंभात गजल ( १० ) जम्बूसर गजल
(११) उदयपुर गजल (१२) बड़ौदा गजल । ये पॉचो गजल सं १८७७ की लिखित प्रति मे उपलब्ध है जो कि आगरे के विजय धर्म सूरि ज्ञान मन्दिर में है।
(१३) माणिभद्रछन्द (१४) चन्दगुणावली पत्र (१५) अष्टापद पूजा, सं० १८९२ फागुन, रांदेर (१६) महानिशीथ हुंडी (प्र० जैन साहित्य संशोधक ) (१७) नवबोल चर्चा सं० १८७६ उदयपुर
(४२) दुर्गादास (११२)-ये खरतरगच्छीय यति विनयानन्द (जिनचन्द्रसूरि शाखा ) के शिष्य थे। इन्होंने दीपचन्द के आग्रह से सं० १७६५ पौष वदि ५ मे 'मरोट गजल' बनाई। इनका अन्य ग्रन्थ जम्बू चौपाई हमारे संग्रह मे है । इसकी रचना सं० १७९३ श्रावणसुदि ७ सोमवार को बाकरोद में हुई है।
(४३) दूलह (२३ )-१९ वी शताब्दी के कवि दूलह का 'कविकुलकंठाभरण' हिन्दी साहित्य मे प्रसिद्ध है । मिश्रबन्धुविनोद पृ० १८१ में भी इसका उल्लेख है ।
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__ १५२ ] संभवतः।ये उनसे अभिन्न ही होंगें। दूलह विनोद की प्रति का केवल प्रथम पत्र प्राप्त होने से कवि का परिचय एवं रचनाकाल ज्ञात नहीं हो सका । इसकी पूर्ण प्रति कहीं प्राप्त हो तो हमें सूचित करने का अनुरोध है।
(४४) देवहर्ष ( १०५-१०७ )-आप खरतरगच्छीय जैन यति थे। श्री जिनहर्षसूरिजी के समय में रचित इनकी 'पाटण गजल' (सं० १७५९ फाल्गुन) 'डीसा गजल' के अतिरिक्त 'सिद्धाचल छन्द' हमारे संग्रह में है।
(४५) धर्मसी ( ४३ ) ये भी खरतरगच्छीय वाचक विमल हर्पजी के शिष्य थे। इनका दीक्षा अवस्था का नाम धर्मवद्धन था । अपने समय के ये प्रतिष्ठित एवं राज्य-मान्य विद्वान थे। इनके सम्बन्ध मे मेरा विस्तृत लेख राजस्थानी साहित्य और जैन कवि धर्मवर्द्धन' शीर्षक राजस्थानी वर्ष २ भाग२ मे प्रकाशित है। अतः यहाँ विस्तृत परिचय नही दिया गया ।
(४६) नगराज (१२५)-संभवतः ये खरतरगच्छीय जैन यति थे । १८ वी शताब्दी मे अजय राज्य के लिय आपने "सामुद्रिक भाषा" नामक ग्रन्थ बनाया।
(४७) निहाल (११०)-ये पावचन्द्रसूरि संतानीय हर्षचन्द्रजी के शिष्य थे। इनकी रचित बंगाल की गजल (सं० १७८२-९५) के अतिरिक्त निम्नोक्त रचनाये ज्ञात
(१) ब्रह्मवावनी, सं० १८०१ कार्तिक सुदि ६ मुर्शिदाबाद (२) माणकदेवी रास, सं० १७९८ पौष वदी १३ मुर्शिदाबाद(प्र० राससंग्रह) (३) जीवविचार भाषा सं० १८०६ चैत सुदि २ बुध मुर्शिदाबाद
(४) नवतत्व भाषा, सं० १८०७ माघ सुदि ५
"बंगाल गजल ऐतिहासिक सार के साथ मुनि जिनविजयजी ने भारतीय विद्या वर्ष १ अंक ४ में प्रकाशित करदी है।।
(४८) नंदराम (१७)-इन्होंने बीकानेर नरेश अनूपसिहजी की आज्ञा से ". रस ग्रन्या का सार लेकर "अलसमेदिनी" नामक ग्रन्थ बनाया । .
- (४९) परमानंद (१२६)-ये नागपुरीय लोकागच्छ के वीरचन्द्र के शिष्य थे। इन्होने लक्ष्मीचन्द्र (सूरि) एवं बीकानेर नरेश सूरतसिह के समय में (सं० १८६० माघ सुदि) में विहारी सतसई की संस्कृत टीका बनायी।
(५०) प्रेम (२५)-इन्होंने सं० १७४० के चैत सुदि १० को प्रेममंजरी
प्रन्य बनाया।
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। १५३ (५१) बगसीराम लालस (१९) आपने सं० १९१३ आश्विन शुक्ला १५ को बीकानेर के महाराजा सरदारसिह (काव्य में नाम सादूल पाता है पर वह अशुद्ध प्रतीत होता है) की छत्र छाया में “कान्य-प्रबन्ध" ग्रन्थ बनाया।
(५२) बद्रीदास (७)-इनकी रचित मानमंजरी नाममाला की प्रति सं० १७२५ की लिखित प्राप्त है अतः इनका समय इसके पूर्ववर्ती ही है।
(५३) भगतदास (८६)-इन्होंने सम्राट अकबर के समय में अकबरपुर मे "बैताल पचीसी" बनाई । ये राघवदास के पुत्र थे।
(५४) भक्तिविजय (११०-११३)-आपने सं० १८६६ कार्तिक सुदि १५ को भावनगर वर्णन गजल और मेदिनीपुर (मेड़ता) महिमा छंद विजय जिनेन्द्र सूरि' (तपागच्छीय) के समय में बनाया । आपके शिष्य मनरूप का परिचय आगे दिया जायगा।
(५५) भीखजन (६)-श्री गोपाल दिनमणि रचित 'फतहपुर परिचय' के पृष्ठ १५१ मे इन्हें दादु शिष्य संतदास का शिष्य बतलाया है । ये जाति के प्राचार्य
ब्राह्मण थे और इनके पिता का नाम देवी सहाय था । सन्यस्त होकर ये भजन स्मरण 0 एवं अध्ययन करने लगे। इन्होने भारतीय नाममाला सं० १६८५ आश्विन शुक्ला १५
शुक्रवार फतहपुर (शासक दौलतखां व उनके पुत्र ताहर खॉन के समय मे ) में बनाई थी। इनकी रचित अन्य रचना 'भीख बावनी" है । आपके लिखे हुए रसकोष (कवि जान कृत) की प्रति अनूप संस्कृत लाइब्रेरी मे है जो सं० १६८४ जेठ वदी ७ फतहपुर मे लिखी गयी है।
मिश्रबन्धुविनोद के पृ० ९९३ मे आपकी बावनी का उल्लेख है पर उसका परिमाण ५०० श्लोक का बतलाना सही नही है। वहाँ इन्हे अज्ञात कालिक प्रकरण मे रखा गया है, पर भारतीय नाममाला की प्रति से आपका समय सं० १६८५ के लगभग निश्चित होता है।
(५६ ) भूधर मिश्र (६६)-ये शाकद्धीपी मिश्र भार्गवराम के पुत्र थे। सं० १७३९ के माघ वदी ९ को दक्षिणगढ़ नादेरी मे "रागमंजरी" ग्रन्थ बनाना प्रारंभ किया । प्रन्थ के अन्त में सं० १७४० का निर्देश है और यह भी लिखा है कि आजमशाह के प्रयाण के समय कवि ने सैन्य के साथ दन्तिन ग्राम देखा । कवि ने अपना निवासस्थान सूबा बिहार, गढ़ मुंगेर लिखा है । १ दे. जैन गुर्जर कविओ भा० २ पृ० ७३०
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[ १५४ (५७ ) भूप (११८)-मिश्रवन्धुविनोद पृ० २९३ में अज्ञात कालिक प्रकरण के अन्तर्गत भूप कवि एवं उनके "चंपू सामुद्रिक" ग्रन्थ का भी उल्लेख है । हमें प्राप्त प्रति सं० १७२५ को लिखित होने से कवि का समय इससे पूर्ववर्ती निश्चित है ।
(५८) मनरूपविजय (१०२-१०६-१०८-११२-११६)-ये पूर्व उल्लखित तपागच्छीय भक्तिविजय के शिष्य थे । इनके रचित (१) गिरनार-जूनागढ़ (२) नागोर (३) पोरबन्दर (४) मेड़ता (सं० १८६५ कार्तिक सुदि १४) और (५) सोजत की गजलें (सं० १८६३ कार्तिक सुदि १५) का विवरण प्रस्तुत ग्रन्थ में दिया गया है। सं० १८७८ में वैशाख शुक्ला १५ सोमवार के एक लेख से ज्ञात होता है कि जैसलमेर दरवार ने इन्हे लोद्रवा में उपासरा बना के दिया था।
(५९) मयाराम (१३०)-ये दादूपन्थी थे। इनका निवास स्थान दिल्लीजहानाबाद था । शिव-सरोदय ग्रन्थ के आधार से इन्होंने स्वरोदय ग्रन्थ बनाया।
(६०) मलूकचन्द्र (५३)-वैद्यहुलास ग्रन्थ जो कि तिब्बसहावी का अनुवाद है, मे आपने अपने श्रावक कुल का उल्लेख किया है । अत : ये जैन श्रावक थे। संभवतः ये १९ वीं शताब्दी मे ही हुए हैं।
(६१) महमद शाहि (६७)-ये पिरोजशाह के वंश में तत्तारशाह के पुत्र थे। इनकी रचित संगीतमालिका की प्रारंभ-त्रुटित प्रति प्राप्त हुई है। संभव है कवि ने प्रारम्भ में अपना कुछ परिचय एवं समय दिया हो।
(६२) महासिह (१)-इनकी "अनेकार्थ नाममाला" की प्रति सं० १७६० मे स्वयंलिखित हमारे संग्रह में है । इसमें इन्होंने अपने को पांडे बतलाया है।
(६३ ) मान, (प्रथम ) (२५)-आप खरतरगच्छीय उपाध्याय शिवनिधान के शिष्य थे । इनकी रचित "भाषा कविरस मंजरी" का विवरण प्रस्तुत ग्रन्थ मे है। इनके अतिरिक्त आपके अन्य ग्रन्थ इस प्रकार हैं:
(१) कीर्तिधर सुकौशल प्रबन्ध सं० १६७० दीवाली, पुष्करण (२) मेतार्य ऋषि सम्बन्ध सं०७ पुष्करण (३) क्षुल्लककुमार चौपाई (४) हंसराज वच्छराज चौपाई सं० १६७५ कोटड़ा (५) उत्तराध्ययन गीत सं० १६७५ सावन वदी ८ गुरु (६) अर्हदास प्रबन्ध
विजयदशमी जूनपुर (७ ) मेघदूत वृत्ति सं० १६९३ भादवा सुदि ११
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[ १५५ ] (८) जीवविचार टब्बा (९) योगबावनी
(१०) शिक्षाछत्तीसी
(६४) मान (द्वितीय) (३७,३९,४०)-ये खरतरगच्छीय सुमति मेरु भ्रातृ विनयमेरु के शिष्य थे । कविविनोद और कविप्रमोद में इन्होंने अपने को बीकानेरवासी लिखा है। सं० १७४५ वैसाख सुदी ५ लाहोर में कविविनोद और सं० १७४६ कार्तिक सुदि २ में कविप्रमोद ग्रन्थ बनाया । संयोगद्वात्रिंशिका भी संभवतः इन्हीं की रचना है जिसका निर्माण अमरचन्द्र मुनि के आग्रह से सं० १७३१ के चैत सुदि ६ को हुआ था।
(६५) माल (देव) (८५)-ये भटनेर की बड़गच्छीय शाखा के आचार्य भावदेवसूरि के शिष्य थे। आप अच्छे कवि थे । आपकी रचनाओ की सूची नीचे दी जारही है:
(१) पुरन्दर चौपाइ (२) भोज-प्रबन्ध (पंचपुरी में रचित) (३) अंजणासुन्दरी चौपाइ (४) विक्रम पंचदंड कथा (५) देवदत्त चौपाइ (६) पद्मरथ चौपाई (७) सूरिसुन्दरी चौपाइ (८) वीरांगद चौपाइ (९) मालदेव शिक्षा चौपाई (१०) स्थूलिभद्र फाग-धमाल (११) राजल नेमि धमाल (१२) शील बत्तीसी (१३) कल्पान्तर वाच्य सं० १६१४ (१४) वीरपंचकल्याणक स्तवन आदि
मिश्र बन्धु विनोद के पृ० ३९१ मे इनकी पुरन्दर चौपाई का उल्लेख है और उनका रचनाकाल १६५२ लिखा गया है पर वास्तव में वह संवत् प्रतियों का लेखनकाल है । इनका समय सं० १६१४ के लगभग है।
(६६) मुरलीधर (११)-ये त्रिपाठी रामेश्वर के पुत्र थे। इन्होंने पोलस्त्यवंशी मार्तण्डगढ़ के महाराजा हृदयनारायणदेव के प्रोत्साहन से सं० १७२३ कार्तिक वदी १५ को "छन्दोहृदयप्रकाश' ग्रन्थ बनाया ।
(६७) मेघ ( १२१)-ये उतराधगच्छ के मुनि जटमल शिष्य परमानन्द शिष्य सदानन्द शिष्य नरायण शिष्य नरोत्तम शिष्य मयाराम के शिष्य थे। सं० १८१७ कार्तिक सुदि ३ गुरुवार को चौधरी चाहड़मल के समय मे पंजाब प्रान्त के फगवाड़े स्थान में वर्षोविज्ञानसम्बन्धी “मेघमाला ग्रन्थ बनाया। कई वष पूर्व हमने इस प्रन्थ का
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[ १५६ ] वेंक्टेश्वर प्रेस बम्बई से प्रकाशित देखा था । कवि मेघ का रचित मेघविनोद जो कि वैद्यक का बहुत ही उपयोगी ग्रन्थ है गुरुमुखी लिपि में प्रकाशित हुआ था। अभी लाहौर से संभवतः इसका हिन्दी गद्यानुवाद प्रकाशित हुआ है । इस ग्रन्थ की रचना सं० १८३५ फाल्गुन सुदि १३ फगवा नगर में हुई थी। आपका तीसरा ग्रन्थ "दान शील . सप भाव" (सं० १८१७ ) पंजाब भंडार में उपलब्ध है।
मिश्रबन्धुविनोद के पृ० ९९७ में आपके मेघविनोद ग्रन्थ का उल्लेख है पर वहाँ इन्हें अज्ञातकालिक प्रकरण में रखा गया है । जबकि ग्रन्थ में सं० १८३५ पाया जाता है।
(६८) रघुनाथ (५)-ये विष्णुदत्त के पुत्र थे। प्रदीपिका नाम-माला ग्रन्थ के अतिरिक्त आपका विशेष वृत्तान्त ज्ञात नहीं है।
(६९) रत्नशेखर (५७)-ये अंचल गच्छीय अमरसागरसूरि के आज्ञानुवर्ती थे । सं० १७६१ के मिगसर सुदि ५ गुरुवार को सूरत के श्रीवंशीय भीमशाही के पुत्र शंकरदास की प्रार्थना से इन्होंने रित्नव्यवहारसारण ग्रन्थ बनाया।
(७०) रसपुंज (११)-आपने सं० १८७१ की चैत्र वदी ५ गुरुवार को "प्रस्तार प्रभाकर" ग्रन्थ बनाया ।
(७१) रामचन्द्र ( ४४-५१-१२४ )-आप खरतरगच्छीय जिनसिहसूरि शिष्य पद्मकीर्ति शिष्य पद्मरंग के शिष्य थे । आपके रामविनोद (सं० १७२० मिगसर सुदि १३ बुधवार सकी नगर ) ग्रन्थ की प्रति पहले भी मिल चुकी है और ये लखनऊ से छप भी चुका है। आपके वैद्यविनोद (सं० १७२६ वै० सु० १५ मरोट) एवं सामुद्रिक भाषा (सं० १७२२ माघ वदि ६ भेहरा) का विवरण इस ग्रन्थ में प्रकाशित है । इनके अतिरिक्त आपकी निम्नोक्त रचनाएँ ज्ञात हुई हैं।
(१) दश पचक्खाण स्तवन, सं० १७२१ पौष सुदी १० (२) मूलदेव चौपाई, सं० १७११ फागण, नवहर (३) समेदशिखर स्तवन, सं० १७५०
(४) बीकानेर आदिनाथस्तवन, सं० १७३० जेठ सुदी १३
मिश्रबन्धुविनोद के पृ० ४६६ में उल्लखित रामचन्द्र ये ही हैं पर साकी बनारस वाले एवं ग्रन्थ का नाम राय विनोद और गुरु का नाम पध्मराग छपा है, वह अशुद्ध है वास्तव में सकीनगर सिन्ध प्रान्त में है, ये यति थे अतः सर्वत्र परिभ्रमण करते रहते थे-किसी एक जगह के निवासी न थे । ग्रन्थ का नाम रामविनोद और गुरु का नाम पद्मरंग है । मिश्रवन्धुविनोद में आपके अन्य एक ग्रन्थ जम्बू चौपाई का भी उल्लेख है।
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[ १५७ 1 (७२) रामचन्द्र (द्वितीय) (५९)-इनका रत्न परीक्षा ( दीपिका ) ग्रन्थ प्राप्त है । उसमे कवि ने अपना कुछ भी परिचय नहीं दिया अतः ये उपर्युक्त रामचन्द्र से भिन्न है या अभिन्न, कहा नहीं जासकता।
। (७३) रायचन्द्र ( ११७)-ये खरतरगच्छीय जैनयति थे। सं० (१८) । -१७ मे द्वितीय ज्येष्ठ वदी ५ नागपुर में आपने अवयदी शुकुनावली बनाई । संभव है कल्पसूत्र हिन्दी पद्यानुवाद के रचयिता रायचन्द्र ये ही हो जो कि सं० १८३८ चैत सुदी ९ बनारस मे बनाया गया एवं प्रकाशित हो चुका है। ' (७४) लच्छीराम ( २१,६२)-इनके रचिन दम्पतिरंग और रागविचार अन्थों के विवरण प्रस्तुत ग्रन्थ मे प्रकाशित हैं। उनमें कवि ने अपना कुछ भी परिचय नहीं दिया पर मोतीलालजी मेनारिया सम्पादित खोज विवरण के प्रथम भाग में इनके करुणाभरण नाटक का विवरण प्रकाशित हुआ है। उसके अनुसार ये कवीन्द्राचार्य सरस्वती के शिष्य थे । बीकानेर की अनूप संस्कृत लाइब्रेरी मे कवीन्द्राचार्य के संग्रह की अनेक प्रतियें हैं और लच्छीराम के (१) ज्ञानानन्द नाटक (२) ब्रह्मानन्दनीय (३) विवेक सार-ज्ञान कहानी और (४) ब्रह्मतरंग की प्रतियें भी उपलब्ध हैं। इनमें से ज्ञानानन्द नाटक में कवि ने अपना एवं अपने मित्रो का परिचय निम्नोक्त पद्यों मे दिया है:
देसु भदावर अति सुख वासु, तहाँ जोयसी इसुर दासु । राम कृष्ण ताके, सुत भयो, धर्म समुद्र कविता यसु छयो । तिनके मित्र शिरोमणि जानि, माथुर जाति चतुरई खानि । मोहनु मिष सुभग ताको सुतु, वसे गंभीरे सकल कला युत ॥ पुनि अवधानि परम विचित्र, दोउ लच्छीराम सो मित्र । तीनो मित्र सने सुख रहे, धनि प्रीति सब जग के कहे। अथ लच्छीराम वृत्तान्त कहीयतु है- . जमुनातीर मई इक गाऊँ, राइ कल्याण वसे तिह ठाँउ । लच्छीराम कविता को नन्दु, जा कविता सुनि नासे दंदु ॥ राइ पुरंदर करे लघु भाई, तासो मित्र बात चलाई । नाटक ज्ञानानन्द सुनावो, देहुं सुखनि अरु तुम सुख पावो ।
इटली के प्रसिद्ध राजस्थानी के प्रेमी विद्वान् एल० पी० टेसीटोरी के केटलॉग में इनके बुद्धिबल कथा ( सं० १६८१ रचित) का उल्लेख है।
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१५८ मिश्रबन्धुविनोद में इसी नाम वाले तीन कवियों का उल्लेख किया गया है। इनमें से सूदन कवि के सुजानचरित्र में उल्लखित लच्छीराम ही प्रस्तुत लच्छीराम हो सकते हैं। अन्य लच्छीराम १९ वीं शताब्दी के हैं।
(७५) लक्ष्मीचन्द (९९)-ये खरतरगच्छीय जैनयति थे । यथा स्मरण ये अमरविजय के शिष्य थे । इनका एक वैद्यक ग्रन्थ इनकी परम्परा के उपाध्याय जयचन्दजी के भंडार बीकानेर में उपलब्ध है।
(७६) लक्ष्मीवल्लभ-(४१, ४७)-आप भी खरतरगच्छीय' उपाध्याय लक्ष्मीकीर्तिजी के शिष्य थे। अपने कई काव्य ग्रन्थों में इन्होंने अपना नाम राजकवि' दिया है । १८ वीं शताब्दी के प्रसिद्ध विद्वानों में से आप भी अन्यतम थे। इनके कालज्ञान ( १७४१ सावन सुदी १५) और मूत्र परीक्षा का विवरण प्रस्तुत प्रन्थ में दिया है । इनके अतिरिक्त आपकी छोटी मोटी पचासों रचनाएं है जिनमें से उल्लेखनीय प्रतियों की सूची नीचे दी जारही है:
१. अभयंकर श्रीमति चौपाई, सं० १७२५ चै० सु० १५. २. अमरकुमार रास ३. विक्रमादित्य पंचदंड चौपाई, सं० १७२८ फा०व०५ ४. रात्रि भोजन चौपाई, सं० १७३८ वै० सु० १० बीकानेर ५: रत्नहास चौपाई, सं० १७२५ चै० सु० १५ ६. भावना विलास, सं० १७२७ पौ० ब० १० ७. नवतत्व भाषा, सं० १७४७ वै० सु० १३ हिंसार ८. चौवीसी स्तवन . ९. दोहावावनी १०. कवित्व बावनी ११. छप्पय बावनी १२. सवैया बावनी १३ भरत बाहुबलि भिडाल छंद १४ महावीर गौतम छंद १५ देशान्तरी छंद १६ उपदेश वतीसी १७ चैतन वतीसी, सं० १७३९
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[ १५९ ] १८ बीकानेर चौबीसटा स्तवन, सं० १७४५ मा० सु० १५. १९ शतकत्रय टबा (पंजाब भंडार) २० स्तवनादि ४०
संस्कृत ग्रन्थ२१. कल्पसूत्र-कल्पद्रुमकलिका वृत्ति २२. उत्तराध्यनवृत्ति २३. कालिकाचार्य कथा २४. पंचकुमार कथा २५. कुमारसंभववृत्ति, सं० १७२१ सूरत २६. मात्रिकाक्षर धर्मोपदेश स्वोपज्ञ वृत्ति, सं० १७४५
आप संस्कृत, राजस्थानी और हिन्दी तीनों भाषाओं पर समान अधिकार रखते थे। उपरोक्त ग्रन्थ इन तीनों भाषाओं के हैं। आपका विशेष परिचय स्वतंत्र लेख में दिया गया है जो कि शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है।
(७७ ) लालचन्द (१३२)-ये भी खरतरगच्छीय जैनयति थे । श्री शान्ति हर्षजी के शिष्य एवं कविवर जिनहर्ष के गुरुभ्राता लाभवर्द्धनजी का दीक्षा से पूर्ववर्ती नाम लालचन्द था । विशेष संभव आप वही हैं । इन्होंने सं० १७५३ के भादवा सुदी में अक्षयराज के लिये स्वरोदय की भाषा टीका बनाई। आपके अन्य प्रन्थ इस प्रकार हैं:
(१) विक्रम नवसौ कन्या चौपाई एवं खापरा चोर चौपाई, सं० १७२३
श्रावण सु० १३ जेतारण । (२) लीलावती रास, सं० १७२८ कातिक सुदि १४ । (३) लीलावती रास (गणित), स० १७३६ असाद बदी५, बीकानेर कोठारी
जैतसी के लिये। (४) धर्मबुद्धि पापबुद्धि रास, सं० १७४२ सरसा। (५) पांडवचरित्र चौपाइ, सं० १७६७ बील्हावास। (६) विक्रम पंचदंड चौपाई सं० १७३३ फाल्गुन ।
(७) शकुनदीपिका चौपाई सं० १७७० वैसाख सुदी ३ गुरुवार । . मिश्रबन्धुविनोद के पृ० ५०८ में इनके लीलावती ग्रन्थ का उल्लेख है पर वहा8 सौभाग्य सूरि के शिष्य एवं नैणसी के आश्रित लिखा है वह ठीक नहीं है । आपके
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[ १६० ] गुरु का नाम शान्ति हर्प और नैणसी के पुत्र जैतसी के लिये प्रस्तुत ग्रन्थ बनाया गया है । मिश्रवन्धुविनोद के पृ० १००४ में लाभवर्द्धन के रचित उपपदी अन्य का उल्लेख है पर मुझे यह नाम अशुद्ध प्रतीत होता है।
(७८) लालदास (३४)- इनके "विक्रमविलास" ग्रन्थ का विवरण इस ग्रन्थ में दिया गया है उसके प्रारंभ में कवि ने अपने दो अन्य ग्रन्थों का उल्लेख किया है जिनमें से उषा नाटक (कथा) की प्रति सन् १९०९ से ११ की खोज रिपोर्ट में प्राप्त है। इनकी माधवानलकथा अभी तक कहीं जानने में नहीं आई अतः उसकी खोज होना आवश्यक है।
नागरी प्रचारिणी पत्रिका के वर्ष ५१ अंक ४ में सन् १९४१ से ४३ की खोज का विवरण प्राप्त हुआ है उसमें लिखा है कि विक्रमविलास की दो प्रतियां प्राप्त हुई हैं . जिनके अनुसार कवि का नाम लाल या नेवजी लाल दीक्षित था । ये विक्रम शाहि राजा के आश्नित थे। जिनके बड़े भाई का नाम भूपतशाहि पिता का नाम खेमकरण और पितामह का नाम मलकल्याण था । एक प्रति में इस ग्रन्थ का रचना काल १६४० लिखा है।
मिश्रवन्धुविनोद के पृ० १०७१ में लालदास के उषा कथा और वामन चरित्र का निर्देश है कविताकाल सं० १८९६ के पूर्व और मनोहर दास के पुत्र लिखा है । हमारे नम्रमतानुसार उषा कथा उपरोक्त लालदास रचित ही होगी और उसका रचना काल १७ वीं शताब्दी निश्चित ही है । वामनचरित्र के रचयिता लालदास प्रस्तुत कवि से भिन्न ही संभव हैं।
१७ वीं शताब्दी के कवि लालदास की इतिहाससार (सं० १६४३) प्रसिद्ध ही है एवं अन्य कई ग्रन्थ भी इसी कवि के नाम से उपलब्ध हैं पर उन सभी का रचयिता एक ही कवि है या समनाम वाले भिन्न भिन्न कवि हैं प्रमाण भाव से नहीं कहा जा सकता।
(७९) वल्लभ (१३०)-आपने हृदयराम के समय में या उनके लिये स्वरोदय सम्बंधी छोटा सा ग्रन्थ बनाया।
(८०) विजयराम (८७)-शायत दुर्गेश के ग्राम समदरड़ी (लूणी के पास) में आपने शनिकथा वनाई । कवि ने रचनाकाल का भी निर्देश किया है पर उससे संवत् का अंक ठीक ज्ञात नहीं होता।
(८१) विनयसागर (२)-इन्होंने अंचलगच्छीय कल्याणसागर सूरि के समय-सं० १७०२ कातिक सुदी १५ को, अनेकार्थ नाममाला बनायी। ...
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[ १६१ ] '. (८२) वैकुण्ठदास (१३१)-इनके रचित स्वरोदय ग्रन्थ के अतिरिक्त कुछ भी ज्ञात न हो सका। - . . . . .
(८३) शिवराम पुरोहित (७५)-ये नागौर के निवासी थे बीकानेर नरेश । अनूपसिंहजी ने इन्हें सम्मानित किया था। कवि ने उन्हींकी आज्ञानुसार 'दशकुमार प्रबन्ध' सं० १७५४ के मिगसर सुदी १३ मंगलवार को बनाया । ग्रन्थ के प्रारंभ में कवि ने अपने गुरु मेघ को नमस्कार किया है । पता नहीं वे कौन थे।
(८४) श्रीपति (१५)-आपकी 'अनुप्रासकथन' रचना के अतिरिक्त विशेष वृत्त ज्ञात नहीं है। - '. (८५) सतीदासव्यास (३१)-ये देवीदास व्यास के पुत्र देवसी के पुत्र थे। आपने बीकानेर-नरेश अनूपसिंहजी के समय सं० १७३३ माघ सुदी २ को 'रसिकबाराम' ग्रन्थ बनाया।
(८६) समरथ (४८,१३७ ) खरतरगच्छीय सागरचन्द्रसूरि सन्तानीय मतिरत्न के शिष्य थे । इनका दीक्षितावस्था का नाम 'समयमाणिक्य' था। इनके रचित रसमंजरी वैद्यक (सं० १७६४ फागुन ५ रवि, देरा) ग्रन्थ वनमाली के आग्रह से
और रसिकप्रिय संस्कृत टीका (सं० १७५५ सावन सुदी ७ सोमवार, सिन्ध प्रान्त के जालिपुर में रचित ) का विवरण इसी ग्रन्थ मे दिया गया है। इनके अतिरिक्त (१) बावनीगाथा ५५ एवं मल्लिनाथ पंचकल्याणक स्तवन (सं० १७३६ भादवा सुदी ५ बन्नुदेश सक्कीग्राम ) उपलब्ध हैं।
(८७) स्वरूपदास (.१४)-ये पहले चारण थे फिर सन्यासी होगये। पांडवयशेन्दुचंद्रिका (सं० १८९२ चैत बदी ११) इनकी प्रसिद्ध रचना है जो प्रकाशित भी हो चुकी है । आपके अन्यग्रन्थ वृत्तिबोध (सं० १८९८ माघ बदी १ सेवापुर) का विवरण प्रस्तुत ग्रन्थ में दिया गया है । इसमें विवरण गद्य में है।
मिश्र-बन्धु-विनोद के पृ० १००८ में इनके पांडवयशचंद्रिका का उल्लेख अज्ञातकालिक प्रकरण मे किया गया है पर इस ग्रन्थ में कवि ने रचनाकाल सं० १८९२ स्पष्ट दिया है। विनोद में इनके आश्रयदाता राजा बलवंतसिंह रतलाम का निर्देश है।
(८८) सागर ( २,५,६२)-इनके रचित अनेकार्थी नाममाला, धनजी नाममाला और रागमाला उपलब्ध हुई है। कवि ने अपना परिचय एवं समय कुछ भी नहीं दिया है।
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[ १६२ ]
मिश्र-बन्धु - विनाद के पृ० ८९३ में गुणविलास के रचयिता जोधपुर के ठाकुर केसरीसिंह के श्राश्रित सागरदान चारण (सं० १८७३ ) का उल्लेख है पर वे संभवतः भिन्न हैं ।
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(८९) सुखदेवादि (९२) - १७ वीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध विद्वान् कवीन्द्राचार्य ने काशी और प्रयाग का कर छुड़वाया था- इस कार्य की प्रशंसा में तत्कालीन काशीनिवासी कवियों ने कुछ पद्य बनाये जिनका संग्रहग्रन्थ कवीन्द्रचंद्रिका है । इसमें तत्कालीन प्रसिद्धाप्रसिद्ध ३० कवियों की कविताएँ हैं जिनमें दो स्त्री कवयित्रियां भी हैं ।
मिश्रबन्धु-विनोद के पृष्ठ ४७६ में सुप्रसिद्धि कवि सुखदेव मिश्र का परिचय देते हुए इनके काशी में एक सन्यासी से तंत्र एवं साहित्य पढ़ने का उल्लेख है । संभव है वे सन्यासी कवीन्द्राचार्य ही हों । कवीन्द्रचन्द्रिका में जिस सुखदेव कवि के पद्य उपलब्ध हैं विशेष संभव वे वृतविचार रसार्णव आदि ग्रन्थों के रचयिता श्राचार्य सुखदेव मिश्र ही हैं ।
(९०) सुबुद्धि (३) - आपकी रचित आरंभ नाममाला उपलब्ध है, मिश्रबन्धु विनोद के पृ० ४६० में सुबुद्धि का सं० १७१२ से पूर्व होने का निर्देश है पर वहाँ उनके ग्रन्थ का नाम नहीं लिखा गया । पता नहीं उपर्युक्त सुबुद्धि आरंभ नाममाला के कर्त्ता ही हैं या उनसे भिन्न अन्य कोई कवि हैं ।
( ९१ ) सूरतमिश्र (१० ) - आप प्रसिद्ध टीकाकार एवं सुकवि थे । ये आगरे के निवासी कन्नोजिया ब्राह्मण सिंहमनिमिश्र के पुत्र थे । मिश्र बन्धु विनोद पृ० ५५३ में इनके टीकाग्रन्थों को प्रशंसा करते हुए निम्नोक्त ग्रन्थों का निर्देश किया है ।
ट
( १ ) अलंकारमाला सं० १७६६
(२) बिहारी सतसई की अमरचन्द्रिका टीका सं० १७९४
( ३ ) कविप्रिया टीका
( ४ ) नखशिख
(५) रसिकप्रिया का तिलक
(६) रससरस
(७) प्रबोधचंद्रोदय नाटक
(८) भक्तिविनोद
( ९ ) रामचरित्र
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:
[ १६३ ]
(१०) कृष्णचरित्र
(११) रसग्राहकचंद्रिका ( रसिकप्रिया की टीका )
(१२) रसरत्नमाला
(१३) सरसरस सं० १७९१-९४ ( १४ ) भक्तविनोद
1
(१५) जोरावर प्रकाश
(१६) वैताल पंचविसति ( महाराजा जैसिह सवाई की आज्ञा से रचित) ( १७ ) काव्यसिद्धान्त सं० १७९८
(१८) रसरत्नाकरमाला
इनमे से अमर चंद्रिका की रचना महाराजा अमर सिंह जोधपुर के नाम से हुई लिखना गलत है वास्तव मे वे अमरसिह ओसवाल जैन थे । जोरावरप्रकाश रसिक प्रिया की टीका का ही नाम है जो कि बीकानेर के महाराजा जोरावरसिंहजी के लिये सं० १८०० में बनाई गई थी । रसरत्नाकरमाला संभवतः रसरत्नमाला ही होगी । रसरत्न की रचना सं० १७६८ वैसाख रविवार को हुई थी और उसकी टीका कवि ने स्वयं मेड़ता के ऋषभगोत्रीय ओसवाल सुलतानमल के लिये सं० थी । रसग्राहकचंद्रिका की रचना सं० १७९१ वैसाख सुदी ८ को जहाँनाबाद के नशक (रु?) ल्ला खांन के लिये की गई थी । रस सरस और सरसरस दोनों ग्रन्थ एक ही हैं। इसकी रचना सं० १७९० के वैसाख सुदी ६ को आगरे मे कवि-मंडली के कथन से हुई थी । खोज रिपोर्ट व मेनारियाजी के विवरणी भाग १ में इसके रचयिता का नाम राय शिवदास लिखा है । भक्तविनोद और भक्तिविनोद दोनों प्रन्थ एक ही हैं।
१९८०० श्रावण में की
सन् १९३२-३३ की खोज से प्राप्त आपके रचित शृंगारसार ( सं० १७८५ अषाढ़ सु० ) से आपके कई अप्राप्य ग्रन्थों का पता चलता है । उनमे से छन्दसार का विवरण प्रस्तुत ग्रन्थ में दिया गया है । शृगांररस में उल्लेख होने के कारण इसका रचना काल सं० १७८५ से पूर्व निश्चित होता है । आपके अन्य प्राप्त प्रन्थ श्रीनाथविलास, भक्तमाला, कामधेनुकवित्त, कविसिद्धान्त का अन्वेषण होना परमावश्यक है । अनूप संस्कृत लाइब्रेरी में इनके अतिरिक्त रासलीला या दानलीला नामक ग्रन्थ की प्रति प्राप्त है । गत वर्ष सरस्वती में सूरतमिश्र नामक एक सुन्दर लेख भी प्रकाशित हुआ
देखने मे आया था । श्रभाजी ने जोधपुर के इतिहास मे इन्हे महाराजा जसवन्तसिहजी का विद्यागुरु खोज विवरण के अनुसार बतलाया है यह संभव नहीं है ।
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[ १६४ ) (९२) सूरदत्त (३०)-शेखावाटी-अमरसर के कछवाहा शेखावत राय मनोहर के पुत्र पृथ्वीचन्द्र के पुत्र कृष्णचन्द्र के कहने से इन्होंने सं० १७१२ के फागुन सुदी ५ को 'रसिकहुलास' ग्रन्थ बनाया । आप काशी के निवासी थे।
(९३) हरिदास (९२)-इन्होंने अमर बत्तीसी में जोधपुर के राठौड़ अमरसिंह के वीरतापूर्वक सलाबतखां को मारने का वर्णन किया है । रचना घटना के समकालीन रचित (२० १७०१ आसोज सुदी १५ ) होने से इसका ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्व है। इसे मैंने अन्य एक राजस्थानी वात के साथ भारतीय विद्या वर्ष २ अंक १ में प्रकाशित कर दिया है।
(९४) हरिवल्लभ-(६९) इनके प्रबोधचंद्रोदय नाटक का विवरण इस ग्रन्थ में दिया गया है। मिश्र-बन्धु-विनोद भाग १ पृ० ४१८ में इनकी भगवद्गीता भाषानुवाद को प्रशंसा करते हुए इसका रचनाकाल सं० १७०१ बतलाया है। इसकी प्रति अनूप संस्कृत लाइब्रेरी में भी है । आपका संगीतविषयक संगीतदर्पण नामक ग्रन्थ भी उपलब्ध है । इसके अतिरिक्त किशोरजु के लिये रचित भागवत् भाषानुवाद (पत्र ४८२) नामक वृहत्ग्रन्थ की प्रतिये चुरु के सुराना लाइब्रेरी और भंडारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्सटीट्यूट पूना में उपलब्ध है। ।
(९५) हरिवंश (३२)-ये छजमल के पुत्र मसनंद के पुत्र थे। इन्होंने रसिकमंजरी भाषा ग्रन्थ बनाया। मिश्र-बन्धु-विनोद के पृ० ४६४ में हरिवंश भट्ट बिल ग्रामी का उल्लेख है वे इन हरिवंश से भिन्न प्रतीत होते हैं।
(९६) हृदयराम (२७) कवि ने अपने वंश का परिचय देते हुए लिखा है कि गौड़ ब्राह्मण यजुर्वेद माध्यंदिनी शाखा के छरोंडा निवासी विष्णुदत्त के पुत्र नारायण के पुत्र दामोदर बड़े विद्वान थे। जिन्होंने हरिवंदन, कर्मविपाक (निदान के साथ)
और चिकित्सासार ग्रन्थ बनाये। ये बेरम के पुत्र के पास रहे थे एवं वृद्धावस्था होने पर काशीनिवास कर लिया था। इनके पुत्र रामकृष्ण ने जौनपूर में निवास कर बहुत से ब्राह्मणों को विद्यादान दिया । आसफखां के अनुज -एतकादखां ने इन्हे गुणी जान कर सम्मानित किया। रामकृष्ण के तीन पुत्र थे ११) तुलसीराम (२) माधवराम
और (३) गंगाराम । इनमें से माधवराम बहुत समय तक शाह सुजा की सेवा में रहे थे। इनके पुत्र हृदयराम हुए जो उद्धव के पुत्र प्रयाग दीक्षित के दोहित्र थे। इन्होंने मं० १७३१ के वैसाख सुदी ५ को भानुदत्त की रसमंजरी के आधार से रसरत्नाकर अन्य बनाया । दामोदर के उपर्युक्त ग्रन्थत्रय अन्वेषणीय हैं।
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[ १६५ ] (९७) हीरचंद्र (६३)-इन्होंने सं० १६९१ में मांडली नगर में रागमाला बनाई।
(९८) हेम (विजय) (१०४-१११) ये तपागच्छीय नेमविजय के शिष्य थे। इन्होंने सं० १८६६ कातिसुदी १५ को जोधपुर गजल और भावनगर गजल बनाई।
(९९) हेमसागर (९) आपने अंचलगच्छीय कल्याणसागर सूरि के समय (२.० १७०६ भादवा वदी ९ को) सूरत के निकटवर्ती हंसपुर में शाह कूआ के लिये छंद मालिका ग्रन्थ बनाया।
(१००) क्षमाकल्याण (७१)-आप खरतरगच्छीय वाचक अमृत धर्म के शिष्य थे । आप अपने समय के प्रतिष्ठा प्राप्त सैद्धान्तिक विद्वान थे। जैन धर्म सम्बन्धी पचासों स्तवनादि और पचीसों ग्रन्थ आपके उपलब्ध हैं। यहाँ केवल उल्लेखनीय कृतियों की ही सूची दी जाती है :
(१) भूधातुवृत्ति, सं० १८२९ चैत वदी १, राजनगर । (२) गोतमीय कान्यवृत्ति, सं० १८२९, राजनगर मे प्रारम्भ सं० १८५२
श्रावण सु० ११ जैसलमेर में पूर्ण । (३ ; खरतरगच्छ पट्टावलि, सं० १८३० फागुन सुदी ९, जीर्णगढ़ । (४) आत्मप्रबोध, सं० १८३३ काति सुदी ५. मिनराबन्दर । (५) चौमासी व्याख्यान, सं० १८३५ सावन सुदी ५, पाटोधी । (६) श्रावक-विधि-प्रकाश, सं० १८३८ जैसलमेर । (७) यशोधर-चरित्र, सं० १८३९ सावण सुदी ५ जैसलमेर । (८) थावच्चा चौपाई, सं० १८४७ विजयदशमी, महिमापुर । (९) सूक्त रत्नावली वृत्ति, सं १८४७ । (१०) जीव-विचार-वृत्ति, सं० १८५० सावण सुदी ७, बीकानेर । (११) प्रश्नोत्तर सार्धशतक (संस्कृत), सं० १८५१ जेठ वदी ५, जैसलमेर । (१२) प्रश्नोत्तर सार्धशतक भाषा, सं० १८५३ वैसाख वदी १२ बुध, बीकानेर । (१३) अंबडचरित्र, सं० १८५४ असाढ़ सुदी ३ पालीताणा, आर्या खुस्याल
श्री के लिये रचिता। (१४) तर्कसंग्रह फकिका, सं० १८५४ । (१५) चैत्यवंदन चौबीसी, सं० १८५६ जेठ सुदी १३ नागपुर । (१६) विज्ञानचंद्रिका, सं० १८५९ जैसलमेर ।
२२
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[ १६६ ] (१७) अष्टान्हिका व्याख्यान, सं० १८६० जैसलमेर (१८) अक्षयतृतिया व्याख्यान । (१९) होलिका व्याख्यान । (२०) मेस्त्रयोदशी व्याख्यान । (२१) श्रीपालचरित्र-वृत्ति, सं० १८६९ विजयदशमी बीकानेर । (२२) समरादित्य-चरित्र, सं० १८७३ । (२३) चतुर्विशति चैत्यवंदन । (२४) प्रतिक्रमणहेतवः।
(२५) साधुप्रतिक्रमण विधि, वालुचर । मिश्रबन्धु-विनोद के पृ० ८३२ में इनकी चार कृतियों का उल्लेख है।
(१०१) त्रिलोकचन्द्र (११८)-ये जोशी ब्राह्मण एवं ज्योतिषी थे । लालचन्द श्वेताम्बर यति के लिये इन्होंने केशवी भाषा टीका बनाई ।।
(१०२) ज्ञानसार (१२-१०८)-आप खरतरगच्छीय रत्नराजगणि के शिष्य एवं मस्त योगी एवं राज्य-मान्य विद्वान् थे। कवि होने के साथ-साथ ये सफल आलोचक भी थे। आपके सम्बन्ध में हमारा श्रीमद ज्ञानसार और उनका साहित्य शीर्षक लेख हिन्दुस्तानी वर्ष ९ अंक २ में प्रकाशित हो चुका है। विस्तार से जानने के लिये उक्त लेख देखना चाहिये । यहाँ केवल आपके हिन्दी ग्रन्थों की ही सूची दी जा रही है ।
(१) पूर्वदेश वर्णन (२) कामोद्दीपन सं० १८५६ वै० सु० ३ जयपुर के महाराजा प्रतापसिहजी की प्रशंसा में रचित (३) माला पिंगल सं० १८७६ फा० व० ९ (४) चन्द चौपाई समालोचना दोहा (५) प्रस्ताविक अष्टोतरी (६) निहाल वावनी सं० १८८१ मि०व० १३ (७) भावछत्तीसी सं० १८६५ काति सु० १ कृष्णगढ़ (८) चारित्र छत्तीसी (९) आत्मप्रबोध छत्तीसी (१०) मतिप्रवोध छत्तीसी (११) बहुत्तरी आदि के पद हैं।
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। १६७ ] परिशिष्ट नं. २
[अज्ञात-कर्तृक ग्रन्थ-सूची।] १ अतिसारनिदान ३८
२५ मालकांगिणी कल्प ४७ २ से ५ इंद्रजाल १२६. १२६. १२७.१२८ २६ मनोसत ८० ६ इन्दोरगजल १००
२७ मोजदीन महताब की वात ८२ ७ कीर्तिलता टीका १३५
२८ मंगलोरगजल १११ ८ कुतबदीन वात ७२
२९ रमल प्रश्न १२८ ९ गजशास्त्र ४२
३० रमल शकुन विचार १२२ १० जोधपुरगजल १०५
३१ से ३५ रागमाला ६४. ६४. ६५, ११ जम्बूकथा ७४ १२ तुरकी शुकनावली ११९
३६ राधामिलन ८२ १३, १४ नखशिख २४, २४ ३७ रुपावती ८३ १५ निजोपाय ४४
३८ लैलामजनू री बात ८५ १६ प्रबोधचंद्रोदय ७०
३९ शिखनख टीका १४० १७ पालीगजल १०७
४० शीघ्रबोध भाषा १२३ १८ पासा केवली १२०
४१ श्रीपालरास ८८ १९ पाहन परीक्षा ५५ ' -
४२ से ४४ स्वरोदय १३१. १३१. १३२ २० बहिली मारी बात ७८
- ४५ , विचार १३३ २१ बारह भुवन विचार १२० -४६ सांडेरा छंद ११४ २२ बीरवल पातसाह का बात ८६ ४७ हरिप्रकाश ५४ २३ मनोहरमंजरी २६
४८ हिय हुलास ६८ २४ माधवनिदान भाषा ४७ .
१. - इनमें से नं. १, १०, १३-१६, १८, १९, २२, २४, ३३, ४५, ४६ की प्रतियं नटित होने से रचयिता का नाम विदित नहीं हआ। किसी सज्जन का प्राप्त हो तो सूचित करें। नं. २३ के रचयिता मनोहर, नं० २१ का रचयिता सार संभव है।
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[ १६८ ] परिशिष्ट नं०३
[पूर्वज्ञात ग्रन्थकार] (मिश्रवन्धुविनोद में जिनका निर्देश है) १९ सूरतमिश्र १. आनंदराम
२० हरिवल्लभ २. उदयराज
२१ क्षमाकल्याण ३. कुंवर कुशल
(जिनका उल्लेख संदिग्ध है) ४. खुसरो
कृष्णानंद ५. चेतनविजय
खेतल ६. जटमल
गुलाबसिह ७. जनादेन भट्ट
सागर ८. तत्वकुमार
सुबुद्धि ९. दूलह
हरिवंश १० भीखजन
(मेनारियाजी के खोज ग्रन्थ भाग १ में) ११ भूप
गणेश १२ मालदेव
जान १३ मेघराज
[ पूर्वज्ञात ग्रन्थ ] १४ रामचंद्र १५ लालचंद
(मिश्रवन्धुविनोद में जिनका उल्लेख है) १६ लालदास
१. ख्वालक वारी ( खुसरो) १७ स्वरूपदास
२. चंपू समुद्र (भूप) १८ सुखदेव
३. लखपतजससिन्धु (कुंवर कुशल )
परिशष्ट नं०४
[अपूर्णप्राप्त ग्रन्थ ] १ अतिसारनिदान ३८ (अंत त्रुटित) १० वीरवल पातसाह की बात ८६ (आदि २ कृष्णचरित १९ (अंत त्रुटित)
अंत त्रुटित)
११ मूत्र परीक्षा ३९ (अन्त त्रुटित) ३ जोधपुरगजल १०५ ( " )
१२ माधवनिदान भाषा ४७(,. ४ दर्गसिह शृंगार २२ (आदि त्रुटित) १३ रसविलास २९ (आदि । ) ५ दलहविनोद २३ (अन्त त्रुटित) १४ रागमाला ६५ (अन्त , ) ६ नखशिख २४ (७ )
१५ स्वरोदयविचार १३३ ( ) ७ प्रबोधचंद्रोदय ७० (
१६ साहित्यमहोदधि ३६(अन्य खंड अप्राप्त)
__ १७ सांडेरा छंद ११४ (अन्त० त्रुटित) पासा केवली १२० ( आदि ") १८ संगीतमालिका ६७ (आदि ") ९ पाहनपरीक्षा ५५ (अन्त ) १९ हनुमान नाटक ७० (अन्त , )*
व इनकी कहीं पूर्ण प्रति प्राप्त हो तो सूचित करने का अनुरोध है।
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पृष्ठ
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पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ ..पंक्ति अशुद्ध शुद्ध ८९ २४ सुग नीति सुगनीति १०८ ५ ज्ञानसागर ज्ञानसा
१४ पतिना यतिना १०८ ९१ २४. सरवतसिंध सखतसिघा १०८ १६ रहित । रहिस ९१ १५ चरित्र चारित्र १०९ ३ शाद शारद कवीद्र कवीन्द्र १०९ १७ भेरे
मेरे ९३ २१ शुभ शुभं ११० ८ बंगाल।
बंगाला आग आउ ११० .१३ बहनी बहती बट
षट् ११० १९ जनन्नाथ जगन्नाथ
प्रथमै ११० २२ मां, ७ प्रगटीया
प्रगटाया ११० २६ आर्श्वनाथ पार्श्वनाथ ९७ १४ पजो पढ़जो १११ ४ विजैजन्द्र विजैजिनेन्द्र १५ द्वापुर द्वापर १११ १४ गुज्जारयं गुन्जरयं
अलिक अलिफ ११२ ४ सैहरह सैरह ९८ ५ (९) (८) ११२ ९ श्री। ५ सिठाय सिठायच ११२ २७ शिश्य
शिष्य ८ झीले - झाले ११३ १२ शन्त
शान्त हजरत ११५ १ भमै संवत ११५ २
कहत है ९८ १८ पत्र यत्र ११५ १० प्रणामुं प्रणमुं भनाय
मनाय ११५ २१ परण्यां वरण्यां १७ वाखी वारसी ११६ ९ तेह्रसह तेसठह १०३ २९
महिपल महियल ११७ २ इन्द्रगाल इन्द्रजाल १०४ ७ नानविजय मानविजय ११७ १५ चित्र
चित्त १०५ २७ प्रहढ़वोधी दृढ़प्रतिवोधी११७ १९ सरम ।
सरस १०६ १२ धणी घणी ११८ १६ वि० लिक १०६ १२ गुम-पढ़े गुण, पढ़े ११८ २१ नायव । १०७ २१ गच्घ गच्छ ११८ २३ समुद् १०७ २३ घणी धणी ११८ २४ लच्मन लच्छन
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वैभः
वैभवाः
पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ११८ २८ पुहष ११९ ४ अदि ११९ १६ शास्न
२० जोतिसार १२० ७ आभय __१२० १२ जाौँ
१२१ २ क्रोनी १२२ २८ चरित्र १२२ ३२ अचित १२३ ६ समाप्तम १२३ २४ इति १२४ ९ पडित १२४ १४ (पूण) १२५ ८ सूरिजी
२० भरवी १२७ २२ पुरन १३० १ दाहू १३० २१ हलहल १३० २५ राज
१७ विद्यावत १३३ २२ (२९) १३४ १ सिराघो १३५ ६ मिभुवन
[ १७१ ] .
शुद्ध पृष्ठ पंक्ति भशुद्ध शुद्ध पुरुष १३५ ९ कीत्तिसिह कीर्तिसिंह
आदि १३५ १७ विखितं लिखित शास्त्र १३६ ४ पाइर्चसेवितं पार्श्वसेवितं जोतिषसार १३७ ४ ग्रन्थस्य ग्रन्थस्य अभय १३७ १४ वर्ति वृत्ति जाणे १३७ २३ प्रिपायाः प्रियायाः क्रोधी १३८ १२ ह्वेन ह्वेन चारित्र १३८ २० श्वी श्री अचित १३८ २० रवत् रभवत् समाप्तम् १३८ २७ ईति १३८ २९ सज्जानानां सज्जनोनां पंडित १३८ ३१ । चित्र चित्त (पूर्ण) १३८ ३३ ताच्छिस्य तच्छिष्य सूरज १३९ ६ ज्ञानप्रमोददो ज्ञानप्रमोदो भारवी १३९ ८ तस्त्पक्त तस्त्यक्त पुरान १३९ १५ सौम्पः सौम्यः दादू १३९ १७ शिक्ष शिष्य हलाहल १३९ २५ यावर्तिष्ठति यावतिष्ठति काज १३९ ३१ द्रशे विद्यावंत १३९ ३३ दृष्टि पृष्टि (२८) १३९ ३४ शास्नं शास्त्रं सिराधो १४० ३ साइल साइज त्रिभुवन १४० १३ तिभजंपिण तिमपिण
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द्रक्षे
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महत्वपूर्ण साहित्य
राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज भाग - १
मेवाड़ के सरस्वती-भण्डार में स्थित १७५ महत्वपूर्ण हस्तलिखित ग्रन्थों की २०१ प्रतियों के विवरण इसमे दिये गये हैं । इस ग्रन्थ से प्रसिद्ध साहित्यकारों के २६ नवीन ग्रन्थों, ४४ नवीन ग्रन्थकारों तथा उनके ५० ग्रन्थों की खोज हुई है। डॉ० हीरानन्द शास्त्री, डॉ॰ श्यामसुन्दरदास, डॉ० रामकुमार वर्मा, पं० अमरनाथ झा, डॉ० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, पं० क्षितिमोहन सेन, दी० ब० हरविलास शारदा, विश्वेश्वर नाथ रेड आदि द्वारा प्रशंसित ।
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लेखक – श्रीयुत पं० मोतीलाल मेनारिया एम० ए०। ४+६+४+२०+ १८२ पृष्ट | मूल्य तीन रुपया ।
मेवाड़ की कहावतें भाग - १
राजस्थानी कहावत माला की यह पहली पुस्तक है । इसमें १०३९ राजस्थानी कहावतें सम्पादित की गई हैं। भूमिका लेखक डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल एम० ए० । सम्पादक -श्रीयुत पं० लक्ष्मीलाल जोशी एम० ए०, एल- एल० बी० । १०+ १६+२००+८ पृष्ठ । मूल्य दो रुपया ।
मेवाड़-परिचय
मेवाड़ के भूगोल, इतिहास, शासन-पद्धति, संस्कृति, भाषा, साहित्य तथा मेवाड़ की प्रगति के लिये किये गये विविध प्रयत्न और मेवाड़ के रमणीय एवं दर्शनीय स्थानों की जानकारी के लिये यह पुस्तक परम उपयोगी है ।
लेखक - श्रीयुत विपिन विहारी वाजपेयी, एम. ए., सा० २० । ६+६८ पृष्ठ मूल्य आठ आना ।
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शोध-पत्रिका
१ - अपने विषय के मान्य विद्वानो के सम्पादन में प्रकाशित होती है ।
२ - शोध-पत्रिका को भारतवर्ष के कई प्रमुख शोधकर्ताओं का सहयोग प्राप्त है । ३–शोध-पत्रिका का प्रत्येक निबन्ध एक शोधपूर्ण पुस्तक का महत्व रखता है । ४–प्रत्येक संस्था, विद्यालय, वाचनालय, पुस्तकालय और घर में स्थान पाने योग्य है। ५- वार्षिक मूल्य छः रुपये । एक अंक का डेढ़ रुपया । पृथ्वीराज रासो का प्रामाणिक संस्करण
१ - विस्तृत खोजपूर्ण भूमिका, शब्दार्थ, पद्यार्थ और आवश्यक मानचित्रों सहित प्रकाशित होगा ।
२-२२+२९।८ आकार के लगभग २५०० पृष्ठों में खण्डशः प्रकाशित होगा । ३ - सम्पूर्ण रासो का मूल्य ४०) रु० होगा; किन्तु ५) रु० अग्रिम भेज कर ग्राहकश्रेणी में अपना नाम लिखवा लेने से ३०) रु० मे मिल जायगी । ४- ढाक अथवा रेलव्यय ग्राहकों के जिम्मे होगा । ५- सम्पादक - श्रीयुक्त कविराव मोहनसिह, प्रसिद्ध रासो - तत्वज्ञ | ६ - विशेष ज्ञातव्य के लिये प्राप्त कीजिये -- रासो - विज्ञप्ति |
प्राचीन साहित्य शोध-संस्थान उदयपुर विद्यापीठ, उदयपुर [राजपूताना ]
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