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[ ३४ ] निमसकार ताको करौ, नांउ महंमद जाहि । असरन सरन अभरन भरन, भै भंजन गुन ताहि ॥ २ ॥ जवहि बखानौ नाइका, नाइक कहि कवि जान । मयूं कy रसमंजरी, सुनो सबै धर कान ॥ ३ ॥ तन मन मै संतोप है, मिट चित को सोप । आरस दोपन नास है, धर्यो नांड रसकोष ॥ ४ ॥
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अंत
जहाँगीर के राज्य में, हरन चित को दोप। सोलहसै पटहुतरे, क्यिो जान रसकोप ॥ १४१ ॥
चौपाइ ५० लेखन-सौलहसै चौरासिये, नन फतेपुर थान ।।
हुती जु सातै जेठ बदि, लिख्यो भीखजनु जान ॥ १ ॥ (ग्र० ३००) प्रति-गुटकाकार, जिसमे पहले आनंद रचित कोकसार (सं० १६८२ लिखित) है ।
(अनूप संस्कृत लायब्रेरी)
(२७ ) लखपति जस सिन्धु । तपागच्छीय कनककुशल शिष्य कुंवरकुशल । आदि
सकल देव सिर सेहरा, परम करत परकास । सिविता कविता दे सफल, इच्छित पूरै आस ॥ १ ॥
अत
कवि प्रथम जे जे कहे, अलंकार उपजाय।
कुंवर - कुशल ते ते लहे, उदाहरन सुखदाय ॥ ८२ ॥ इति श्री मन्नमहाराज लक्षपति आदेशात् सकल भट्टारक पुरन्दर भ० श्री कनककुशल सूरि शि० कुंअरकुशल विरचिते, लक्षपति जससिन्धु शब्दालङ्कारार्थलंकार त्रयोदश तरंग। प्रति-गुटकाकार । पत्र ५३ ।
( यति ऋद्धिकरणजी भंडार, चूरू) (२७) विक्रम विलास । लालदास । आदि
जिहिन सुन्यौ हरिवंस जिमि, विक्रम साहि विलास । तजहिनते रसराज वर, तनै जनम सुख आस ॥ १ ॥