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[८५ ] (१६) लैलै मजनू री वात आदि
श्री गणेशायनमः । अथ लैलै मजनूरी वात लिख्यते । ____ संवरकन्द विलायत । तहां साहि जुलम पातसाही करै । तहां विलायत ऐसी, जिसकी कौन तारीफ करै। बहुत ही जो इसकी विलाइत ये तीसू बिम । जो कहां ताई तारीफ करिये।
देख्या समर सुहावनो, अधिक सुरंगा लोग ।
नारी नैण सुहावणी, पान फूलदा भोग ॥ १ ॥ अंत--
ऐसा प्यार दोनों का निवह्या है । जैमा सबही का निवहो । जिसकी आसकी लगै । जिसकी ऐसी निबहियो । तिस बीच बहुतही निवाहीयो ।
दोहा लैले मजनूं नेह था, तैसा सब का होय ।
अंखिया की अंखिया लगी, निरवरही नहि कोय ॥१॥ इति लैलै-मजनूरी वात समाप्ता।
लेखन-सं १९२० मासानुमासे माघ मासे कृष्ण मासे कृष्ण पक्षे तिथौ अमावस्यां सूर्यवासरे। लिपिकृत्वा आत्मारामेण । प्रति-गुटकाकार । पत्र ४६ । पंक्ति १३ । अक्षर १६ । साईज ७४७ । एक अन्य प्रति भी है। '
(अनूप संस्कृत लायब्रेरी) (१७) विक्रम पंच दण्ड चौपाई । मुनिमाल। १७ वी शती । आदि
शान्ति जिनेसर पद नभी, विक्रम चरित उदार । पंच दण्ड छत्रह, तणी, कथा कहूँ शुभकार ॥ १ ॥
आगति थोडी खरच बहु, जिस धरि दीसे एम । तिस कुटुम्ब का माल कहि, महिमा रहसी केम ।। २६ ।।
अन्त
रिण अन्धारेठ मेटि दांनि प्रगट जगि जायउ । ताते विक्रमादित्य, सांचउ नाम कहायउ ।।