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भोजन करी वीरी खाई सखिनी मिलि खेलनि लागि। और मुखरा अपनैं घर गई। अरु श्री किसनजी वन विहार करते (करते ) सखा व गउवन सहित अापने घरकुं सिधारे। __इति श्री वृन्दावन माधव की कथा श्री माधौ श्री राधा विलास रास क्रीडा विनोद सहित चतुर्थ अंक समाप्तं शुभं । श्री राधा किसन प्रीति से चारि बारि मिल्या।
प्रति-गुटकाकार । पत्र ३२ । पंक्ति २० । अक्षर १८ । ६।४९।।। विशेष-इसकी चार प्रतियें हैं। रूपावती वाले गुटके मे भी यह ग्रन्थ है। उसके आदि में ५ दोहे है व अन्त भिन्न प्रकार का है ।
(अनूप संस्कृत लायब्रेरी) (१४) रूपावती।
सं० १६५७ । भादि
जंबुदीप देग तहां वागर, नगर फतेपुर नगरां नागर । भासि पासि तहां सोरठ मारू भाषा भल्ली भाव फुनि रू। राजा तहां भलफखां जनाहु चहवान हठी का पहिचानह । ताकर कटक न आवै पारा समद हिलोरनि स्यों अधिकारा । तुरक त मंकि चढ़े केकाना नगर गर नगर मू परे भगाना । राजपूत भसि चढ़ि करि कौपह रविरथ थकै गिमनि कौं लोपह ॥ १॥
दोहा ता घरि पूत सुलछनां, मन मोहन सुर ज्ञान । चिरंजीघ दिनपति उदो दूलह दौलति खांन ।
चौपाई भलपखांन चहुवान की सरभरी कौं करि सके न देख्यों कर भरी । इह विधि कीयो आप वखार करम जोति स्यौ दिपै लिलार । इन्द्र की सभा सुनी हम कांनि परतकि देखी इन्ह पहचानि । जास्यों रस शो नो निधि पावै जहिस्यों रिशि सो मूल गवावै । दीनदार दया असि कीनो हजरति कहयो सुशिर धरि लीनु । ता दिगि सेरखांन नित्य सोहे दीनदार अर सभात विमोहै। सारदुल भर संघ विराजै गुजै साल शिवाली भाजै ।
दोहा
ताहि उजीर साहिवखां और दखांन उकील । एक ही एक समगल वैठे करह सवील ।। २ ॥