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[ १२७ ! अथ नाटक भेद लिख्यते ।
करता करतार जुग साचे सांई, मूरख अपनी लोक जानत नाई। कहेता हूँ बात तू सुनरे प्यारे, सब घट व्यापिक सौ तौ सबसौ न्यारे ॥ ॥ मन्त्र यन्त्र तन्त्र तं सनले सारे, नाटक को भेद भव कहूँगा रे । टूटे भग्यांन अरु खूटे तारे, दिल की जो संसै सब दूर ढारै ।।२।।
अथ चेटके भेद लिख्यते
दोहा
तुम फू कहि सरवन सुनी, सरचे नाटक भेद । अब चेटक उपदेश कर, मिटे जीव को खेद ।।१।।
मुख सुं बोलो बात यह, जो गहलौ हुय जाय ।
तब कपड़ा फाडत फिरे, कछु न लागे उपाय ।।८।। अथ दीपावतार लिख्यते इन्द्रजाल प्रियोग । लेखन काल-२० वीं शताब्दी । प्रति-गुटकाकार | पत्र ३५ । पंक्ति १० । अक्षर १५। साइज ४॥४३॥
(अभय जैन ग्रन्थालय) (१६) इन्द्रजालभादिअथ इन्द्रजाल लिख्यते।
गुरु विन ज्ञान नहीं ध्यान नहीं हर विनु नर बिन मोक्ष न मुक्ति रे । धरनी करनी सार सकल में, इस विध भाखे उक्ति रे ।।१।। इन्द्रजाल माल इह गुन की, गुरु गम नहीं पावे रे । वेद पुर न कुरान में नाहीं, व्यास न जानी बातें रे ॥२॥ प्रथम भेद वेद को सारो, सोह मन्त्र लेखे रे । आसन पदम सदन महिं बैठे, सूर चन्द्र घर ल्यावे रे ॥३॥ भासन सयम यतन विध, साध वाद विवाद कहू नधि वाद । मन्तर जन्तर तन्तर सारे, नाटिक चेटिक कहायं रे॥ विधि विधान चातुरी वेदक, कोक निरन्तर कहस्यां रे । सांदा चांदा तस्कार विद्या, जोति रूप क सारे रे ॥ कहत छम तुम सुणे महेश्वर, यही घरद तुम पालो रे ।