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() नगर-वर्णन
(१) आगरा गजल । पद्य ९४ । लक्ष्मीचंद । सं० १७८० आषाढ़ शुक्ला १३ । आदि
सरसती मात सुभाषनी क, देहो दास कुंजानी क । अकबराबाद की टुक आज, उतपति कहत है कविराज ॥१॥ अकबर साहजी गुणधाम, रमते निकले इह ठाम । इहाइ एक देख्या खासा क, अकबर साह तमासा क ॥२। गीदर सेर कुं झीले क, ढाढे पातिसाह भाले क । इजरत लोक कुं ऐसी क, पूछे बात ऐसे की क ॥३॥
अन्त -
अकबराबाद है ऐसा क, लखियै इन्द्रपुर तैसा क । सब गुन सहर है भरपूर, देखत जात है दुख दूर ।।९।। जबलग गगन अरु इंदाक, पृथवी सूर गन चंदाक । सुवसो तब सगै पुर एह, सहर आगरा गुन गेह ॥१२॥ सवत सतरै सै असी क्या क, आषाढ़ मास चित वसियाक । सुदि पख तेरमी तारीख, कीनी गजल धुए बारीक ॥३॥ अपनी बुद्धि के सारुक, कीनी गजल ए पाक । लखमी करत है अरदास, नित प्रति कीजिये सुविलास ॥९॥
(प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय) (२) आबू शैल री गजल । पद्य ६५ । पनजीसुत चेलो। सं० १९०९ वैसाख वदी तीज। ___ भादि
ब्रह्म सुता पर धीनवु, भन गणराज भनाय । शोभा भावू शैल की, घर' उकि बणाय || ॥