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[ ९५ ] पूर्ति
दौलतखां दीवन कौं, अब हौं करौं घखांन ।
तेग त्याग निकलंक है, जानत सकल जिहान । जान कवि बहुत बड़ा कवि होगया है । इसके ७० ग्रन्थों का संग्रह हिन्दुस्तानी एकेडमी, प्रयाग, के संग्रहालय मे पहुंचा है।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (४) जसवन्त उद्योत ( जसवन्त विलास) पद्य ७२० । दलपति मिश्र ।
सं० १७०५ आषाढ सुदी ३ । जहांनाबाद । आदि
अथ महाराजाधिराज महाराजा श्री जसवन्तसिंहजी को ग्रन्थ मिश्र दलपति को कयौ लिख्यते।
दोहा प्रथम मंगला चरन, देव चरन चित्त लाइ । गनपति गिरा गिरीस की, विनती कही बनाइ ॥१॥
अथ कवि वंसं वर्णनं
अकबरपुर अनुपम सहरु, वसे सुरसरी तीर । चारों वर्ण हैं जहां,. धर्म धुरंधर धीर ॥ ५॥ दीप मिश्र माथुर तिहां, सदा कम यट लीन । साधु सिरोमणि शील निधि, पंडित परम प्रधीन ॥ ६ ॥ तिन पुनि राम नरेस ढिग, कियो कछु दिन पासु । पाठे नृप कौविद धरनि, जगमगातु जसु आसु ॥ ७ ॥ सदाचार गुन गन निपुन, तासु तनय सिवराम ।। तिनके सुत तुलसी भए, सकल धरम के धाम ॥ ८ ॥ तुलसी सुत दलपति सु कवि, सकल देव द्विज दासु । तिन वरन्यो बल बुद्धि सौं, श्री जसवन्त विलासु ॥ ९ ॥ पांच अधिक सत्रह सई, संबत को परिमांनु । प्रीम रीति भाषाढ़ सुदि, तीज वारु हिम भानु ।।१०॥ नगर जहांनाबाद जहां, रच्चै चकतां भूप । तहां दलपति जसवन्त की, पोथी रची अनूप ॥११॥ नगर जहांनाबाद को, वरनन को बनाइ । जहां नृपति जसवन्त कह, मिल्पी कवीसुर भाइ ॥१२॥