________________
। ३२ ]
अंत--
देवीदास वियास मनि, गुननिधि विद्या धाम । तिनके सुत के सुत रच्यो, पूरन रसिकाराम ॥ २ ॥ बीकानेर पुरे श्रिया सुख करे नृपस्य भूमीपतेः । देवीदास इति त्रिलोक विदितो व्यासान्वयोस्ति प्रधी तत्पुत्र किल देवर्जीति विदितो स्तत्सूनुनायं कृतं
शृङ्गारात्मक अकरूप रसिका रामः सुबोध्यो बुधैः ।। ११ ॥ लेग्वन-संवत १७५२ वर्ष माघमासे शुक्लपक्ष तिथौ ११ एकादश्यां सोमवासरे लिखते ब्रा० वदरा दाहिवां ओझा, वांचे तिने राम राम ।
प्रति-गुटकाकार । पत्र २८ से ६४ । पंक्ति १६ । अक्षर १८ । साइज ६४६
विशेप-प्रथम अध्याय-नायिका निरूपण पद्य ४३ द्वितीय अध्याय-नायक निरूपण पद्य १६, तृतीय अध्याय अलंकार निरूपण पद्य ३१।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (२४) रसिक मंजरी भाषा । हरिवंस । आदि
कल कपोल मद लोभ रस, कल गुजत रोलंय । कवि कदंब आनंद कहि, लंबोदर अवलंब ॥ १ ॥ अति पुनीत, कलि कलुप विहंडन, साहि सभा सबहिनि सिर मंडन ।
खुलित खग्ग खत्तिय सिर खडन, जगमगात हक्कु इक्कुल तंटन ॥२॥ . .,
, पद्धरी छंद : - - - . , . तिह. वंस किय उद्योत, तिहि कित्ति सुरसदि सोत ।
छजमल सुअ आनंद, मसनंद परमानंद ॥ ३ ।। कुल कमल मानस हंस, जसु कित्ति जगत प्रसंस । मसनंद सुभ अवतंस, जयवस मनि हरिवंस ॥ ४ ॥ रसिकराई हरिवंस तिनि, चंचरीक निज हेत। भानु उदित रसमंजरी, मधुर मधुर रस लेत ॥ ५ ॥
अंत
साक्षात् दर्शनहा हा तजि रे चित चंचलता, जीवरा निज लाजन लोलुप हैं । करुणा करि नैननि नीर भये, तुम्हकू न परौ पलके पल है।