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[८६ ] देई सर्व आशीस, जगति जिके नरनारी।
शशि रवि लगु थिर त (र) हो, श्री विक्रम उपगारी ॥ लेखन काल-सं १७४८ । प्रति-पत्र ३० । पंक्ति १६ । अक्षर ४० ।
(गोविद पुस्तकालय) (१८) बीरवल पातसाह की वात । मध्य
पातसाह तेंमूर समरकन्द की फतह करी तहां एक अन्धी लुगाई कैद में आई। पातसाह पूछी तेरा नाम क्या है। लुगाई कही मेरा नाम धौलति है । पातसाह कही धौलति भी आन्धी होती है । लुगाई कही धौलति अन्धी न होती तो तुम सरीखे लंगड़े की घर में क्यूं आवति । प्रति-गुटकाकार । पत्र १० से ४५ । पंक्ति १२ । अक्षर २० । साईज ८१४६।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (१९) वैताल पचीसी । भगत दास । आदि--
गुरू गनेश के चरन मनायौ। देवी सरस्वती के ध्यावौ । भकवर पातीसाह होत जहि । कथा अनुसार किन्ह मैं तहिमा । सुरा पानी न सुनीए काना । परबत अमन सीन्धु सव माना । अचल इन्द्र सम भुजै राजा । तख्त आगरा मोकाम भल छाजा ॥१॥
अस्थल अकवरपुर वासा । बहुत सन्त ताही करै निवास।।
तेही पुर है कवि जन के वासा । हरि की कथा सदा परगासा ।। वरन काहू नाहा राघौ दास । तीन्ह के पुत्र कथा परगासा ।
अंत
दाशन्ह को दास भगत मोही नाउं, हरिके चरन सदा गीत भाउं । वरना काहु है लघुता गोती; हरि जस कथा कीन्ह बहु भाती ।
दुनौ वीर तव नाट कराहे, देवी वीर तब आह । देई वर नृप वीक्रम कह, अस्तुती करत पुनि आह ।