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[ २२ ] अंत
सवैया जा तिय निसि द्यौसु रहे पति, सो तिय काहे कौं नेह कमे । घन बार छुटे ग अंजन ही, नतमोर विना मुख लाल हसे । सखि स्यांम महावरु पाइ दयो, सु विलोकि विलोकि विचारि रमै ।
मन आने नहीं वनिताजि बनी, सब ही के सिंगारनि देखि हसे ॥ ७३ ॥ इति सौन्दर्यगर्विता अरु प्रेम गर्विता कही ॥ इति श्री दंपतिरंग शृंगार अष्टनाइका भेद संपूर्ण।
लेखन-संवत् १७०९ का वैशाख सुदि ३ दिने श्री जगतारिणी मध्ये पं० चारित्र विजय लिखत वाचनार्थ दीर्घायु सक्त । भंडारी श्री कपूरचंद्रजी री पोथी उपरि लिखि आख्या तीज है दिन शुक्रवार । श्रीरस्तु।
प्रति-गुटकाकार । पत्र ६ (१४२ से १४७)। पंक्ति १९ । अक्षर ३८ । साइज ७||४५
(अभय जैन ग्रन्थालय) (१०) दुर्गसिंह शृंगार । जनार्दन भट्ट । सं० १७३५ । ज्येष्ठ शुक्ला ९ रविवार ।
आदि-~प्रथम के २३ पत्र नहीं है।
अंत
तिय तरवनि जावक लसे, सब सोभा आगार । नव पल्लव पकज मनों, दयो हारि निज सार ।। ३४३ ।। सत्सरेसे पैतीस सम्, जेठ शुक्क रविवार । तिथि नौमि पूर्ण भयो, दुर्गसिह शृङ्गार ॥ ३४४ ॥ छन्द अर्थ अक्षर कहूँ, भयो होइ जो हीन ।
लीज्यो सकल सुधारिकै, सो या मांझ प्रवीन ।। ३४५ ।। इति श्री गोस्वामी जनार्दन कृतः श्री दुर्गासिंह शृङ्गार संपूर्ण । श्री शुभमस्तु । श्रीरस्तु संख्या ९००।
लेखनकाल–१८ वीं शताब्दी । प्रति-पत्र २४ से ४६ । पंक्ति ९ । अक्षर ३८ । साइज १०४५ विशेष-प्रारम्भिक अंश मिलने पर संभव है दुर्गसिह के बारे में नई जानकारी प्राप्त हो।
(अनूप संस्कृत पुस्तकालय)