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सिर सोहत मोरनिके चंदूवा, मुरली मधुरा धर तै मधु है।
नध नीरद सुंदर स्यामल होत, हहा हरि लोचन गोचर है ॥ २७ ।। इति श्री रस मंजरी भाषा, हरिवंस कृत संपूर्ण। श्री श्री श्री श्री। लेखन-१८ वीं शताब्दी। प्रति-१-गुटकाकार । पत्र २९ । पं० १३ । अक्षर २५ । साइज ६४५।। २-विनय सागरजी संग्रह,
(जयचंद्रजी भंडार) (२५) रसिक विलास । कवि केसरी । आदि
जासु लगत सर निकट, कन्ह वृन्दावन नंचिय । चलत जुद्ध जिहि क्रुद्ध सुद्ध, संकरु नहिं रंचिय ॥ जेहि वस कियउ समग्ग, अमर दानव किन्नर नर । जड़ जंगम केहरि जाहि, सेवत निस वासर ॥ जिन रच्चिय जग तुअन वन विधि नमुनि जानत जिमि रत्ति वर । तेही तजि अपरू केहि वंदियइ, परम पुरुस प्रभु पंचसरु ॥ महा महाकवि है गये, कोरे धरनि अनेक । बहु रतना वसुधा कही, गुनी एक ते एक ।। निन भाषा में केहरी, केचित भयो प्रकास ।
श्री ब्रजराज सुजान हित, कीनों रसिक विलास ।। अंत
केहरी मै धन आस बध्यो, मनु दाहै मरोद वज्यो प्रमदा हो।
रुख्यो पर्योइ रहे सजनि, सुनि नाह सों ही नित नेहु निबाहों ।। १ ।। इति श्री कवि केशरि कृते शृंगार रसे नायिका भेदे रसिकविलासोल्लासे सप्तमः प्रभावः । संपूर्णोयं ग्रन्थः।।
लेखन-१८ वी शताब्दी । लिखतमिदं पुस्तकं महानंदात्मज कृष्णदत्त व्यासेन ।
प्रति-गुटकाकार । पत्र २१ । पंक्ति १८ से २२ । अक्षर २० से २४ । साइज ६४९।।
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय) (२६) रसकोष-जान कवि सं० १६७६ ।
ग्रन्थ रस कोष । आदि
अलख अगोचर निरंजन, निराकार अविनास । __ काहू की पटंतर नही, ना को पटतर तास ॥ १ ॥