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[ ३१ ] रसिकराय सो तिन कयो, करिके बहुत सनेहु ।। हमको रसिक हुलास करि, रसतरगिनि देहु ।। १० ।।
दोहा
संवत सतरैपे वरस, सोरह ऊपर जानि । फागुन सुदि तिथि पंचमि, सु महूरत सो मानि ॥ १।।। ता दिन ते आरंभ यह, कीन्हों रसिक हुलास । समुझि परै जाके पदें, (र)सके सबै विलास ।। १२ ।। पढ़ें जो रसिकहुलास वह, नर नर वर म कोइ । जाने गति रस भाव की, मजिलिस मंडन होइ॥ १३ ॥ सूरदत्त कवि अलप मति, कासी जाको वास । अति प्रवीन तिन सरस यह, कीनो रसिकहुलास ॥ १४ ॥
अंत
बुध वारिद वरषहुं सदा, तातें नह नवीन । जाते रसिकहुलास की, वृद्धि होहि परवीन ।। जावत सूर सुता रहै, धरती मै सुख पाइ ।
तावत सूरदत्त कृत, रसिकहुलास सुहाइ ॥ इति श्री सूरदत्त विरचिते रसिक हुलासे दृष्टि आदि निरूपणं नाम अष्टमो हुल। समाप्तं ।
लेखनकाल-सं १७४९ । मिती कार्तिक वदी सप्तमी । प्रति-पत्र ४५ । पंक्ति । २२ । अक्षर १७ । रस रत्नाकर वाले गुटके मे है।
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय ) (२३) रसिक आराम पंद्य १०० । सतीदास व्यास । सं० १७३३ माघ शुक्ला : बीकानेर आदि
नमन करि हलवीर कुं, नव जलधर वर स्याम । सतीदास संछेप सुं, रचति रसिकआराम ॥ ५ ॥ शुभ संवत से सप्तदश, वरस वरन तेतीस । मास माघ सित पछ तिथि, दूज भ चार दिन ईश ॥ २ ।। बीकानेर सुहावनों, सुख संपति गुन रूप । सुथिर राज महि मेरू लों, अधिपति भूप अनूप ॥ ३ ॥